आयी आयी मोर नगरिया
झूठ बोलती एक बदरिया
गड़ गड़ की ध्वनि रही सुनाती
पर न बरसी वो इह डगरिया ।
छायी बनकर घुँघराली सी
लगती कितनी मतवाली सी
कजरारे से नयन दिखाकर
सज घजकर वह चली सँवरिया ।
बदरों के संग रही घूमती
शुभ्र – ज्योति सी ओढ़ चुनरिया
भरने चली सलिल सागर तट
कर में रीती लिये गगरिया ।
जन जन में है आस जगायी
पानी अंजुली भर न लायी
इठलाती वह रही शशी से
बिन बरसे ही उड़ी बदरिया ।
वाह … सुन्दर …