उस दिन एक इंटरव्यू देने जाना था इसलिए सुबह देर से उठने वाली लड़की (यानि मैं) जल्दी उठ गई थी।
जल्दी से तैयार भी हो गई। चाय पी। अख़बार पढ़ा। फ़िर अख़बार को अपने थैले में रखा और निकाल गई।
इंटरव्यू देने द्वारका जाना था। मैंने बस ली थी लेकिन फ़िर भी वक्त पर पहुंच गई थी। मेरे अनुमान के मुताबिक़ इंटरव्यू बहुत जल्दी ख़त्म हो गया था। मैंने सोचा सीधे घर जाने की बजाय क्यों न थोड़ा घूम लिया जाय!
इतिहास की विद्यार्थी होने के नाते मैं अपने आस-पास कोई माॅल या सिनेमा हॉल की बजाय टूटी-फूटी दीवारें खोजती हूं। वहां भी मैंने यही खोजने की कोशिश की। लेकिन द्वारका कोई दिल्ली का महरौली तो नहीं कि वहां आसानी से ऐतिहासिक साक्ष्य मिल जाएं!
दिल्ली का यह क्षेत्र लगभग पूरी तरह तब्दील हो चुका है। तमाम ऐतिहासिक इमारतें नष्ट हो चुकी हैं। लेकिन कुछ है जो अब भी बाक़ी है। यहां हाल ही में एक बावली पाई गई है।
द्वारका के सेक्टर 12 में स्थित यह बावली करीब एक दशक पहले ही खोजी गई है। इससे पहले यह बावली पीपल के पेड़ और झाड़ियों के बीच काफ़ी अरसे तक छुपी रही। खुदाई के बाद साल 2015 में ही इसकी मरम्मत की गई है। अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ही इसकी देख-रेख कर रहा है।
यह बावली आज़ाद हिंद फौज मार्ग पर स्थित है। इस रोड से गुज़रते हुए एक पल के लिए आपको बावली दिखाई नहीं देगी। गूगल मैप में आपको बावली की लोकेशन दिखेगी लेकिन आस पास नज़र दौड़ाएंगे तो लगेगा ग़लत जगह आ गए हैं। मैप आपको बावली की बजाए एक रेजिडेंशियल अपार्टमेंट के पास पहुंचा देगा। चारों तरफ़ गर्दन घुमाने के बाद भी नहीं लगेगा कि यहां बावली जैसा कुछ हो सकता है!
दरअसल, इसके (यानी बावली के) बगल में ही गंगोत्री अपार्टमेंट है। पास में ही एक प्राइवेट स्कूल भी है। मगर यहां रहने वाले लोगों से जब बावली के बारे में पूछते हैं तो वे हैरान हो जाते हैं! कहते हैं कि हम यहां कई सालों से रह रहे हैं लेकिन बावली जैसा कभी कुछ देखा नहीं यहां पर!
बावली में तैनात गार्ड ख़ुद कहता है कि पास के गंगोत्री अपार्टमेंट में रहने वाले लोग भी इससे अनजान हैं। कभी इक्का दुक्का लोग बावली को देखने आ जाते हैं। लेकिन अधिकतर यह सुनसान ही रहती है। दिल्ली की और बावलियों की तरह यहां चहल-पहल नहीं रहती।
अग्रसेन की बावली की तरह यहां प्रेमी-प्रेमिकाएं, कॉलेज के लड़के-लड़कियां नहीं दिखेंगे और ना ही गंधक या राजो की बावली की तरह नहाते हुए बच्चे! पर फ़िर भी अपने आप में यह बावली बेहद ख़ास है। संरचना की दृष्टि से भी और ऐतिहासिक तौर पर भी। पूरे द्वारका में लगभग यही एकमात्र ऐतिहासिक धरोहर बची है।
यह बावली दिल्ली (Delhi) की अन्य बावलियों से थोड़ी अलग है। इस आयताकार बावली में एक छोटा गड्ढा है। बावली से सटा एक कुंभ (कुआं) भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस कूएं से ही बावली में पानी भरता होगा!
माना जाता है कि यह बावली लोदी काल के समय की है। 16वीं शताब्दी में लोदी वंश के सुल्तानों ने इसे लोहारेहड़ी गांव (जहां अब द्वारका स्थित है) के निवासियों के लिए बनवाया था।
अगर आप भी कभी आज़ाद हिन्द फौज मार्ग से गुज़रें तो रुक कर यह बावली ज़रूर देखें। अच्छा लगेगा कि आपने यहां वो देखा जो कई सालों से यहां रहने वाले लोगों ने भी नहीं देखा!
बाक़ी दिल्ली की अन्य बावलियों की तरह इस पर भी शोध किए जाने की ज़रूरत है। इतिहास में एक और इतिहास दर्ज होने के साथ साथ पानी की समस्या भी काफ़ी हद तक हल हो जाएगी…
बहुत सा इतिहास सूख़ गया है। लेकिन कुछ इतिहास ऐसे भी हैं जो अब भी अपने जीवित होने का आभास कराते हैं। ये हमें तय करना है कि उन्हें जीवित रख कर हमें अपना जीवन बचाना है या नहीं!
मुझे वाकई लगता है कि बावलियों को फ़िर से ज़िंदा करना चाहिए। कम से कम जो बच गईं हैं उन्हें तो ज़िंदा रहने देना चाहिए। उन पर काम होना चाहिए….
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