सड़क की चिट्ठी, संसद के नाम
देश के निजाम के नाम
मैं सड़क हूं, और गांव की गलियों से होकर संसद तक आती हूं.
दुनिया बदल गई, लोग बदल गए, उन गांवों ने भी कस्बे और शहरों में तब्दील होकर खुद को बदला, जिनके बीच मैं कभी पगडंडी बनकर जन्मी, खड़ंजों में खिली
और अपनी चौड़ाई बढ़ाते-बढ़ाते प्रगति का रास्ता बन गई. लेकिन, सच कहूं तो मुझे अब भी याद आती है वो छोटी मुनिया, जिसे अक्सर मेरी कच्ची राहों पर कांटें चुभ जाते थे.
वो चीख पड़ती थी, अरी माई, कांटा चुभि गयो. उसकी माई कांटा निकाल कर मुझे बुहार दिया करती थी कि किसी और मुनिया को ऐसे चीखना न पड़े.
मुझे याद है वह दिन भी, जब जमींदार ने मेरे आसपास के खेत किसी बड़ी कंपनी वाले को बेच दिए, मुनिया के बापू की खेती छूट गई.
उस रात उसकी बटोई चूल्हे पर नहीं चढ़ी. अम्मा की गोद में सिर रख कर मुनिया सो गई. अगली सुबह उठी तो उसकी अम्मा सुबक रही थी
और बापू कुदाल लेकर निकल पड़ा था, मेरे ही रास्ते शहर की ओर.. कुछ दूर मुनिया की अम्मा भी डिगते कदम से चली, काजल से काले होकर गिरे उसके आंसू मैंने अपने सीने में दफन कर लिए. वहां कुछ दूब उग आई. मुनिया का बापू शहर चला गया.
मेरे निजाम, तुम सोचते होगे मैं यह कौन सी रामकथा लेकर बैठ गई, इनका तुमसे क्या ही वास्ता? खैर, तुम ऐसा सोच भी सकते हो, कोई दो राय नहीं.
लेकिन, इनका वास्ता तुमसे है निजाम और पूरा-पूरा है. मुनिया का बापू जब शहर आया तो हाथ खाली थे, लेकिन उसके पास उम्मीद की एक छोटी गठरी थी.
उसमें बंधा था एक सुंदर भविष्य, इतनी सी आस कि मुनिया और उसकी अम्मा को चैन की ही रोटी मिले, रोग लगे तो इलाज हो जाए. बाकी राम जी देख लेंगे. धुन का पक्का आदमी लग गया अपना हाड़ गलाने में.
सब कुछ ठीक तो नहीं ही था, फिर भी मैं कहती हूं कि कुछ साल ऐसे ही ठीक-ठीक कट गए. इस बीच न जाने कितनी मुनिया, दुखिया में बदल गईं.
हर रोज गांव वीरान होते रहे और शहर आबाद, उनकी चमक बढ़ती रही. रोशनी थी हर ओर, अंधेरा कहीं ढक दिया गया.
न तुमने उस अंधेरे को देखा और न किसी ने उसे दिखाया. वह अंधेरा नहीं था निजाम, वह था उन तमाम गांव छोड़ आए मजबूरों का जिस्म, जो तुम्हारी और तुम्हारे इस चकाचौंध शहरी हवस की धौंकनी धौंकते-धौंकते काला पड़ गया था.
वो सारे जिस्म इतने पर भी चुप थे. सह लेते, सो जाते और अगली सुबह फिर किसी उम्मीद में निकल पड़ते. लेकिन एक दिन न ऐसी आंधी आई कि तुम्हारी हवस की धौंकनी की आग बुझ गई.
तुमने तो अपना सिर अपने महलों में छिपा लिया, लेकिन उन काले जिस्मों को जो एक ही काम था वह यहां भी हाथ से गया.
बरसों पहले जिस मुनिया के बापू को तुमने उसके ही गांव में बेरोजगार किया था, वह आज तुम्हारी ही चकाचौंध के नीचे ठगा सा खड़ा था.
इन 70-75 सालों में उसके ही हाथ खाली थे. उसने अपना तन देखा तो पाया कि वह आज भी नंगा था. वह बिना पेटृ-पीठ का जानवर बन चुका था. जिसके पास पांव थे और वो केवल चल सकते थे.
एक रात जब सारा शहर सो रहा था तो मुझे अपनी पत्थर हो चुकी देह पर सरसराहट का अहसास हुआ. मैंने देखा कि दो पांव चले जा रहे हैं.
मैं इन्हें पहचानती थी, क्योंकि कुछ महीने पहले ही इन पांवों ने मेरी मिट्टी रौंदी थी, मुझ पर पत्थर डाले थे, तारकोल पिघलाते हुए जिनके बदन खौल गए थे वही आज नंगे पांव मुझसे होकर जा रहे थे.
तुम्हारे किसी कवि ने फूल की इच्छा बता डाली थी कि वो किसी सैनिक के पांवों तले रौंदे जाना चाहते हैं.
मेरा बड़ा मन था कि उन्हें आवाज दूं, आओ फूलों बिछ जाओ कि मेरे मालिक आ रहे हैं. लेकिन मैं अभागिन, बोल नहीं सकती न, घुट कर रह गई.
लेकिन, निजाम तुम तो बोल सकते हो, तुम तो अभागे नहीं. तुम तो देखो कि सड़क पर चला आ रहा ये रेला किसका है. पहचान लो इन्हें कि कभी इनमें से किसी ने संसद की ईंटों के बीच गारे भरे होंगें, किसी ने कहीं कोई अय्याशी का किला खड़ा किया होगा.
सब छोड़ो उन मूर्तियों को ही याद कर लो जिनके दम पर तुमने अपनी वोटों की पेटी भरी थी, इनमें से किसी ने ही बनाई होगी. मुझे तो खैर इन्होंने बनाया ही है. मुनिया के झोपड़े से लेकर तुम्हारे बंगलों तक इनकी बिछाई ईंट, गिट्टी और गारे ही फैले हैं.
ये चिट्ठी इसलिए लिखनी पड़ी कि वे तुम्हारे नकारा कारिंदें बैठकर सवाल उछालते हैं न रेल की पटरियों पर क्यों सोए, पैदल ही क्यों निकल पड़े? अरे, कुछ दिन रुक नहीं सकते थे.
जब कुछ दिन का इंतजाम ही नहीं तो कमाया क्या? बस इतना करो कि उनसे कह दो कि हाथ-पांव न हिला सकें तो मुंह ही बंद रखें. मैं अपने इन भूखे-नंगे मालिकों को अपने ऊपर संभाल लूंगीं.
मुझमें इतनी हिम्मत है कि उनकी गिरती लाशों पर भी उफ नहीं करूंगीं. उन्हें अपनी गोद में समाधि दूंगीं. मुनिया तक उसका बापू न पहुंचे न सही उसकी लाश ही पहुंच जाए.
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