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“जो रचना कमज़ोर तैयार हो जाती है, उसे फिर से मज़बूत बनाना मुश्किल होता है”

आज हम साहित्य जगत से ममता शर्मा से रूबरू करा रहे हैं। वर्तमान हिंदी लेखन में ममता शर्मा की पहचान कथा लेखिका के रूप में है।

राजीव कुमार झा से अपनी इस बातचीत में उन्होंने लेखन से जुड़े तमाम बिन्दुओं पर अपने विचारों को प्रकट किया है-

ममता शर्मा

आप अपने बारे में बताएं। आपका साहित्य लेखन की ओर कैसे झुकाव हुआ?

नासिक, महाराष्ट्र मेरी जन्मस्थली है। नासिक की स्मृतियां मेरे पास नहीं है। पिता फ़ौज में थे और देवलाली में पोस्टेड थे। उनकी बदली हुई और हम रांची आ गए। पढ़ाई लिखाई रांची में हुई।

मेरे लिए लेखन हमेशा घर लौटने जैसा होता है। कुछ ऐसा कि आप घूमते रहें घर से बाहर। कभी यहां, कभी वहां। कभी सुबह निकल कर शाम को लौटें, कभी किसी एक दिन निकल कर कईं दिनों बाद लौटते हैं, और हर बार जब आप घर में होते हैं लौटकर, तो आपको लगता है कि ओह! सुकून तो यहीं है। इसे कुछ इस तरह से भी कह सकते हैं कि ज़िंदगी की भी वे चीजें, वे काम जिन्हें करते हुए आपको यह ना महसूस हो कि आप कोई काम कर रहे हैं। दरअसल वही आपकी बिल्कुल निजी चीज़ होती है और उसे आप बिल्कुल स्वाभाविक तरीके से और सहज तरीके से कर लेते हैं। हां, आपके काम में बेहतरी की गुंजाईश तो हमेशा बनी रहती है क्योंकि उत्कृष्टता की तो कोई सीमा नहीं होती। लेकिन, इतना कहा जा सकता है-

कार्य जो सहजता से किए जा सकते हैं वही आपके लिए स्वाभाविक होते हैं और ज़रूरी भी। लेखन मेरे लिए एक ऐसी ही बिना कोशिश के की जाने वाली प्रक्रिया है।

आपने हिंदी के किन – किन कहानीकारों को पढ़ा है और अपनी कहानियों की विषयवस्तु और संवेदना को किस रूप में देखती हैं?

अगर आप मुझसे पूछेंगे कि मुझे मेरे पात्र कहां मिलते हैं तो मैं कहूंगी कि हर गली, हर मोड़, हर घर में, दफ़्तर में, हर उस व्यक्ति में जिससे मैं बात कर रही होती हूं। मुझे हर जगह कथा सूत्र मिल जाते हैं और बचपन की अनंत स्मृतियों में तो अक्सर ही। कभी-कभी तो इतने पात्र और कथासूत्र आपके इर्द गिर्द जमा हो जाते हैं कि आप उनके बहुतायत से थक कर कलम रख देते हैं!

मेरे प्रिय लेखक, मैं हिंदी साहित्य की विद्यार्थी रही, लेकिन उन दिनों जब हम कहानियां पढ़ा करते, उपन्यास पढ़ा करते, प्रेमचंद पढ़ा करते, मोहन राकेश को पढ़ा करते या और भी किसी को पढ़ा करते और अब जब पढ़ते हैं तो लगता है कि वह पढ़ना भी क्या पढ़ना था। हर चीज़ को दोबारा पढ़ने की इच्छा होती है!। यहां तक कि काव्यशास्त्र जैसे विषय को भी अब पढ़ते हैं तो वह भी रुचिकर लगता है। लेखन की तरह पठन को भी उन्मुक्त होना चाहिए। बहरहाल, प्रिय लेखक की बात थोड़ी मुश्किल है उसके लिए तो बहुत कुछ पढ़ा हुआ होना चाहिए। फिर भी ऐसा लगता है कि जिन्हें बार-बार पढ़ने का मन हो, उन्हें प्रिय माना जा सकता है तो निर्मल वर्मा को बार-बार पढ़ने का मन होता है। योगेंद्र आहूजा को बार-बार पढ़ने का मन होता है। प्रियंवदा को बार-बार पढ़ने का मन होता है, और कितने नाम हैं! अज्ञेय हैं, हजारी प्रसाद द्विवेदी का गद्य। अभी-अभी पढ़ी हेमिंग्वे की ‘ए फेयरवेल टू आर्म्स’, तो लगा कि अभी उनका पूरा साहित्य पढ़ना बाकी है। अल्बेयर कामू के ‘आउटसाइडर’ को एक बार पढ़ने पर मन नहीं माना, चिनुआ अचेबे की ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ … सूची तो तब बढ़ेगी जब आप और-और पढ़ते जाएं। क्या मालूम अभी श्रेष्ठ साहित्य का कितना अंश, कितना बड़ा अंश पढ़ने को बाकी हो।

अपनी लेखन प्रक्रिया को किस रूप में देखती हैं ? अपनी कहानियों में दिखायी देने वाले पात्र और परिवेश के बारे में बताएँ ?

