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विश्वविद्यालयों में दलित और आदिवासी छात्रों के साथ भेदभाव बढ़ रहा है?

हमारा  देश तकनीक के क्षेत्र में व विज्ञान के क्षेत्र में काफी आगे बढ़ चुका है। संविधान में अनुच्छेद 15 जिसमें जाति, धर्म के आधार पर भेदभाव न करने की बात भी सालों पहले कही जा चुकी है। विश्वविद्यालयों जहां पर पढ़ने के लिए हर जाति, धर्म के लोग आते हैं। इसके बावजूद यहीं पर ऐसी घटनाएं आए दिन देखने को मिलती हैं जो हमारे समाज को शर्मशार कर रही होती हैं। चाहे वो रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला हो या मुंबई में रहने वाली पीजी की छात्रा डॉ. पायल तड़वी की 22 मई के आत्महत्या का मामला। इससे हम यही कह सकते हैं कि विश्वविद्यालयों में दलितों के ऊपर अत्याचार के मामले कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं। इसका रूप भी भयावह हो गया है।

उत्तरी महाराष्ट्र के जलगाँव की रहने वाली पायल तड़वी मुंबई के टोपीवाला मेडिकल कॉलेज में गाइनोकोलॉजी में पीजी की पढ़ाई कर रही थीं। डॉ पायल ने पश्चिमी महाराष्ट्र के मीराज – सांगली से एमबीबीएस की पढ़ाई की थी। परिवार वालों का आरोप हैं कि मेडिकल कॉलेज की  तीन वरिष्ठ रेजिडेंट डॉक्टरों ने पायल के खिलाफ जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया और पायल की जाति को आधार बनाकर उसका उत्पीड़न किया। परिवार वालों का मानना है की इसी उत्पीड़न से तंग आकर डॉ. पायल ने आत्महत्या कर ली। डॉ. पायल का सपना आदिवासियों की सेवा करना था, उनके दुख – तकलीफो को दूर करना था। इस तरह का सपना देखने वाली एक होनहार छात्रा का इस तरह आत्महत्या कर लेना हमारे समाज पर सीधे – सीधे उंगली उठाता है। एक सवाल हमारे सामने खड़ा करता है की आखिर कब तक जाति व धर्म के नाम पर आत्महत्याएं होती रहेंगी? आखिर हम कब तक बौद्धिक रूप से इतने परिपक्व होंगे की जाति -धर्म -लिंग की बेड़ियों को तोड़कर सभी को मनुष्य के रूप में देखना शुरू करेंगे? कब जाकर इस तरह की घटनाएं घटनाएं बंद होंगी, इसका जवाब शायद किसी के पास ना हो लेकिन हमें अपने स्तर पर जjtरत है की हम जाति-धर्म से ऊपर उठकर मनुष्य को मनुष्य मानना शुरू कर दें।

पायल तड़वी के पहले भी हुई हैं कई घटनाएं

यह कोई पहली ऐसी घटना नहीं है बल्कि इससे पहले भी ऐसी अनेकों घटनाएं घट चुकी हैं 2008 में तमिलनाडु के सेंथिल कुमार ने हॉस्टल के कमरे में फांसी लगा ली थी जो हैदराबाद में पढ़ा करते थे। 2010 में एम्स में पढ़ाई कर रहे बालमुकुंद भारती ने आत्महत्या कर ली थी। 2012 में एम्स के ही अनिल कुमार मीणा ने आत्महत्या कर ली थी, 2013 में हैदराबाद के पीएचडी कर रहे छात्र मदरी बैंकटेश ने आत्महत्या की थी और वर्ष 2016 के रोहित वेमुला की आत्महत्या एक बड़ी घटना थी, जो की हैदराबाद में पीएचडी कर रहे थे। ये सभी आत्महत्या हमारे समाज में ऐसे लोगों की मानसिकता को दर्शाती है जो आज भी अपना बौद्धिक स्तर ऊंचा नहीं कर पाए हैं आज भी उनकी दृष्टि में लोग दलित हैं, जिनको प्रताड़ित करना, अपमानित करना वे नहीं भूलते। इतना ज्यादा उनको अपने शब्दों से प्रताड़ित करते  हैं की आत्महत्या करने पर लोग मजबूर हो जाते हैं।

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कब तक होंगी आत्महत्याएं ?

