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श्रीकृष्ण की भक्ति से सन्यासी, संत और महाकवि बन गये सूरदास

तस्वीर-गूगल साभार

हिंदी साहित्य में आज हम तमाम प्राचीन काल के महाकवियों व संतों को पढ़ते आये हैं। सगुण भक्ति शाखा में कृष्ण भक्त संत सूरदास का जन्म वैशाख महीने के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है। जो कि इस साल सूरदास जयंती के रूप में 28 अप्रैल यानी आज मनाया जाएगा। सूरदास भगवान श्रीकृष्ण के उपासक और ब्रजभाषा के महत्वपूर्ण कवि हैं जिनके जन्मदिन और जन्मस्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद रहा है। हातांकि सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गांव में माना जाता है। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। सूरदास के पिता, रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। रामचंद्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1540 वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् 1620 ईस्वी के आसपास माना जाता है। कृष्ण को अपना ईष्टदेव मानने वाले सूरदास के काव्य के विविध पहलुओं के बारे में चर्चा कर रहे हैं राजीव कुमार झा

हमारे देश के इतिहास में भक्ति आंदोलन को सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का काल माना जाता है और इस दौर में उत्तर पूर्व मध्य भारत के जनजीवन और उसकी धार्मिक चेतना को संत भक्त कवियों ने अपने सच्चे समन्वयवादी विचारों से गहराई से अनुप्राणित किया और देश की विभिन्न लोकभाषाओं में ईश्वर प्रेम के आत्मिक साहित्य काव्य की सर्जना से समाज में नवजीवन का संचार किया। भक्ति काव्यधारा के महान कवियों में सूरदास का नाम सर्वोपरि है और उनके बारे में ऐसी जनश्रुति है कि वे जन्मांध थे, लेकिन उनके काव्य में समाज और मनुष्य के जीवन का जिस तरह से सहज और जीवंत रूप चित्रित हुआ है उससे उनके जन्मांध होने से संबंधित बातों पर अक्सर कुछ विद्वान यकीन नहीं करते। खैर काव्य लेखन में कवि के हृदय की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और इस दृष्टि से सूरदास को हिंदी का सबसे विलक्षण कवि माना जाता है। आलोचकों ने उनको कृष्णभक्ति काव्यधारा का कवि माना है और वे कृष्ण के सगुण रूप के उपासक थे।

सूरदास वल्लभाचार्य के भक्त थे और श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्ण की लीलाओं के आधार पर उन्होंने अपने काव्यग्रंथ ‘ सूरसागर ‘ में उन्होंने  कृष्ण के अद्भुत पावन रूप और उनकी लीलाओं का गुणगान किया। वे संन्यासी थे और मथुरा में यमुना के किनारे रहते हुए प्रेमभाव से कृष्णप्रेम में रचे अपने पदों का सुमधुर गायन करते थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य का ज़ब मथुरा आगमन हुआ तो यहाँ यमुना तट पर उनको भी सूरदास का यह गायन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सूरदास को उन्होंने अपने मत में भी दीक्षित कर लिया। हिंदू धर्म के वैष्णव चिंतन में वल्लभाचार्य के द्वारा प्रतिपादित मत को पुष्टि मार्ग के नाम से जाना चाहता है। सूरदास अष्टछाप के कवियों में सबसे महान माने जाते हैं। हिंदी में अष्टछाप के कवियों में आठ कृष्णभक्त कवियों का नाम शामिल है।

सूरदास के काव्य में श्रृंगार की प्रधानता है और वे विप्रलंभ श्रृंगार के चित्रण में सिद्धहस्त प्रतीत होते हैं। उन्होंने श्रृंगार रस के इस भेद के सहारे लोक के रूप में गोपियो के मन में कृष्ण के प्रति व्याप्त उनके असीम आत्मिक प्रेम और उन्होंने अपने भक्तों के प्रति कृष्ण के गहन अनुराग का अद्भुत चित्रण किया है। इस प्रकार सूरदास के काव्य में भक्त और भगवान लोक और ब्रह्म के रूप में एकमेक होते दिखायी देते हैं। उन्हें ब्रजभाषा का कवि कहा जाता है और उनके काव्य में ब्रजभूभि के प्रति भी उनके कवि मन का असीम प्रेम उजागर हुआ है। यहाँ का ग्राम्य परिवेश वन बाग उपवन कुंज कानन और यमुना के किनारे कृष्ण की अनंत लीलाएँ सूरदास के काव्य को अलौकिक रूप प्रदान करते हैं।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

राजीव कुमार झा
शिक्षक व लेखक

1 Comment on "श्रीकृष्ण की भक्ति से सन्यासी, संत और महाकवि बन गये सूरदास"

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