SUBSCRIBE
FOLLOW US
  • YouTube
Loading

जीवन में जूझते हुए ईश्वर के पद तक पहुंचते हैं वाल्मीकि के राम

तस्वीरः गूगल साभार

तमसा नदी के तट पर पीपल के वृक्ष के नीचे एक ऋषि विचारमग्न थे। सुबह की वेला में नदी की लहरें शांत थीं। मंद हवा बह रही थी, जिनमें पत्तियां-डालियां हिल-मिल रही थीं। पंछी घोसलों से निकल आए थे और उड़ने की तैयारी कर रहे थे। इसी समय क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा पास ही पेड़ की डाल पर बैठा कलरव कर रहा था। दोनों एक-दूसरे को चोंच मारते, पंख सहलाते, साथ-साथ उड़ान भरते और फिर डाल पर बैठ जाते थे। इस आमोद-प्रमोद से उनकी सृष्टि में अपार आनंद था। विचारमग्न ऋषि भी यह दृष्य देखते तो उनके भी होंठो पर मुस्कान आ जाती थी। यह क्रम चल ही रहा था कि एक व्याध (शिकारी) बाण संधान किए हुए वहां आ पहुंचा। उसने इधर-उधर देखा और फिर क्रौंच पक्षी की ओर दृष्टि जमा दी। अगले ही क्षण एक तीर सनसनाता हुआ नर पक्षी को भेद गया। वह चीत्कार करते हुए भूमि गिरा और उसने प्राण त्याग दिए। यह देख उसकी सहचरी क्रौंच विलाप करने लगी। अभी जहां कलरव था उस जगह शोक छा गया। विलाप करते हुए उसके भी प्राण निकल गए। यह दृष्य देख ऋषि गरज उठे, वेदना से उनका हृदय फट पड़ा और शोक श्लोक बनकर फूट पड़ा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः, यत्क्रौंचमिथुनादेकम अवधी काममोहितम।।
यह ऋषि वाल्मीकि थे, जिनके मुख से अचानक फूट पड़ा यह श्लोक उनकी महान कृति रामायण का आधार बना। भारतीय जनमानस को उनके राम से मिलाने वाले महर्षि वाल्मीकि जन्मे भी थे तो शरद पूर्णिमा के दिन। जिसकी रात में चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं के साथ, चांदी की तरह सफेद, आकार में कुछ बड़ा और शीतल किरणों के साथ आकाश में उपस्थित रहता है। हिंदी के एक विद्वान इस स्थिति को कुछ इस तरह भी देखते हैं कि उस रात चंद्रमा की चमक अधिक तेज थी और वाल्मीकि संसार में प्रकाशित हो गए या फिर वाल्मीकि के तेज ने चंद्रमा अधिक रोशन कर दिया था।
वाल्मीकि एक पौराणिक कवि हैं और उनका लिखा यही एक ग्रंथ अस्तित्व में दिखता है। हो सकता है उनकी और भी रचनाएं रही हों, लेकिन रामायण जैसी लोकप्रियता हासिल न हो पाने के कारण कालखंडों का लंबा सफर तय न कर सकी हों। रामायण की भी लोकप्रियता इसलिए रही क्योंकि वह एक संपन्न राजकुमार की कहानी होने के बाद भी एक व्यक्ति के जीवन में आनी वाली सारी परेशानियों, उसकी कर्मठता और उसके संघर्ष का बेहद सटीक खाका खींचती है। तुलसी के लिए रामचरित मानस लिखना शायद इसिलए आसान रहा होगा क्योंकि वह भगवद पद पर पहले से बैठे एक व्यक्ति को जस के तस सामने रखने वाले थे। भगवद पद यानी कि एक ऐसा व्यक्ति जिसके साथ कुछ गलत भी हो रहा है तो वह उसकी मर्जी है। आप मंथरा के भड़काने वाला प्रसंग देख लीजिए, या फिर सीता हरण का दृष्य याद कर लीजिए। मानस में ऐसी व्याख्या मिलेगी कि ईश्वर की इच्छा से मंथरा की बुद्धि फिरी और तब उसने कैकेयी को भड़काया। रामायण के वर्णन इसके विपरीत हैं।
वाल्मीकि की रामायण में राम परिस्थितियों के अनुसार चलने वाले व्यक्ति हैं। एक ऐसा व्यक्ति जिसके साथ अक्सर तब कुछ गलत होता है जब भी उसके साथ कुछ बेहतर होने वाला हो। वाल्मीकि राम को प्रतिष्ठित नहीं करते हैं, बल्कि नियती की डोर में बंधे प्रसंग राम के चरित्र को खूब गाढ़ा उभारते जाते हैं। रामायण का एक श्लोक देखिए। निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः । सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति॥ यानी कि उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं, वह घोर विपत्ति में फंस जाता है। यह श्लोक उस समय के लिए लिखा गया है, जब वन में राम को अपने पिता दशरथ की मृत्यु का समाचार मिलता है, तब ऋषि वशिष्ठ उन्हें तरह-तरह से सांत्वना देते हैं।