लेकिन यहां यह भी सवाल उठता हैं की क्या आत्महत्या करना ही एकमात्र रास्ता हैं? अपना जीवन ख़त्म कर देना, अपने सपनों को मार देना क्या यहीं एकमात्र कदम है? छात्र आसानी से ऐसे कदम उठा लेते हैं, जिससे वे एक तरीके से सिद्ध कर देते हैं कि समाज से लड़ने के बजाय उन्होंने उससे मुक्ति पाने का रास्ता खोज लिया है। लेकिन अब जरूरत इस बात की है कि जिनके साथ भी इस तरह की घटनाये होती हैं उन्हें इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिये। जिससे आगे आने वाले विद्यार्थियों को भी सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस आ सके व भविष्य में अगर ऐसा किसी के साथ कुछ होता है तो वो मानसिक रूप से मजबूत रहें व अपनी समस्या का सामना कर सकें। जरूरत पड़े तो उसके खिलाफ आवाज़ भी उठा सकें।

क्या कहते हैं विश्वविद्यालय के प्रोफेसर?

पायल ताड़वी आत्महत्या पर जब दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग के प्रो. एन सुकुमार से हमने खास बातचीत की तो बताया कि उच्च शिक्षा में इस तरह के मामले अब अधिक इसलिए सामने आने लगे हैं क्योंकि जबसे रिजर्वेशन शुरू हुआ हैं तभी से अधिक संख्या में एससी-एसटी छात्र विश्वविद्यालय में आने लगे। इसे उच्च जाति के प्रोफेसर स्वीकार नहीं कर पाए। वे सोचने लगे की ये कैसे यहाँ तक पहुंचने लगे? जब से मण्डल कमीशन 2008 से आया तब से ये परिस्थितियां शुरू हुईं। जब से रिजर्वेशन शुरू हुआ है, तब से भेदभाव शुरू हुआ है। स्थिति ऐसी है कि आईआईटी, एम्स में लोग बोल नहीं पा रहें हैं। एक आईआईटी में  27 छात्र को एक ही बार में फेल कर दिया। मार्क्स व सीट देने में भेदभाव किया जाता है, स्कालरशिप नहीं दी जाती है। लड़कियों को फिजिकल रूप से भी परेशान किया जाता है।

राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों में भेदभाव अधिक

प्रो. सुकुमार कहते हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में तो छात्र कम से कम बोल देते हैं, जबकि राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों में लोग बोलने से भी डरते हैं। उन्हें दलित, अछूत माना जाता हैं।

सरकार दाखिला में नियुक्तियां कर रही है लेकिन, इसमें आरक्षण को इम्प्लीमेंट नहीं कर रही है। छात्र पढ़-लिखकर अब सवाल-जवाब करना शुरू कर दिए हैं। यही वजह है कि भेदभाव की घटनाएं बढ़ रही हैं।

यह किसी एक जगह तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि सभी जगहों का यहीं हाल है, पूरे देश के उच्च संस्थानिक जगहों का भी यहीं हाल है। तमिलनाडु, पंजाब, आईआईटी, आईआईएम में सब जगह यहीं हाल है। हैदराबाद, महाराष्ट्र में सब जगह ये हो रहा है।

पायल तड़वी की घटना पर उन्होंने कहा की आज कोई बात नहीं सुन रहा है, न ही डीन, न ही कुलपति। इसलिये हमें प्रदर्शन की जरूरत पड़ रही है क्योंकि सरकार बात ही नहीं सुन रही है। अगर सरकार बात सुनती तो फिर प्रदर्शन की जरूरत ही नहीं थी। कैंडल लाइट जैसे प्रदर्शन का भी बहुत असर पड़ता है। अगर ये भी हम नहीं करेंगे तो फिर कोई करवाई नहीं होगी। यह जरूरी है कि प्रदर्शन किया जाए।

अब इनकम भी पूछी जाती है…

दिल्ली विश्वविद्यालय की एक अन्य शिक्षिका का कहना हैं कि अब जाति ही नहीं बल्कि इनकम भी पूछी जाती है, अब समाज अमीर – गरीब में बंट रहा है, विश्वविद्यालय के शिक्षकों का कहना है कि यह हमारे ऊपर बहुत बड़ा सवालिया निशान है।

डीयू के ही जाकिर हुसैन कॉलेज के असिस्टैंट प्रोफेसर डॉ. लक्ष्मण यादव, का कहना हैं कि संस्थानिक जातिवाद ख़त्म नहीं हुआ हैं। मेरिट की जगह जाति देखकर अगर आरक्षण दिया जाता हैं तो आप संवैधानिक प्रावधान की बात करें।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

रजत तिवारी
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पत्रकारिता के छात्र हैं

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