कथा के पात्र तो आपके इर्द-गिर्द ही होते हैं, और परिवेश भी जिन्हें आप गुनते रहते हैं, उनकी दिनचर्या को, उनके जीवन को, उनके परिवेश को, और फिर आप ऑब्जर्वर बन जाते हैं, और फिर जन्म होता है कहानी का। बचपन की स्मृतियां भी बड़ी लाजवाब चीज़ होती है; और कभी-कभी तो बेहद साफ होती है कि खुद ब खुद कभी किसी पात्र के माध्यम से, कभी किसी परिवेश के माध्यम से कहानी में चली आती हैं। मुझे बचपन की स्मृतियों का अपनी कहानियों में उपयोग करना बहुत पसंद है। शायद इसके बचपन के दिनों में लौटने का मोह, या उन दिनों को जीने की चाह हो।

एक कमज़ोरी जिसका ज़िक्र मैं करना चाहूंगी अपने लेखन के सिलसिले में, वह यह है कि मैं अपनी लिखी हुई कहानियों में परिवर्तन की मांग, किसी घटना या पात्र को इधर-उधर करने जैसी मांगों को बहुत सहजता से ग्रहण नहीं कर पाती। संयोग से मेरे साथ अब तक सिर्फ़ दो बार ही ऐसा हुआ जब पत्रिका के संपादन कक्ष से सुझाव आए। उन्हें मैंने ग्रहण भी किया। मगर ऐसा लगता है कि हर शब्द, हर पात्र पर इतना काम कर लिया है कि उसको अब इधर से उधर नहीं किया जा सकता। हां, कहानी मजबूत या कमजोर है, इसका एहसास रचना खत्म होने के साथ-साथ ही लेखक को हो ही जाता है। मुझे लगता है कि जो रचना कमज़ोर तैयार हो जाती है, उसे फिर से मज़बूत बनाना मुश्किल होता है। उसे तो कमज़ोर ही स्वीकार या अस्वीकार करना होगा- ठीक वैसे ही जैसे इमारत खड़ी हो जाने पर उसमें बदलाव संभव नहीं हो पाता, और उसे कमज़ोर ही स्वीकार करना होता है।

परिचय- एक नजर

ममता शर्मा

मोबाइल नंबर : 9430734424 / 9973958722

पता- 57,साउथ एंड

मानसरोवर रोड नंबर 2

एंसीलरी मोड़ के करीब

पोस्ट हटिया रांची 834003 झारखंड

ईमेल: mailtomamta.s@gmail.com

वागर्थ, कथाक्रम, परिकथा, शब्दयोग, साहित्य अमृत, ककसाड़, जनपथ, स्त्रीकाल, मलयज ब्लॉग स्पॉट, अक्षरपर्व, हिंदी समय डॉटकॉम, अभिनव मीमांसा, हिंदी प्रतिलिपि, अंतरंग पत्रिका, कथा समवेत आदि में कहानियां प्रकाशित

कथासंग्रह मेफ्लाई  सी ज़िन्दगी प्रकाशित

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फाउंड्री एंड फोर्ज टेक्नोलॉजी में हिंदी अधिकारी के रूप में सेवारत

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

राजीव कुमार झा
शिक्षक व लेखक

2 Comments on "“जो रचना कमज़ोर तैयार हो जाती है, उसे फिर से मज़बूत बनाना मुश्किल होता है”"

  1. Vibha Rani Shrivastava | March 4, 2022 at 9:49 AM | Reply

    आपकी लिखी रचना “पांच लिंकों का आनन्द में” शनिवार 05 मार्च 2022 को लिंक की जाएगी …. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा … धन्यवाद! !

  2. Sangeeta Swarup | March 5, 2022 at 7:02 PM | Reply

    कहानी यदि कमज़ोर है तो उसे ऐसे ही स्वीकार किया जाना चाहिए ….

    बेहतरीन साक्षात्कार

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