दुर्गेश सिंह
पंडित जुगल किशोर के हाथों 30 मई 1826 को “उदन्त मार्तंड” नामक समाचार पत्र की शुरुआत गुलामी के दौर में भारत में शुरू होती है। मतलब साफ हो चुका था कि जनता को ऐसी ताकत मिल चुकी थी, जिससे वह अपने दुख दर्द सरकार से बयां कर सकती थी। इसी के साथ पत्रकारिता का अनंत सफर शुरू हुआ। उसके साथ एक से बढ़कर एक प्लेटफॉर्म देश को मिलने लगे। प्रिंट से सफर शुरू होकर इलेक्ट्रॉनिक तक और अब आधुनिकता के इस दौर में डिजिटल मीडिया ने अपने पैर पसार दिए।
जहाँ 24 घंटे खबरों का इंतजार करना पड़ता था। वहीं, आज डिजिटल प्लेटफॉर्म पर मात्र कुछ सेकंडों में खबरों का प्रसारण हो रहा है। डिजिटल पत्रकारिता ने उस गठजोड़ को तोड़ा जो खबरों को चलने से रोकते थे। खबरों को दबा दिया जाता था पत्रकार और फिर एडिटर तय करते थे कौन सी खबरें चलेंगी कौन सी नहीं। बदलते पत्रकारिता के इस दौर में पत्रकारों को तकनीक के साथ बेहतर तालमेल बनाने का भी एक मौका पेश किया है जो पत्रकारों को सरलता और सुगमता से अपने कार्य को करने में अवसर प्रदान कर रहा है।
बात इससे इतर की जाए तो आज के पत्रकारिता जगत के सामने सत्य और झूठ को परोसने को लेकर रेस शुरू हो चुकी है। टीआरपी ही मीडिया बाजार का संतुलन को तय करने में लगी है। समाज के सामने पत्रकारिता को ताक पर रखकर झूठ परोसने का खेल हर ईमानदार पत्रकार ने उसके साथ आमजन ने भी इस खेल को जरूर महसूस किया है, लेकिन न्याय के तराजू पर राज ईमानदारी की पत्रकारिता की होगी तो लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को डिगा नहीं पाएगा। इससे समाज के उस व्यक्ति को भी न्याय मिलेगा जो हाशिये पर पड़ा है। इसे यकीनन महसूस होगा चौथा स्तंभ उनकी आवाज उठाने के लिए साथ खड़ा है।
क्या डर और हत्या से डिगाई जा रही है पत्रकारिता?
मध्य प्रदेश में पत्रकार को भू-माफिया इस लिए रौंद देता है। क्योंकि, उसने उस गठजोड़ का खुलासा किया था जो नौकरशाही और माफियाओं पर वज्रपात कर सकता था। लेकिन, उसके पहले हत्या कर दी गई तो क्या यह समझ लिया जाए कि चौथे स्तंभ को डिगाने की कोशिश की जा रही है?
कितना ध्यान सरकार का मीडिया कर्मियों पर है?
बात व्यवस्था की अगर करें तो सरकार के पास न कोई नीति है और न ही नियति जिससे पत्रकारों को सुरक्षा, चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएं प्रदान की जाए। लोकतंत्र को जीवित रखने में जहां पत्रकार सब कुछ निछावर कर देता है। वहीं, सरकार के पास पत्रकारों के हित के लिए कोई योजना ही नहीं है। कई बार संगठनों ने सरकारी मदद की भी मांग की, लेकिन राजनीति कभी इस विषय पर अपना ध्यान केंद्रित ही नहीं कर पाई।
प्रसिद्ध पत्रकार कमलेश्वर जी ने एक सवाल का जवाब देते हुए कहा था “साम्प्रदायिकता और जातिवाद ताकतों के खिलाफ लड़ाई जारी है और जारी रहेगी। हमारी सामाजिक संस्कृति बहुलतावादी है और रहेगी। जहां तक बाजार के वर्चस्व का सवाल है तो खतरा चकाचौंध का नहीं सामाजिक रिश्तो के खत्म होने का है जो एकाकीपन मे धकेल रहा है और उसे दूर करने का रास्ता रास्तों को ही खत्म कर घेरे में समेट रहा है।”
कमलेश्वर जी ने देश को सिखाया कैसे मैनपुरी जैसे छोटे कस्बे से निकलकर उन्होंने ईमानदारी के बलबूते पत्रकारिता में बुलंदी हासिल की। आज भी उनकी कृति” कितने पाकिस्तान” के करोड़ों प्रशंसक हैं।
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