साहित्य जगत में तमाम कवि, लेखकों पर चर्चा होती रहती है। हम भी कोशिश करते हैं कि साहित्य में विभिन्न विधाओं पर कुछ न कुछ आपके सामने परोसा जाए। हम कभी कविता पर बात करते हैं तो कभी साहित्यकारों पर, लेकिन इन सबसे अलग आज हम इन दोनों का उल्लेख करेंगे। हिंदी के वर्तमान कवियों में संजय कुंदन का नाम उल्लेखनीय है इनकी कविताओं में समाज में आदमी के जीवन का झूठा- सच्चा यथार्थ खासकर प्रकट हुआ है। पहले हम उनकी एक रचना को पढ़ते हैं फिर उनसे राजीव कुमार झा से हुई बातचीत को पढ़ते हैं-
दंगाई
दंगाइयों में थे वे भी शामिल
जिनकी अभी ठीक से मूंछें भी नहीं आईं थीं
चौदह से सोलह साल के वे नौजवान
जिन्हें कक्षाओं में होना था
पुस्तकालयों में होना था
खेल के मैदानों में होना था
सड़क पर दिखे हाथ में सरिया और कट्टे लिए
उनमें से एक इतना तेज दौड़ता था
जैसे कोई धावक हो
अगर उसे ओलिंपिक में भेजा जाता
तो क्या ठिकाना, वह कोई पदक ले आता
कोई कलाइयों को घुमाकर पत्थर फेंक रहा था
वह एक अच्छा फिरकी गेंदबाज हो सकता था
कभी वे भी चढ़ रहे थे शिक्षा की सीढ़ियां
पर लौटना पड़ा बीच रास्ते से
जो हाथ कूची थाम सकते थे, वे पेचकस चलाने लगे
बर्तन मांजने या लोहा काटने-जोड़ने में लग गए
और जब एक दिन उन्हें हथियार थमाए गए
उन्हें पहली बार अहसास हुआ
वे भी किसी लायक हैं
उनकी भी कोई पूछ है
उन्होंने गाड़ियों के शीशे उसी तरह
चूर-चूर किए
जिस तरह उनकी इच्छाएं चूर-चूर हुई थीं
उन्होंने मकानों को उसी तरह राख कर देना चाहा
जिस तरह उनके सपने राख हुए थे
वे एक नकली दुश्मन पर अपना
गुस्सा उतार रहे थे
उनका असली दुश्मन बहुत दूर बैठा
उन्हें टीवी पर देखता हुआ
मुस्करा रहा था।
1.आपका काव्य लेखन की ओर झुकाव कब और कैसे कायम हुआ?
लेखन के प्रति मेरा झुकाव बचपन में ही हो गया था। वर्णमाला सीखते ही मैं तुकबंदी करने लगा। दरअसल मैंने किताबों के बीच ही आंखें खोलीं। मेरे पिताजी मैथिली के रंगकर्मी थे और साहित्य के जबर्दस्त पाठक। थोड़ा-बहुत लिखते भी थे। जब मैं छोटा था, तभी वे मुझे अपने साथ साहित्यिक गोष्ठियों, नाटकों के रिहर्सल और मंचन में ले जाया करते थे। मुझे काफी कम उम्र में ही अहसास हो गया था कि लेखक कोई विशिष्ट व्यक्ति होता है। मैंने तय कर लिया कि मुझे लेखक तो बनना ही है,चाहे और जो कुछ बनूं। जब मैं बारह-तेरह साल का था, तभी मेरी एक कविता पटना से प्रकाशित होने वाले दैनिक आर्यावर्त के साप्ताहिक परिशिष्ट में छपी।
2. अपने प्रिय कवियों के बारे में बताएं और कवि के रूप में अपनी जीवन चेतना पर इन कवियों की काव्य कला के प्रभावों के बारे में बताएं?
