तेज चलती बर्फीली हवाएं। शून्य से कम तापमान में खून जमा देने वाली ठंड और इससे बचने के लिए महज सूती कपड़े, कामचलाऊ कोट और जूते। करीब 17 हजार फीट की ऊंचाई का बर्फीला मैदान, जिस पर लड़ने का कोई अनुभव नहीं। सामने से सेल्फ लोडिंग राइफल्स, असलाह बारूद से लैस होकर आती दुश्मन सेना की बड़ी टुकड़ी, जिसके मुकाबले के लिए थीं आउटडेटेड थ्री नॉट थ्री बंदूकें और थोड़ा गोला-बारूद। कमांडिग ऑफिसर ने तुरंत कोई भी सैन्य मदद दे पाने से हाथ खड़े कर दिए। बिग्रेड के कमांडर का आदेश मिला कि युद्ध करें या चाहें तो चौकी छोड़कर पीछे हट सकते हैं। मतलब हालात हर तरह से विपरीत थे। फिर भी जांबाज सिपाही अपने मेजर के नेतृत्व में दुश्मन सैनिकों से लड़े और ऐसे लड़े कि दुश्मन सेना को तक कहना पड़ा कि हमें सबसे ज्यादा नुकसान यही झेलना पड़ा।
हम बात कर रहे हैं रेजांगला की लड़ाई और मेजर शैतान सिंह की। साल था 1962। रेजांगला के चुसुल सेक्टर में कुमाऊं रेजिमेंट की 13वीं बटालियन के 120 जवान तैनात थे। चार्ली कंपनी की कमान मेजर शैतान सिंह के हाथ में थी और सभी जवान 3 पलटन में अपनी-अपनी पोजिशन पर थे। भारत-चीन युद्ध के दौरान ये इकलौता इलाका था, जो भारत के कब्जे में था। एलएसी पर काफी तनाव था और सर्द मौसम की मार अलग पड़ रही थी। पर जवान मुस्तैदी से सीमा की सुरक्षा में खड़े थे। तभी 18 नवंबर की सुबह करीब साढ़े तीन बजे भारतीय सैनिकों ने चीन की तरफ से रोशनी का कारवां आते देखा। धीरे-धीरे रोशनी उनके नजदीक आ रही थी। फायरिंग रेंज में आते ही जवानों ने गोलियां दागनी शुरू कर दी। लेकिन कुछ देर बाद दुश्मन और नजदीक आया तो उसकी चाल का पता चला। दरअसल, चीनी टुकड़ी की पहली कतार में याक और घोड़े थे, जिनके गले में लालटेन लटकी थीं। सारी गोलियां उन्हें छलनी कर गईं जबकि चीनी सैनिकों को एक भी बुलेट नहीं लगी। चीनियों को भारतीय जवानों के पास कम असलहा बारूद होने की बात पता थी। इसलिए उनकी कोशिश थी कि भारत के हथियार खत्म कर दिए जाए ताकि आसानी से कब्जा हो सके। लेकिन दुश्मन को भारत मां के लिए कुर्बान होने वाले सैनिकों के जोश का अंदाजा बिल्कुल नहीं था। सुबह करीब 4 बजे सामने से फायर आए। 8-10 चीनी सिपाही एक पलटन के सामने आए तो हमारे जवानों ने 4-5 को मार गिराया, बाकी भाग गए।
उधर, 7 पलटन के एक जवान ने संदेश भेजा कि करीब 400 चीनी उनकी पोस्ट की तरफ आ रहे हैं। तभी 8 पलटन ने भी मेसेज भेजा कि रिज की तरफ से करीब 800 चीनी सैनिक आ रहे हैं। मेजर शैतान सिंह को ब्रिगेड से आदेश मिल चुका था कि युद्ध करें या चाहें तो चौकी छोड़कर लौट सकते हैं। पर उन्होंने पीछे हटने से मना कर दिया। मतलब किसी भी तरह की सैन्य मदद की गुंजाइश नहीं थी। इसके बाद मेजर ने अपने सैनिकों से कहा अगर कोई वापस जाना चाहता है तो जा सकता है। पर सारे जवान अपने मेजर के साथ थे। रणनीति बनाई गई कि फायरिंग रेंज में आने पर ही दुश्मन पर गोली चलाई जाए। मेजर हर पलटन के पास जाकर एक-एक जवान का हौसला बढ़ा रहे थे। कुछ देर की गोलीबारी के बाद शांति छा गई। 