रामायण और मानस के राम में एक समानता है कि दोनों के ही चरित्र में शीलता और कोमलता काफी अधिक है। हालांकि तुलसी बड़ी ही चतुराई से इसे वीर व्यक्ति का खास पहलू बता देते हैं, लेकिन वाल्मीकि इस कोमलता को व्यक्ति की एक कमजोरी के तौर पर ही देखते हैं। अब लक्ष्मण के किरदार को देखें तो वह राम के उन दबे मनोभावों का मूर्त स्वरूप लगते हैं, जिन्हें राम व्यक्त नहीं कर पाते हैं। यानी जो क्रोध या क्षोभ राम कभी जता नहीं पाए, लक्ष्मण के जरिए वह हमेशा ही व्यक्त हो जाते हैं। पूरी कथा में लक्ष्मण अपने लिए कभी क्रोध करते नहीं दिखते हैं, बल्कि राम की ही आवाज बनते हैं। सीता स्वयंवर के प्रसंग को याद कीजिए।  शिवधनुष उठा पाने जब सभी राजा-वीर असफल रहते हैं तब जनक गुस्से में कह डालते हैं कि यह धरती वीरों से खाली है। यह सुनते ही लक्ष्मण तुरंत खड़े होकर विरोध करते हैं और जनक से कहते हैं कि ऐसा कहने से पहले आपने मेरे भैया राम की ओर क्यों नहीं देखा। इस प्रसंग को आप व्यवहार में सोचिए- अगर आप किसी कार्य को करने में सक्षम हैं, लेकिन उसके लिए आप अनदेखा किए जा रहे हैं तो क्या आप खुद इसका विरोध नहीं करेंगे। दरअसल सामान्य व्यक्ति का जीवन खुद में ही राम-लक्ष्मण का संयुक्त जीवन होता है, जहां शांति तो जरूरी है वहीं क्रोध की भी अपनी भूमिका होती ही है। परशुराम-लक्ष्मण संवाद, वनवास मिलने पर भी राम का शांत रहना लेकिन लक्ष्मण का क्रोध करना, वन में भरत के पहुंचने पर लक्ष्मण का क्रोधित होना और यहां तक कि सुग्रीव को उनके वचन की याद दिलाना भी राम के छिपे मनोभावों का वर्णन ही है। तुलसी हर एक प्रसंग के साथ राम को ईश्वर का पद देते गए, लेकिन वाल्मीकि हर जगह जूझते हुए राम को मर्यादा का आधार बनाते गए।

पूरी कथा में राम को कुछ ही जगहों पर क्रोध आता है। इनमें सबसे चर्चित है, समुद्र पर पुल बनाने के लिए रास्ते की मांग करना। तीन दिन तक राम सागर से प्रार्थना करते रहे, लेकिन चौथे दिन वह बुरी तरह क्रोधित हो गए। यह वह जगह है जहां राम क्रोधित हैं, लक्ष्मण शांत हैं। जबकि बीते कई प्रसंगों की तरह लक्ष्मण यहां भी आगे आ सकते थे और कह सकते थे, रहने दीजिए भैया, इस समुद्र को अभी सु्खा देता हूं। लेकिन तुलसी शायद यहां अपने वीर का दम दिखाना चाहते थे। इसलिए वह लिखते हैं – विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत। बोले राम सकोप तब, भय बिन होए न प्रीत। राम समुद्र पर क्रोध करते हैं तो वह स्वयं आकर उनसे विनती करता है और पुल बांधने का रास्ता देता है।

रामायण भले ही जिस तरीके से लिखी गई हो, लेकिन वह आखिरी तक मनुष्य को मनुष्य बने रहने के लिए प्रेरित करती है। मर्यादा का संदेश देती है, साथ ही प्राणियों से समानता बनाए रखने का उपदेश देती है। रामायण त्याग, सत्य, प्रेम और कर्तव्य और वचन पालन को सबसे शीर्ष पर रखती है और झूठ, किसी को कष्ट देना व अमर्यादित व्यवहार करने को सबसे बुरा कर्म बताती है। यही इस कहानी का सार है। आज के दौर में यह सार तो मृत अवस्था में है ही इसके साथ ही जातियों में बंटा समाज इसके लेखक को भी यदा-कदा किनारे लगाता रहता है। जन्म के बजाय कर्म को प्रधान मानने वाले इस देश में यह स्थिति विडंबना ही है।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

विकास पोरवाल
पत्रकार और लेखक

Be the first to comment on "जीवन में जूझते हुए ईश्वर के पद तक पहुंचते हैं वाल्मीकि के राम"

Leave a comment

Your email address will not be published.


*