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परशुराम की वजह से कर्ण का वध हुआ, जानिये क्यों?

वर्तमान संदर्भों में परशुराम की कथा शासन और नीति के सामंजस्य की ओर ही संकेत करती है और धर्म के रूप में स्वेच्छाचारिता की जगह पर  नियम-विधान की स्वीकार्यता पर प्रकाश डालती है। परशुराम जयंती के पावन अवसर पर इन बातों की चर्चा कर रहे हैं राजीव कुमार झा

हिंदू पौराणिक कथाओं में विष्णु के दशावतारों मे परशुराम को छठा अवतार माना गया है। आज उनका जन्मदिन और इसी पावन दिवस को भृगुवंशी ब्राह्मणों के एक श्रेष्ठ कुल में ऋषिवर जमदग्नि के सपूत के रूप में धरती पर धर्म की स्थापना के लिए परशुराम का पावन आविर्भाव हुआ था। पौराणिक कथा के अनुसार परशुराम के पिता के पास के पास कामधेनु गाय थी और एक बार उनकी उस गाय को देखकर राजा कार्तवीर्य सहस्रबाहु ने जमदग्नि से उस गाय को पाने की इच्छा प्रकट की लेकिन उन्होंने अपनी इस गाय को उसे देने से इंकार कर दिया। जमदग्नि को अपनी कामधेनु गाय से काफी प्रेम था। परशुराम की कथा के अनुसार राजा सहस्रबाहु निरंकुश और स्वेच्छाचारी क्षत्रिय राजा था और उसने जमदग्नि की इच्छा के विरुद्ध कामधेनु गाय का बलपूर्वक अपहरण कर लिया इससे आहत होकर परशुराम ने सहस्रबाहु को अपने कुठार से मार डाला और कहा जाता है कि राजा कार्तवीर्य सहस्रबाहु के मारे जाने के बाद इसकी प्रतिक्रिया में उनके पुत्रों ने भी परशुराम के पिता जमदग्नि का वध कर दिया। अपने पिता की इस निर्मम हत्या से परशुराम बेहद क्षुब्ध हो गये और उन्होंने धरती पर क्षत्रियों के अत्याचारी शासन को खत्म करने की भीषण प्रतिज्ञा की।

परशुराम का उल्लेख महाभारत और रामायण में भी है। इस प्रकार परशुराम क्षत्रियों के विरोधी हो गये और इसीलिए कहा जाता है कि उनसे उनके अलौकिक ज्ञान और तेज को पाने के लिए क्षत्रिय नारी कुंती के गर्भ से उत्पन्न कर्ण ने खुद को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा और स्नेह को पाया था और अपने इस छल और झूठ का भेद खुलने पर परशुराम के कठोर शाप का भी शिकार हुआ था। महाभारत के युद्ध में अठारहवें दिन कर्ण पांडवों से भीषण युद्ध करता हुआ विजय की ओर अग्रसर था तो परशुराम के शाप से ऐन इसी वक्त धरती ने उसके रथ के पहिये को अपना ग्रास बना लिया था और अर्जुन के हाथों वह कुरुक्षेत्र के मैदान में अकालमृत्यु का शिकार हो गया था। परशुराम को कर्ण से पुत्रवत् प्रेम था लेकिन, असत्य और प्रपंच से वे घृणा करते थे।

रामायण के सीता स्वयंवर की कथा में शिव के धनुषभंग प्रसंग के बाद राम पर परशुराम के क्रोध और राजा जनक के दरबार में लक्ष्मण के साथ उनके विनोदपूर्ण विवाद के पश्चात क्षत्रियों के प्रति उनका क्षोभ और क्रोध खत्म होता हुआ भी दिखायी देता है। रामायण की इस कथा में राम परशुराम के पुण्य प्रताप के समक्ष नतमस्तक दिखायी देते हैं- ‘ नाथ संभु धनु भंजनिहारा होइहि केउ एक दास तुम्हारा ‘ रामचरितमानस में परशुराम के प्रति राम का यह विनय परशुराम के तपोमय व्यक्तित्व की झलक प्रस्तुत करता है। परशुराम की पौराणिक कथा अपनी संकेत योजना में राजा और उसके कर्म को धर्मसम्मत बनाने की सोच पर जोर देते हुए मूलत: शासन की शास्त्रीय अवधारणा को ही प्रकट करती है और परशुराम शासकों की अनीति और अधर्म के खिलाफ संघर्षरत सच्चे योद्धा प्रतीत होते  हैं।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

राजीव कुमार झा
शिक्षक व लेखक

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