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भूख, बेबसी और वापसी

तस्वीर-गूगल साभार

हज़ारों की भीड़ है,

सबके चेहरे सहमे और डरे हुए से हैं।

सब भागना चाहते हैं

क्यूंकि तुम्हारे ऊपर हमें विश्वास नहीं रहा,

एक दूसरे को पैर से रौदतें हुए लोग

रो-रो कर थक गई छोटी छोटी आंखें

अपने पल्लू में कुछ वक़्त की सूखी रोटियां बांधे मां ,

पांव में सूख चुके पांव के छाले भी

रास्ता रोक नहीं पाए,

मैं जिंदगी अपनी नहीं अपने बच्चों की महफ़ूज़ चाहता हूं।

हम अब उन इमारतों के दहलीज पर भी ठहर नहीं पाते,

जिसकी नींव हमने अपने खून पसीने से खड़ी की थी।

हम तब भी बेघर थे हम अब भी बेघर हैं ,

निकल पड़े हैं एक घर की तलाश में जो सालों पहले

अपने गांव में छोड़ आए थे,

तुम्हारे शहर को बसाने के लिए।

घबड़ाओ नहीं,

कोई भी तुमसे सवाल नहीं पूछेगा!

कोई तुम्हें गालियां नहीं देगा!

कोई तुम्हें थप्पड़ नहीं मारेगा!

हमें पता है कि हम दबे लोग हैं

हमारी आवाज़ निकलने से पहले ही गला घोट दिया जाएगा।

मेरे पांव तो लड़खड़ा ही रहे हैं,

और औरतें इस भारत में कब बोल पाई हैं।

रही बात

मेरी अंगुली थामें चलता हुआ ये बच्चा,

न जाने कब गिर जाएगा

बीमार होने से पहले भूख से तड़प कर।

फिर से तुम अपनी सियासत की चाल चलना,

इन भूख से बीमारी से तड़पकर गिरी लाशों पर

जो सिर्फ दूरियां नाप रहें हैं,

अपने लड़खड़ाते हुए कदमों से

पता नहीं घर से कितनी दूर पहले मौत मिल जाए।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

सौरभ मिश्रा
रचनाकार

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