7 पलटन से संदेश मिला कि हमने चीनी सैनिकों को खदेड़ दिया है और सभी जवान सुरक्षित हैं। तभी चीनियों का एक गोला भारतीय बंकर में आकर गिरा। मेजर ने मोर्टार दागने को कहा। चीनी कुछ देर के लिए पीछे हट गए। इसके बाद दुश्मन ने भारतीय चौकियों पर एक साथ गोलाबारी शुरू कर दी। हथियार धीरे-धीरे और कम हो रहे थे तो मेजर ने जवानों से कहा कि एक फायर पर एक चीनी को मार गिराओ और उनकी बंदूक हथिया लो। हमारे जवान फिर से चीनियों पर भारी पड़ने लगे तो वे दोगुनी ताकत से लौटे। जबरदस्त बम्बार्डिंग शुरू कर दी। इसमें भारत के तीनों पलटन के बंकर तबाह हो गए। जवानों के शव इधर-उधर बिखर गए। घाटी में बिछी सफेद बर्फ पर खून के निशान दिख रहे थे। तभी सामने से चीनी सैनिकों की एक और टुकड़ी धावा बोलने के लिए आ रही थी। बड़ी तादाद में आए चीनियों ने भारतीय लड़ाकों को एक-एक कर निशाना बनाना शुरू किया। इसी बीच मेजर शैतान सिंह की बांह में शेल का टुकड़ा लगा। एक सिपाही ने उनके हाथ में पट्टी बांधी और आराम करने के लिए कहा। पर घायल मेजर ने मशीन गन मंगाई और उसके ट्रिगर को रस्सी से अपने पैर पर बंधवा लिया। उन्होंने रस्सी की मदद से पैर से फायरिंग शुरू कर दी। तभी एक गोली मेजर के पेट पर लगी। उनका बहुत खून बह गया था और बार-बार उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। लेकिन जब तक उनके शरीर में खून का एक भी कतरा था, तब तक वो दुश्मन को कहां बख्शने वाले थे। वो टूटती सांसों के साथ दुश्मन पर निशाना साधते रहे और सूबेदार रामचंद्र यादव को नीचे बटालियन के पास जाने को कहा ताकि वो उन्हें बता सके कि हम कितनी वीरता से लड़े। मगर सूबेदार अपने मेजर को चीनियों के चंगुल में नहीं आने देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने शैतान सिंह को अपनी पीठ पर बांधा और बर्फ में नीचे की ओर लुढ़क गए। कुछ नीचे आकर उन्हें एक पत्थर के सहारे लेटा दिया। करीब सवा आठ बजे मेजर ने आखिरी सांस ली। सूबेदार रामचंद्र ने हाथ से ही बर्फ हटाकर गड्ढा किया और मेजर की देह वहां डालकर उसे बर्फ से ढक दिया। कुछ समय बाद युद्ध खत्म हुआ तो इस इलाके को नो मैन्स लैंड घोषित किया गया।
रेजांगला में कोई नहीं गया तो किसी को पता ही नहीं था कि इन जवानों के साथ क्या हुआ। अगले साल फरवरी में जब एक गडरिया चुसूल सेक्टर की तरफ गया तो उसे वहां बर्फ में दबी हुई लाशें दिखीं। उसने फौरन नीचे आकर भारतीय चौकी में इख्तला दी तो पता चला ये भारतीय सैनिकों के शव हैं। जब शव निकाले गए तो किसी जवान के हाथ में लाइट मशीन गन थी तो किसी के हाथ में ग्रेनेड। किसी की भी पीठ पर गोली नहीं लगी थी यानी सब लड़ते-लड़ते शहीद हुए थे। एक शव के पैर में रस्सी से मशीन गन बंधी थी और ये पार्थिव शरीर था मेजर शैतान सिंह का। वही मेजर जिनके नेतृत्व में 120 लड़ाकों ने 13 सौ चीनी सैनिकों को मार गिराया। रेजांगला में हुई इस लड़ाई में 114 भारतीय जवान शहीद हुए और 5 सैनिकों को युद्धबंदी बना लिया गया। मगर जिस बहादुरी से ये जवान देश के लिए कुर्बान हुए उसे देखकर चीन ने भी माना कि उसका सबसे ज्यादा नुकसान रेजांगला में हुआ और उसकी टुकड़ी यहां एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाई। युद्धभूमि में अदम्य साहस दिखाने के लिए मेजर शैतान सिंह को मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया, जबकि इस टुकड़ी के 5 जवानों को वीर चक्र और 4 को सेना मेडल मिला। देश के लिए अपनी जान गंवाने वाले इन सैनिकों के लिए गायिका लता मंगेशकर ने गाया था
– थी खून से लथपथ काया
फिर भी बंदूक उठाके
दस-दस को एक ने मारा
फिर गिर गए होश गंवा के
नोट- इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। यह ललित मोहन बेलवाल की एफबी वाल से ली गई है। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Forum4 उत्तरदायी नहीं है। आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार Forum4 के नहीं हैं, किसी भी प्रकार से Forum4 उत्तरदायी नहीं है।
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