-पूजा कुमारी
“गुरु गोवन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ।।” – कबीर
कबीर का यह दोहा बहुत ही प्रसिद्ध एवं बहुश्रूत है। हम सभी बचपन से ही इसे पढ़ते, गाते और याद करते आए हैं। माना जाता है कि कबीर अनपढ़ थे। एक अनपढ़ व्यक्ति द्वारा गुरु को गोविन्द अर्थात् ईश्वर से श्रेष्ठ बताना आश्चर्य करता तो है लेकिन प्रसन्न भी करता है, लेकिन क्या आज हम खुद को आधुनिक एवम् शिक्षित मानने वाले अपने गुरु को इस नजर से देखते हैं?
आज शिक्षक दिवस है जो भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक, श्रेष्ठ वक्ता, राजनयिक, स्वतंत्र भारत के प्रथम उप राष्ट्रपति एवम् दूसरे राष्ट्रपति तथा आस्थावान हिन्दू विचारक भारत रत्न डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन (५ सितंबर १८८८ – १७ अप्रैल १९७५) के जन्मदिवस के याद में मनाया जाता है। उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य ४० वर्ष एक सफल शिक्षक के रूप में देश- विदेश के श्रेष्ठ संस्थानों में व्यतीत किया। चाहे वह बीएचयू हो, डीयू हो, कलकत्ता विश्वविद्यालय, आंध्र विश्वविद्यालय या ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, हर जगह उनके शिक्षक और दार्शनिक रूप का डंका बजा। डॉ राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। ज्ञान तथा शिक्षा के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी। इनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है । अतः विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। उनका शिक्षक-छात्र जीवन आज के शिक्षक-छात्र के लिए अनुकरणीय है। डॉ राधाकृष्णन के नज़र में अच्छा शिक्षक वो है, जो ताउम्र सीखता रहता है और अपने छात्रों से सीखने में भी कोई परहेज़ नहीं दिखाता। वे कहते थे, ‘शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूसे, बल्कि वास्तविक शिक्षक वह है, जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे।’
लेकिन, आज वही महान शिक्षक डॉ राधाकृष्णन के मातृभूमि भारत में छात्र, शिक्षक एवम् शिक्षा की दयनीय स्थिति है। आज शिक्षा व्यवसाय बन गया है। शिक्षक व्यापारी तो छात्र खरीदार और वहीं शिक्षक दिवस’ केवल ५ सितंबर तक ही सीमित रह गया है। हमारी संस्कृति में गुरु को देवतातुल्य समझा जाता है। आदि शंकराचार्य का प्रसिद्ध श्लोक है:
गुरुर्ब्रह्म गुरुर्विष्णु: गुरूर्देवो महेश्वर:।
गुरुरसाक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
-गुरु स्त्रोतम्
लेकिन, क्या आज हमारी दृष्टि में शिक्षक का यह स्थान बचा है ? शायद नहीं! इसके लिए कौन जिम्मेदार है? स्वयं शिक्षक, छात्र, समाज या हमारी सरकार या शायद हम सभी ही।
अध्यापक शिक्षा की धुरी होते हैं । वे बच्चों को आकार देते हैं । बच्चा कच्ची मिट्टी की तरह होता है, उसे शिक्षक आकृति देते हैं। वह बच्चे को जैसी आकृति देना चाहें दें सकते हैं। जैसे कुम्हार मिट्टी से मनचाही आकृति बना लेता है। यह अध्यापक का काम है कि वह सोचे की कालचक्र पर किस तरह की आकृति दें। शिक्षक सिर्फ़ शिक्षा ही नहीं देते, संस्कार भी देते हैं। संस्कार के बिना शिक्षा सारहीन है। शिक्षक उस मोमबत्ती के समान होते हैं जो स्वयं जलकर दूसरे को प्रकाशित करते हैं। लेकिन, आज यह धुरी शिक्षकों के स्वार्थ एवम् व्यवहार के कारण अपने स्थान से खिसक गया है जिसे अपने स्थान पर लाना शिक्षक वर्ग का दायित्व है।