हिंदी की प्रगतिशील धारा के कवियों ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया। मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह ने। मुक्तिबोध की कविताएं तो मुझे रंगमंच के करीब लगती रही हैं। चूंकि रंगकर्म में मेरी रुचि रही, इसलिए मुक्तिबोध की कविताओं का एक खास आकर्षण रहा। उनकी कविताओं में एक के बाद एक घटनाएं आती हैं, नाटक या फिल्मों की तरह। उनमें जो फैटेंसी है, वह भी प्रभावित करती है। नागार्जुन की कविताओं में जो विट या तंज है, वह मुझे अच्छा लगता रहा है। अपने समय के ठोस भौतिक यथार्थ खासकर राजनीतिक यथार्थ को वे जिस तरह व्यक्त करते हैं, वह मुझे विलक्षण लगता है। इसका ही एक अलग रूप रघुवीर सहाय में मिलता है। उनमें अभिधा की ताकत नजर आती है। त्रिलोचन में प्रकृति और लोकजीवन जिस तरह सादगी के साथ आया है, वह प्रभावित करता रहा है। केदारनाथ सिंह के बिंबों ने मुझ पर गहरा असर डाला। वे रोजमर्रा जीवन की साधारण सी चीजों में जो बिंब ढूंढ लेते हैं और उसे दूर तक ले जाते हैं, वह अद्भुत है। इन सभी कवियों से मैंने बहुत कुछ सीखा है और मेरे ऊपर इन सबका मिला-जुला असर है।
3. दिल्ली आने से पहले आप काफी समय तक पटना में रहे। यहां पढाई-लिखाई करते हुए आपने कविता के साथ कैसा लगाव महसूस किया और उस समय के पटना के साहित्यिक परिवेश को आज किस तरह से याद करेंगे?
सांस्कृतिक चेतना की दृष्टि से पटना एक जीवंत शहर है। उसकी धड़कनों में साहित्य और कला प्रवाहित होती है। संयोग से मेरा एडमिशन पटना कॉलेज में हुआ, जो उस वक्त तमाम सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था। हिंदी के तमाम वरिष्ठ लेखकों को मैंने अपने कॉलेज के सेमिनार हॉल में ही पहली बार देखा। चाहे वह नामवर सिंह हों या फिर केदारनाथ सिंह, राजेंद्र यादव, निर्मला जैन, वेणु गोपाल, वीरेन डंगवाल, नरेश सक्सेना औऱ भी कई लेखक। ये सब लोग पटना आते रहते थे। पटना में उस समय हिंदी के दो महत्वपूर्ण कवियों का सान्निध्य मिला-आलोकधन्वा और अरुण कमल। इसी तरह मुझे दो महत्वपूर्ण आलोचकों खगेंद्र ठाकुर और नंदकिशोर नवल का मार्गनिर्देशन प्राप्त हुआ। प्रखर आलोचक और विचारक अपूर्वानंद के साथ गतिविधियों में शामिल होने का मौका मिला। इन सब के साथ रहकर मैंने समकालीन कविता को समझा। उस समय के विमर्श से जुड़ा। धीरे-धीरे मेरे सरोकार स्पष्ट होते गए। उन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा जैसी संस्थाओं का बोलबाला था। बाद में जन संस्कृति मंच की गतिविधियां शुरू हुईं। फिर कई और संगठन बने और गतिविधियां चलती रहीं। उस समय पटना के तमाम संगठनों ने मिलकर सांप्रदायिता विरोधी एक राष्ट्रीय कन्वेंशन किया था जिसमें एके हंगल, फारुक शेख, दीना पाठक, भीष्म साहनी जैसे लोगों ने शिरकत की थी। उस समय इप्टा और कला संगम जैसी नाट्य संस्थाओं ने अपने नाट्य प्रयोगों से पूरे देश का ध्यान खींचा था। तब बीवी कारंत जैसे निर्देशक बार-बार पटना आया करते थे और रंगकर्मियों से संवाद करते थे। मैंने उन्हें पटना के एक चौराहे पर भवानी प्रसाद मिश्र की कविता गीत फरोश का पाठ करते देखा था। इसके अलावा खुदा बख्श लाइब्रेरी बौद्धिक आयोजनों का एक गढ़ हुआ करती थी, जहां मैंने पहली बार इतिहासकार विपन चंद्र को देखा। इतिहासकार रामशरण शर्मा तो वहीं रहते थे। उनसे नियमित मिलना-जुलना होता था। आज भी पटना में गतिविधियां हो रही हैं, लेकिन बड़े सवालों पर एकजुटता नहीं हो पा रही है।
4. आज के दौर में आपको कविता लेखन का समग्र परिदृश्य कितना बदलता हुआ प्रतीत हो रहा है? कविता लेखन से जुड़े अपने रचनात्मक सरोकारों की पहचान अब किस रूप में करते हैं ?
