सहायता करे
SUBSCRIBE
FOLLOW US
  • YouTube
Loading

“सोनू बेटा, प्लीज सी लार्जर पिक्चर”- धर्म के नाम पर हो रही राजनीति पर यह लेख पढ़िये

सोनू बेटा, प्लीज सी लार्जर पिक्चर

मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि 

“आम आदमी को अगर उलझा कर रखना है तो बस शिक्षा और स्वास्थ्य महंगी कर दो, आम आदमी उसी में उलझा रह जायेगा” 

आम आदमी बेचारा गेंहू का आटा पिसा-पिसा कर एक दिन खुद पिस कर मर जायेगा.

मगर जब से महंगाई देश में एन्टी इनकम्बेंसी का माहौल तैयार करने लगी, सरकार डरने लगती है कि कहीं महज एक अदना सा प्याज़ उनकी सरकार ना गिरा दे. तब याद आते हैं वही दाढ़ी वाले बाबा, कार्ल मार्क्स जी, जिनके आइडियोलॉजी का सर्टिफिकेट दे देकर ना जाने कितने युवाओं को हर साल या तो जेल की हवा खानी पड़ती है, या फिर राहे बटोही कोई दो टका का सड़कछाप पकड़ पकड़ के उन्हें सर्टिफिकेट दे देता है कि ये तो सेक्युलर है, ये तो अर्बन नक्सल है, ये तो देशद्रोही है.

कार्ल मार्क्स से इतनी नफ़रत होने के बावजूद, गोरे अंग्रेज़ से लेकर भूरे अंग्रेज़ तक को उनकी एक बात बहुत पसंद आती है. मार्क्स ने कहा था कि रिलिजन इज़ अ ओपियम, मतलब धर्म एक अफ़ीम है। और अफ़ीम की खेती के लिए तो अंग्रेज़ों ने चीन से यद्ध तक लड़ लिया था, तो हम यह कोलोनियल हैंगओवर क्यों उतारें? हमें भी हाई होना है, क्योंकि जब पास कोई काम ना हो तो नशे से बेहतर कुछ भी नहीं होता है.

धर्म का नशा इतना सस्ता और मुफ्त है कि इससे आगे महबूब की आंखों का नशा भी फीका पड़ जाता है. जो उम्र कमाने, घूमने, और इश्क़ लड़ाने की होती है, उस उम्र में आज का युवा धर्मयोद्धा बनना चाह रहा है. घर में आटा हो या ना हो, आज मोबाइल में सभी के डाटा है. शहर में ढंग का कोई लिबरल आर्ट्स का कॉलेज हो या ना हो, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में दाखिला सबके लिए खुला है। जबसे लाइब्रेरी से ज्ञान की जगह हमने प्राइम टाइम/दैनिक समाचार से ज्ञान लेना शुरू किया है, तभी से इतिहास साक्षी है कि लोगों के धर्म खतरे में पड़ गए हैं.

हर महीने कुछ ना कुछ पैटर्न के तहत देश में घटता है, और लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाला मीडिया, टीआरपी और एड प्रॉफिट की लालच में समाज में सेंसिटिविटी की जगह सनसनी फैलाये रखता है.

रामपुर मोहल्ले का सोनू हो या रहिमगंज का सलीम, आज दोनों ही बेरोजगार हैं, और दोनों को लगता है कि वें कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिसके किये बिना उनका धर्म बचेगा ही नहीं। सोनू के बाबूजी हो या सलीम के अब्बू, लोकल इलेक्शन हो या फिर लोकसभा का इलेक्शन, उन्हें अपने जनप्रतिनिधियों से यह सवाल अब पूछना ही नहीं है कि हर बारिश में उनके घर के आंगन में नाले का पानी क्यों चला आता है? उन्हें यह जानना ही नहीं है कि देश के बजट में उनके लिए क्या खास है. उन्हें इस बात की चिंता ही नहीं सताती है कि उनका सोनू हो या सलीम, जो आज किसी छुट्वैय्ये नेताजी के रैली में झंडा उठाता है, कल जब 40 साल का हो जाएगा, कमर जवाब देने लग जायेगा, तो फिर रोज का ₹200 जो मिलता है, वो कहाँ से और क्यों देंगे नेताजी.

उन्हें इन सब बात से फ़र्क इसीलिए नहीं पड़ता, क्योंकि चाहे सोनू के बाबूजी हों या सलीम के अब्बू, चाहे सोनू हो या सलीम, रोज रात को जब सूखी रोटी खा कर सारा खानदान टीवी के आगे चिपकता है, तो धर्म वाली अफ़ीम का एक जबरदस्त डोज़ मिलता है, और फिर कल सुबह के लिए उसी ऊर्जा के साथ सारा परिवार व्हाट्सएप पर फारवर्ड फारवर्ड खेलता है, कि धर्म खतरे में है, देश संकट में है. इति।

-अमन कौशिक (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातक है। )

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

Be the first to comment on "“सोनू बेटा, प्लीज सी लार्जर पिक्चर”- धर्म के नाम पर हो रही राजनीति पर यह लेख पढ़िये"

Leave a comment

Your email address will not be published.


*