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…तो अब तक का सबसे बड़ा सवाल, इन मजदूरों की मौत का जिम्मेदार कौन?

प्रवासी मजदूरों का लगातार शहरों से गांवों की ओर पलायन जारी है। सरकार बड़े-बड़े दावे कर रही है कि मजदूरों के खाने, पीने, रहने यहां तक कि घर जाने की भी व्यवस्था है। लेकिन स्थिति ये है अगर सरकार सब कुछ कर रही है तो हर दिन मजदूरों की भूख से मौत क्यों हो रही है? मजदूरों की दुर्घटनाओं में मौत क्यों हो रही है? और अगर ये सब हो रहा है तो इसका कौन जिम्मेदार है? मजदूर खुद या फिर प्रशासन या सरकार? बात ये है कि चाहे यहां न्यायिक तंत्र ही क्यों न हो,  मजदूरों को लेकर सभी संवेदनहीन हो गए हैं। नेताओं की संवेदनहीनता की बात हो या फिर आम लोग सब इस संवेदनशील विषय पर संवेदनहीन बातें कर रहे हैं। यही कारण है मजदूरों की मौतों का उत्तरदायी उन्हें खुद बनना पड़ रहा है। मेहनत करके दो वक़्त की रोटी खाने वाला मजदूर आज कोरोना महामारी के कारण दर दर भटकने को मजबूर है। रोज किसी न किसी मजदूर की सड़क हादसे में या फिर भूख के कारण मरने की खबरें आ रही हैं। आपको याद होगा 8 मई को महाराष्ट्र के औरंगाबाद की घटना, जिसमें पैदल अपने गांव जा रहे 16 मजदूरों की ट्रेन की चपेट में आने से दर्दनाक मौत हो गई थी।

औरंगाबाद में इन मजदूरों की मौत के मामले में संज्ञान लेने से सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया है। याचिकाकर्ता ने इसी तरह की दूसरी घटनाओं का भी हवाला दिया था। लेकिन कोर्ट ने कहा कि जो लोग सड़क पर निकल आए हैं उन्हें हम वापस नहीं भेज सकते। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर लोग रेल की पटरी पर सो जाएंगे तो उन्हें भला कोई कैसे बचा सकता है?

इससे पहले भी मामले में याचिका दाखिल करने वाले वकील आलोक श्रीवास्तव ने मजदूरों के पलायन पर याचिका दाखिल की थी। तब लॉकडाउन का शुरुआती दौर था और उनकी याचिका के बाद सरकार ने तेज कदम उठाते हुए पलायन रोक दिया था। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी थी कि अब सड़क पर कोई मजदूर नहीं है। उनके रहने और भोजन का उचित इंतजाम कर दिया गया है। इस जानकारी के बाद कोर्ट ने सुनवाई बंद कर दी थी।

आज याचिकाकर्ता ने जस्टिस एल नागेश्वर राव जस्टिस संजय किशन कौल और बीआर गवई की बेंच को बताया कि एक बार फिर पहले जैसी स्थिति बन गई है। सड़क पर निकले मजदूर दुर्घटना का शिकार हो रहे हैं। इसलिए कोर्ट हर जिले के डीएम को अपने यहां से गुजर रहे मजदूरों की देखभाल करने का निर्देश दे। सरकार को उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाने को कहे।

याचिकाकर्ता ने दलीलों की शुरुआत करते हुए औरंगाबाद की घटना का हवाला दिया। कहा कि 16 मजदूर मालगाड़ी से कट के मर गए। इस पर बेंच के सदस्य जस्टिस कौल ने कहा, “अगर लोग रेल की पटरी पर सो जाएंगे तो उन्हें कोई कैसे बचा सकता है?” याचिकाकर्ता ने इसके बाद मध्य प्रदेश के गुना में हुए सड़क हादसे का जिक्र किया, जिसमें ट्रक से अपने गांव लौट रहे 8 मजदूरों की मौत हो गई। जज ने कहा, “जो लोग सड़क पर आ गए हैं, उन्हें कोर्ट वापस नहीं भेज सकता।”

सुनवाई के दौरान मौजूद केंद्र सरकार के वकील सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, “केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर सभी मजदूरों को उनके गांव वापस भेजने के इंतजाम में लगी हैं. लेकिन बहुत सारे लोग अपनी बारी आने की प्रतीक्षा नहीं कर पा रहे हैं। वह बेचैन होकर सड़क पर चलने लगे हैं। हम उनके ऊपर किसी तरह का बल प्रयोग भी नहीं कर सकते। ऐसा करना और ज्यादा नुकसानदेह हो सकता है।” तुषार मेहता का यह तर्क कि हम बल का प्रयोग भी नहीं कर सकते तो फिर पुलिस ने इससे पहले क्यों बल का प्रयोग किया?

