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किसानों की मौत का आंकड़ा नहीं और अब पत्रकारों पर हमले के आंकड़े होने से सरकार का इनकार

संसद का मानसून सत्र चल रहा है और इस मानसून सत्र में कई विषयों को लेकर चर्चा हो रही है। केंद्र सरकार ने सदन में कई संवेदनशील विषयों पर आंकड़ा न होने की बात कह रही है। अभी हाल ही में आपने सुना कि कृषि मंत्री ने बताया कि किसान प्रदर्शन को लेकर हुई किसानों की मौत का आंकड़ा नहीं होने से उन्हें मुआवजा देने की बात नहीं उठती। इसके बाद अब गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो पत्रकारों पर हमले के विशिष्ट आंकड़ें नहीं रखता। द वायर की खबर में बताया गया है कि गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने उच्च सदन को एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि पुलिस और लोक व्यवस्था संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत राज्य का विषय है। उन्होंने कहा कि राज्य सरकारें अपनी कानून प्रवर्तन एजेंसियों के माध्यम से अपराध की रोकथाम, उसका पता लगाने और जांच के लिए तथा अपराधियों पर मुकदमा चलाने के लिए जिम्मेदार हैं। राय ने कहा, ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो पत्रकारों पर हमले के संदर्भ में विशेष आंकड़े नहीं रखता।’

इससे पहले कोरोना में हुई मौतों पर भी इसी तरह की बात सरकार ने कही थी। कोरोना के दौरान ऑक्सीजन की कमी से कई लोगों की मौत हुई। लेकिन सरकार ने ऑक्सीजन की कमीं से मौत होने के आंकड़े न होने की बात कही। इसी दौरान जब लॉकडाउन लगा था तो तमाम प्रवासी मजदूरों ने भूख और दुर्घटनाओं में पैदल चलकर जान गवां दी थी। सरकार ने प्रवासी मजदूरों की मौत के आंकड़े न होने की बात कही। इन सभी प्रकार की संसद में बयानबाजियों को लेकर विपक्ष हमलावर भी रहा। साथ ही ऐसे संवेदनशील विषयों पर इस तरह की बयानबाजियों की लोगों ने भी काफी आलोचना की।

किसानों की मौत का भी आंकड़ा नहीं

एक साल से चल रहा किसान आंदोलन लगातार मीडिया और अखबारों की सुर्खियों में बना रहा। उससे पहले नागरिकता संशोधन बिल ने भी खूब सुर्खियां बटोरी। इस दौरान देश में कई हिंसक प्रदर्शन और घटनाये भी हुईं। मीडिया/पत्रकारों ने इन खबरों को जनता तक पहुंचाया।

मीडिया दो हिस्सों में बंटा हुआ दिखाई दिया। एक हिस्सा वो जो किसानों के अनुसार सरकार के पक्षधर हैं, दूसरा हिस्सा वो जिसने किसानों और प्रदर्शन में हो रहीं सभी घटनाओं और हमलों की रिपोर्टिंग की।

नवंबर में प्रधानमंत्री ने किसानों की तीनों कृषि कानून वापस लेने की मांग को मान लेने का ऐलान किया।

उसके बाद प्रदर्शन कर रहे किसानों ने खुशी भी जाहिर की, लेकिन किसानों ने कई दूसरी मांगें भी सरकार के सामने रखी जिसमें एमएसपी और लगभग 700 शहीद किसानों के परिवारों को मुआवजे की बात भी शामिल थी।

प्रधानमंत्री के ऐलान के बाद सब ये अनुमान लगा रहे थे कि ये आंदोलन अब खत्म हो जाएगा और सभी किसान अपने अपने घर वापस लौट जाएंगे। लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो सका।

इधर किसानों ने शहीद किसानों के लिए मुआवजे की मांग की तो उसके ज़वाब में केंद्र ने लोकसभा में जवाब दिया है कि कृषि मंत्रालय के पास किसानों की मौत का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। इसलिए उनको मुआवजा दिए जाने या फिर इस संबंध में कोई सवाल ही नहीं उठता है।

इस पर ज़वाब देते हुए किसान नेताओं ने कहा कि सरकार के पास आईबी से लेकर दिल्ली पुलिस तक हर तरह के डाटा हैं। अगर वे कह रहे हैं कि किसानों की मौत का डाटा नहीं है, तो ये गलत है। इसके बावजूद अगर सरकार कहती है तो हम उन्हें मुआवजे के लिए किसानों की मौत का आंकड़ा देंगे।

इसके बाद संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) की बैठक पर किसान नेता दर्शनपाल ने कहा, “सरकार को 702 किसानों की मौत का आंकड़ा भेज दिया है।”

ये मुद्दा चल ही रहा है कि फिर से आंकड़ा ना होने की बात कहते हुए सरकार ने कहा है – राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो पत्रकारों पर हमले के संदर्भ में विशिष्ट आंकड़े नहीं रखता। साथ ही उसने यह भी कहा कि मीडिया कर्मियों की सुरक्षा और संरक्षा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से कानून का कड़ाई से क्रियान्वयन करने के लिए 2017 में राज्य सरकारों को एक परामर्श जारी किया गया था।

कौन पत्रकार देश भक्त है, कौन देश द्रोही?

पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना गया है, प्रेस को हमेशा से ही जनता की आवाज माना गया है। देश की आजादी मे पत्रकारों का प्रमुख योगदान रहा। कई स्वतंत्रता सेनानियों ने पत्रकारिता के ज़रिये ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठाई।

आजादी के बाद भी कई बड़े आंदोलन पत्रकारिता के कारण सफल हुए, इंदिरा गांधी ने जब एकाएक देश में आपातकाल की घोषणा कर दी तो उसके खिलाफ जब प्रेस और पत्रकारों ने आवाज उठाई तो सरकार ने प्रेस की आवाज़ को दबाते हुए कई मीडिया संस्थाओं को पत्रकारों पर प्रतिबंध लगा दिए।

आपातकाल के दौरान जिन पत्रकारों ने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई उनको जेलों में बंद किया गया। हाल के समय में जो पत्रकार सरकार की नीतियों, योजनाओं के खिलाफ लिख रहे हैं या बोल रहे हैं उन को देशद्रोही घोषित करने के आरोप भी लगते रहे हैं। ऐसे पत्रकारों पर पुलिस कार्यवाही की जाती हैं जेलों में डाला भी गया है। गौरी लंकेश हत्याकांड हो या फिर यूएपीए लगाने की परंपरा की शुरुआत भी हुई है, जैसा कि त्रिपुरा इज बर्निंग लिखने पर 100 से अधिक लोगों पर यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया जिसमें श्याम मीरा सिंह जैसे पत्रकार भी शामिल हैं।

ऐसे भी आरोप लगते रहे हैं कि जो पत्रकार सिर्फ सरकार को महिमामंडित करते हैं उनको देश के सर्वोच्च पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है।

इन पत्रकारों पर हो चुके हैं हमले

अभी हाल में देश के कई पत्रकारों और प्रेस पर हमले की कई घटनाएं जिस तरह से सामने आई हैं या जितनी थोड़ी बहोत खबरें दिल्ली या बड़े महानगरों के पत्रकारों की सुनने पढ़ने को अखबारों के जरिये मिल जाती है. वो दिखाता है कि पत्रकार देश में कितने सुरक्षित हैं.

2019 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक 2014 से 2019 के बीच भारत में 40 पत्रकारों की मौत हुई, जिनमें से 21 पत्रकारों की हत्या की वजह उनके काम से जुड़ी थी. साल 2014 से 2019 के बीच भारत में 40 पत्रकारों की मौत हुई, जिसमें 40 में से 21 पत्रकारों की मौतों की वजह उनकी पत्रकारिता को बताया गया. ये बात “getting away with murder ” नाम के एक अध्ययन में सामने आई थी. इस अध्ययन में ये भी कहा गया था कि पत्रकारों की हत्या के आरोपियों पर आरोप साबित कर पाना भी काफी मुश्किल होता है. जहां पिछले एक दशक में बमुश्किल सिर्फ 3 आरोपियों पर ही आरोप साबित हो सके. जिसमें 2011 में पत्रकार J. Dey, 2012 में राजेश मिश्रा और 2014 में पत्रकार तरुण आचार्य के मामले थे.

पत्रकारों की हत्या और हमले के दोषी सरकारी एजेंसियां, सुरक्षाबल, नेता, धार्मिक गुरु, छात्र संगठनों के नेता, आपराधिक गैंग से जुड़े लोग और स्थानीय माफिया शामिल थे, “getting away with murder” के अध्ययन में बताया गया ये रिपोर्ट 2019 में आई थी.

आमतौर पर पुलिस पत्रकारों की हत्या के लिए पत्रकार, उनके परिवार और सहयोगियों के आरोप को झुठला देते हैं. पत्रकारों की हत्या और उन पर हमले के दोषी पुलिस की खस्ताहालत जांच की वजह से बच जाते हैं. ये अध्ययन की निष्कृत रिपोर्ट में कहा गया.

दक्षिण भारत में सबरीमला मंदिर विवाद के दौरान जो महिला पत्रकार वहां फिल्ड रिपोर्टिंग कर रहीं थीं उन पर 19 महिला पत्रकारों पर हमले हुए थे

2019 तक  सात मामले रेत माफिया, अवैध शराब की तस्करी, भूमाफिया, जलमाफिया सहति अवैध गतिविधियों की रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों की हत्या के हैं. पत्रकारों और मीडिया शोधकर्ताओं के द्वारा इस अध्ययन को कराया गया था.

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक नागरिकता कानून के विरोध प्रदर्शनों के दौरान , देशभर में 11 से 21 दिसंबर के बीच पुलिस द्वारा 14 पत्रकारों पर हमला किया गया, उन्हें धमकाया गया और उनका उत्पीड़न किया गया।

क्या सिर्फ सरकार के पास अपनी उपलब्धियों के ही आंकड़े हैं?

सरकार अपनी योजनाओं का बखान अलग अलग तरह से प्रचार करके जनता को बता रहीं हैं. अलग संस्थानों के जरिए सरकार अपने योजना अपनी उपलब्धियों का डाटा देश की जनता और मीडिया में बताती रहती है. लेकिन जब सरकार से कोई मांग की जाती है तो वो  आंकड़ा नहीं है कह कर अपना पल्ला झाड़ते हुए नजर आती है।

फिर वो कोरोना के दौरान ऑक्सीजन से हुई मौतों के आंकड़े हो या अब पत्रकारों की मौतों के आंकड़े। सरकार को जब किसी पर यूएपीए लगाना होता है उसके पास सभी आंकड़े उपलब्ध होते हैं। कौन सी यूनिवर्सिटी के कौन-से छात्र देश द्रोही है ये आंकड़े केंद्र के पास मौजूद है। तो ये कैसा तंत्र है जो सिर्फ सरकार की उपलब्धियों का ही आंकड़ा रखते हैं?

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

सुमित
पत्रकार

1 Comment on "किसानों की मौत का आंकड़ा नहीं और अब पत्रकारों पर हमले के आंकड़े होने से सरकार का इनकार"

  1. Very good . Aaj kal aise hi patrkaar chahiye . ?

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