नब्बे के दशक में उदारीकरण आने के साथ यह लगने लगा था कि हिंदी का भविष्य खतरे में है। हिंदी में लिखना-पढ़ना धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा और कविता का भविष्य तो बेहद अंधकारमय है। लेकिन यह धारणा एकदम गलत निकली। पिछले एक दशक में भारी संख्या में नौजवान लेखन के क्षेत्र में आए हैं। आज बड़े परिमाण में कविताएं लिखी जा रही हैं। जिस तकनीक से लेखन को खतरा बताया जा रहा था, आज वह उसमें सहायक सिद्ध हो रही है। आज सोशल मीडिया साहित्य के एक विराट प्लैटफॉर्म के रूप में उभरा है। इसके साथ खासियत यह है कि इसमें लेखक सीधे अपने को प्रकाशित कर सकता है। न तो संपादक की जरूरत है न प्रकाशक की। हालांकि इसकी अपनी सीमाएं हैं। संपादक की अनुपस्थिति ने जहां साहित्य को ज्यादा से ज्यादा जनतांत्रिक बनाया, वहीं इसने साहित्य के मापदंडों को धुंधला कर दिया। अब अच्छी और बुरी कविता का भेद मिट सा गया है। और न तो कोई यह बताने वाला रह गया है न ही कोई जानना चाहता है। पहले संपादकों की तानाशाही थी, जिससे मुक्ति तो मिली है। लेकिन पहले कुछ अच्छे संपादक भी थे, जो बताते थे कि रचना में कमियां क्या हैं, उसे बेहतर कैसे किया जा सकता है। आज यह बताने वाला कोई नहीं है। इसका नुकसान यह है कि लोगों में खुद को सुधारने की प्रवृत्ति समाप्त हो गई है। अब कई युवा कवि फेसबुक की लाइक्स को ही अपनी सफलता मानने लगे हैं। अब रचनाएं अस्वीकृत नहीं होतीं, सब कुछ स्वीकृत ही होता है, इसलिए सोशल मीडिया पर बुरी कविताओं का ढेर लगा है। हालांकि अच्छी कविताओं की कमी भी नहीं है। आज का यथार्थ इतना जटिल और भयावह है कि उसे काव्यात्मक अनुभव में बदलना बेहद चुनौतीपूर्ण है। आज कई युवा कवियों की कविताओं में बातें ही बातें होती हैं। जबकि कविता को पहले कविता की शर्तों पर खरा उतरना होता है।
कविता को लेकर मेरा सरोकार जो पहले था, वही आज भी है। कविता मेरे लिए हमेशा जन प्रतिरोध का एक जरिया रही है।मेरी कविता समाज के सबसे कमजोर आदमी की आवाज बन सके और एक बेहतर व्यवस्था की स्थापना के लिए संघर्ष को मजबूती दे सके, यही मेरा सरोकार रहा है, जो समय के साथ और दृढ़ हुआ है।
5. कविता लेखन के अलावा आपने अन्य विधाओं में भी लेखन किया है आप इसके बारे में बताएं?
मैंने शुरू से ही कई विधाओं में लिखा। शुरू में नुक्कड़ और मंच नाटक भी लिखे। लेकिन जितनी बारीकी से कविता से जुड़ा,शायद नाटक से जुड़ नहीं पाया इसलिए मेरे नाटक निर्देशकों को संतुष्ट नहीं कर पाए। लेकिन कहानियां मैंने काफी गंभीरता से लिखी। मुझे अक्सर यह महसूस होता रहा है कि यथार्थ का एक बड़ा हिस्सा कविता से बाहर रह जा रहा है। कई ऐसे चरित्र मिले , जिन पर लिखने की इच्छा हुई तो इन सबके लिए मैंने कहानियां लिखीं।कुछ कथ्य ऐसे मिले जिनमें विस्तार की गुंजाइश थी, तो दो लघु उपन्यास भी लिख डाला।
6. आजकल हिंदी में आलोचना लेखन की दशा चिंतनीय है। आलोचना के नाम पर लेखक और पुस्तक केन्द्रित विमर्श की प्रवृत्तियाँ आलोचना में प्रचलित दिखायी दे रही हैं और रचनाओं के पाठ – पुनर्पाठ से परे हटकर आलोचना कैसे समाज-संस्कृति के विमर्श की विधा बन सकती है आप इसके बारे में बताएं?