हमारी संस्कृति में जहां धरती को मां, शिक्षक को देवता तो वहीं विद्यालय को मंदिर माना जाता है। अटल जी कहा करते थे, ‘ विद्यालय एक पावन मंदिर होता है, एक अनुष्ठान का स्थान होता है , वह केवल सर्टिफिकेट बांटने का कारखाना नहीं होता। विद्यालय संस्कार देता है। जिस विद्यालय में संस्कार नहीं दिए जाते, वहां शिक्षा नहीं दी जाती। संस्कार के बिना शिक्षा अधूरी है, केवल सूचनाओं का भण्डार व्यर्थ है। हमें शिक्षित नहीं, सुशिक्षित नागरिक चाहिए, जिनमें उत्तम संस्कार हों।’ लेकिन आज यही मंदिर पैसा कमाने के कारखाना बनते जा रहे हैं।
छात्र ! वहीं आज के छात्र तो छात्र होने की हर सीमा को तोड़ रहे हैं। कहा जाता है भगवान हनुमान अपने बाल्यावस्था में भगवान दिनकर को निगलने चल दिए थे वहीं, आज के छात्र शिक्षक को निगल लेना चाहता है और मुसीबत है कि उनके पास ‘मां अंजनी’ भी नहीं हैं। उनकी नकारात्मक सोच बढ़ती ही जा रही है। हालांकि शिक्षा के क्षेत्र में छात्र नए-नए कृतिमान गढ़ रहे हैं। आसमान की ऊंचाइयों को नाप रहे हैं, लेकिन ज्य़ादातर छात्रों का संस्कार पाताल की गहराई की ओर उन्मुख है। ऐसा क्यों हो रहा है? शायद इसके जड़ में हमारा परिवार, समाज और वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का प्रारूप ही है ।
अब रही बात सरकार की। हमारी सरकार शिक्षक से दोयम दर्जे का व्यवहार करती है। हालात यह है कि हर सरकार चाहती है कि कम से कम वेतन में शिक्षक बहाल करे और ऐसा कर वह खुद को सबसे स्मार्ट मानती है। आज का चलन यह है कि हम हर चीज में पश्चिम की ओर देखते हैं , लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा नहीं है। जर्मनी में शिक्षको का वेतन हर सरकारी पदाधिकारी से अधिक है , वहीं अनेक यूरोपीय देश, अमेरिका अपने जीडीपी का बड़ा हिस्सा (जर्मनी- 5.0%, स्विटजरलैंड-5.4%, यूएस-4.9%, यूके-5.6%, फ्रांस-5.5%) शिक्षा पर खर्च करती है। लेकिन, हमारा महान देश भारत अपने जीडीपी का केवल 2.7% (2018 ई.) खर्च करती है। [सारे डाटा विकिपीडिया से लिए गए हैं]।
हमारी सरकार को शिक्षक के पेशा को आकर्षक बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए। मुख्यत: शिक्षक के वेतन को प्रशासनिक अधिकारी (आईएएस, आईपीएस ) के समकक्ष रखना चाहिए ताकि शिक्षक अपना सारा ध्यान शिक्षा और छात्र पर केंद्रित कर सकें। हम विकसित भारत की कल्पना वर्तमान शैक्षिक स्थिति में नहीं कर सकते हैं। शिक्षक, छात्र, समाज और सरकार में अन्योंयाश्रित संबंध होते हैं। एक भी अगर अपने दायित्व से विमुख हुआ तो यह ढांचा बिगड़ सकता है। अभी तो हर कड़ी ही अपने स्थान से विमुख है। अतः एक को नहीं हम सभी को मिलकर इस स्थिति को सही करना होगा तभी हम अपने राष्ट्र को उन्नत राष्ट्र बना सकते हैं और डॉ राधाकृष्णन को एक सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं ।
अंत में मैं यही कहना चाहती हूं कि जो प्रेम और सम्मान मां को मुन्नवर राणा की शायरी में देखने को मिलती है वही प्रेम और सम्मान हमें अपने जीवन में शिक्षक को देना चाहिए।
(पूजा कुमारी दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा रह चुकी हैं।)
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अच्छा लिखा है
सुन्दर प्रयास….?