इतना ही नहीं याचिकाकर्ता ने एक बार फिर कोर्ट से मामले में आदेश जारी करने की गुहार की। लेकिन कोर्ट ने कहा, “यह साफ दिख रहा है कि आप ने अखबार में छपी खबरों को उठाकर एक याचिका दाखिल कर दी है। इस पर कोर्ट के आदेश दे सकता है? इस तरह की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं। लेकिन कौन सड़क पर चल रहा है और कौन नहीं, इसकी निगरानी कर पाना कोर्ट के लिए संभव नहीं है। सरकार ने कई निर्देश जारी किये हैं। अगर हम आपको विशेष पास जारी कर दें तो क्या आप सुनिश्चित कर पाएंगे कि सरकार के सभी निर्देशों का पालन हो पा रहा है या नहीं?” इस टिप्पणी के साथ कोर्ट ने याचिका ओर कोई आदेश देने से मना कर दिया।

एक न्यायालय से ही कुछ उम्मीद की जा सकती थी, लेकिन लगता है कि इन सब मामलों पर अब न्यायिक व्यवस्था से कोई उम्मीद रखना ही बेकार है।

आगरा की वह तस्वीर आपके जेहन में होगी, लेकिन प्रशासन के लिए ये आम बात है।  बुधवार को आगरा के एमजी रोड पर श्रमिकों के पलायन की एक दुखद तस्वीर सामने आई थी। वायरल हुई इस तस्वीर में एक मां अपने छोटे बच्चे को सूटकेस पर लिटाकर पैदल चल रही है।

वायरल वीडियो में एक बच्चा पहिए वाले सूटकेस (ट्रॉली) पर सोया हुआ है और मां रस्सी के सहारे उसे खींचते हुए आगे बढ़ रही है। इस दौरान वीडियो बनाने वाला शख्स महिला से पूछता है कि वो कहां जा रही है। महिला जवाब देती है कि उसे झांसी जिले के महोबा जाना है। बताया जा रहा है कि मजदूरों का यह दल पंजाब से ही पैदल ही महोबा के लिए निकला है। इस दल में महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं।

माँ की इस तस्वीर को देखकर शायद ही कोई होगा जिसको पीड़ा नहीं हुई होगी। लेकिन, आगरा के जिम्मेदार अधिकारी डीएम, कलेक्टर जिसे सब कुछ सिखाया जाता है, उनके बयान ने बता दिया कि व्यवस्था या इस देश का सिस्टम कितना खोखला हो चुका है। जनता, सरकार, पत्रकार, न्यायिक व्यवस्था और प्रशासन कितने संवेदनहीन हो चुके हैं। आगरा के डीएम साहब ने कहा कि वह भी बचपन में ऐसे ही सूटकेस पर बैठकर जाते थे। इनका नाम प्रभु नारायण सिंह है। डीएम साहब ने कहा कि श्रमिकों को रोककर उन्हें ठहराया जाता है। इसके बाद घर भेजने का इंतजाम किया जाता है। लगातार अपील भी की जा रही है कि लोग पैदल ना चलें।

डीएम साहब को लेकर गुस्सा बहुत आया होगा आपको, हम सबको। लेकिन अभी जब आपने देखा कि इस देश का न्याय तंत्र जब यह कह देता है कि अगर लोग रेल की पटरियों पर सो जाएंगे तो उन्हें कोई कैसे बचा सकता है? शायद इसके बाद गुस्सा डीएम पर शांत हो चुका होगा। कहां- कहां गुस्सा करेंगे।

कोर्ट, सरकार से मौत पर सवाल नहीं पूछ सकता क्या यही हमारी न्यायिक व्यवस्था रही है? उल्टे कोर्ट ही सवाल कर रहा है, रेल की पटरी पर चलने या सोने की जरूरत क्यों पड़ी?  मैं पूछता हूं इस देश की सरकार से कि आप अपनी जिम्मेदारी खुद नहीं समझ रहे तो आपको सरकार चलाने की जरूरत ही क्यों पड़ी। आप सुप्रीम किस बात के हैं अगर आपने मजदूरों जैसे संवेदनशील मसले को मात्र चंद लाइनों के गैर जिम्मेदाराना बयान में लपेट लिया। क्या आपको सवाल पूछने का अधिकार नहीं है? आपको नहीं है तो मैं पूछ सकता हूं, आपसे सवाल। इस देश का हर नागरिक शायद आपसे यह सवाल करता रहेगा कि आप लोग कितने असंवेदनशील हो चुके हैं। जिस बात की सुध खुद लेनी चाहिए उसे बताने के बाद भी आप लोग सो रहे हैं।

क्या आपको पास जवाब है कि इस देश का मजदूर क्या इसी तरह मरता रहे? उसके भूख का इंतजाम कौन करेगा? और अगर नहीं कर पा रहा कोई तो उसे अदालत में जाने के लिए दरवाजे क्या अभी खुले हैं? और अगर नहीं तो फिर वही सवाल कि इस मौत का जिम्मेदार कौन?

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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