आलोचना के लिए जिस व्यापक तैयारी, तटस्थता और कुछ हद तक निर्ममता की जरूरत है, उसका अभाव हो गया है। आज हर किसी को अपने काम का नतीजा तुरंत चाहिए। इसलिए इस क्षेत्र में उल्लेखनीय काम कम ही दिखाई देते हैं। आज पाठ(टेक्स्ट) को ध्यान में रखकर काम करने की जरूरत है। एक लेखक ने अपने समय की तमाम हलचलों को किस तरह दर्ज किया है और जरूरी सवालों से किस तरह मुठभेड़ की है, इसकी शिनाख्त करने से आलोचना समाज-संस्कृति के विमर्श की विधा बन सकती है।
7. नाटक और सिनेमा से आपका कितना प्रेम रहा है। आजकल की फिल्में कितनी पसंद आती हैं और नाट्यावलोकन के कुछ विलक्षण प्रसंगों के बारे में बताएँ ?
नाटक से मैं दो-तीन साल तक सक्रियतापूर्वक जुड़ा रहा। नाटक लिखे, उनका निर्देशन किया, उनमें अभिनय किया। हालांकि मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि मेरा असल क्षेत्र लेखन ही है खासकर कविता। फिल्में मैं कम ही देखता हूं। जिसकी चर्चा होती है, उसे देख लेता हूं। एक बात तो है कि हिंदी फिल्मों में एक बड़ा गुणात्मक परिवर्तन आया है। अब कंटेट पक्ष बेहद मजबूत हुआ है। छोटे-छोटे शहरों से आए निर्देशकों की एक नई पीढ़ी ने समाज को प्रभावित करने वाले ज्वलंत विषयों पर बेहतरीन फिल्में बनाई हैं। उन फिल्मों ने कई जरूरी विमर्शों को गति दी है। इस मामले में तो मुझे हिंदी सिनेमा हिंदी कथा साहित्य से आगे नजर आता है।
8. आप पत्रकारिता से जुड़े हैं। हिंदी की व्यावसायिक पत्रकारिता आज अपने मानवीय और सामाजिक सरोकारों के साथ कितनी प्रतिबद्ध दिखायी देती है?
आज व्यावसायिकता का दबाव बढ़ा है जिसने मीडिया की भूमिका को प्रभावित किया है। आज मीडिया का विस्तार हुआ है और इसके एक बड़े हिस्से ने मानवीय और सामाजिक सरोकारों को महत्व देना कम कर दिया है। लेकिन, मीडिया के साथ सबसे बड़ी बात यह है कि वह जनता और समाज से मुंह मोड़कर जीवित नहीं रह सकता, इसलिए वह मानवीय सरोकारों को पूरी तरह छो़ड़ नहीं सकता।
लेखक/कवि के बारे में
जन्म: 7 दिसंबर, 1969, पटना में
पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए।
संप्रति: हिंदी दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’, नई दिल्ली में सहायक संपादक
प्रकाशित कृतियां:
कागज के प्रदेश में (कविता संग्रह)
चुप्पी का शोर (कविता संग्रह)
योजनाओं का शहर (कविता संग्रह)
तनी हुई रस्सी पर (कविता संग्रह)
बॉस की पार्टी (कहानी संग्रह)
श्यामलाल का अकेलापन (कहानी संग्रह)
टूटने के बाद (उपन्यास)
तीन ताल (उपन्यास)
पुरस्कार/सम्मान:
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार
हेमंत स्मृति सम्मान
विद्यापति पुरस्कार
बनारसी प्रसाद भोजपुरी पुरस्कार
कहानियां और कविताएं अंग्रेजी, मराठी और पंजाबी में अनूदित।
अनुवाद कार्य: एनिमल फार्म (जॉर्ज ऑरवेल) और पैशन इंडिया (जेवियर मोरो) का हिंदी में अनुवाद।
लघु फिल्म ‘इट्स डिवेलपमेंट स्टुपिड’ की पटकथा का लेखन
संपर्क: सी-301, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर-9, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012(उप्र)
मोबाइल: 09910257915
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