लक्ष्मण राव की पुस्तक दंश जोकि सामाजिक घटनाओं पर आधारित प्रेरणात्मक उपन्यास है। यह उपन्यास के कवर पेज पर लिखा गया है, वास्तव में यह उस पर खरा भी उतरता है। दंश की कहानी को पढ़कर पाठक जगत बीच में रुकना नहीं चाहेगा। वह पूरी पुस्तक पढ़ लेने के बाद अपने आपको कहीं न कहीं किसी किरदार के रूप में रखकर देखेगा जरूर।
आज जबकि किताबों में कथानक के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा हो। शब्दों का अकाल हो। साहित्य को सड़कछाप बनाकर केवल बेचने की कोशिश की जा रही हो तो ऐसे में लक्ष्मण राव जैसे लेखकों के द्वारा लिखी किताबों को पढ़ने की जरूरत पड़ती है, जहां राव के कथानक में शब्दों की मर्यादा और आदर्शवाद का अनुपम उदाहरण मिलता है। इस दंश की कहानी कई जगह आपको भावुक भी करने पर मजबूर करती है। कभी भी रोकती नहीं, हर पैरा के बाद एक सवाल छोड़ती है, इससे पाठक की उत्सुकता कहानी को पूरा करने में लगातार बनी रहती है।
क्या है कहानी में
1947 के विभाजन का दंश सहते हुए एक परिवार का महाराष्ट् पहुँच कर हालात का सामना करना। साथ ही पंजाब के गबरू नौजवान परमजीत का पढ़ने की चाह में घर से दूर जाना फिर वहां जाकर नौकरी करना यह सब दंश को काफी अच्छे से परिभाषित करती है।
एक नायिका पात्र के रूप में लता मैडम हैं जिनका परिवार के सहारे के लिए अविवाहित रहना और छोटी बहन नन्दिनी का प्रेम में टूटकर शारीरिक व मानसिक संताप से गुजरना, सूरज का अपनी प्रेयसी से विवाह न हो पाना क्योंकि एक मंदिर के पुजारी को बेटी की खुशी उसके प्रेम में नहीं बल्कि अपनी जाति के वर में दिखलाई दे रही है। यह सब कहानी को काफी नया मोड़ देता है। एक पात्र प्रो. सरदार बलवंत सिंह जी है जिनका कमाल का व्यक्तित्व है। वह एक शिक्षक हैं जो पंजाब से आकर पुणे में शिक्षा विभाग में ऊंचे पद पर हैं। अपने शिष्य परमजीत को आगे पढ़ने के लिए अपनी पहुंच व सम्बंधों की दम पर फर्ग्यूसन महाविद्यालय, पुणे में न सिर्फ प्रवेश दिलवाते हैं बल्कि उसके एक अजनबी शहर में रहने खाने की व्यवस्था में भी पूरा सहयोग करते हैं।
कथानक की खास बात कि कैसे परमजीत जो मुख्य पात्र के रूप में हैं वह अमीर घर की बेटी से शादी कर लेते हैं जबकि वह एक दुकान पर नौकर हैं। यह सब कैसे होता है कोई बहुत बड़ी अतिशयोक्ति नहीं है क्योंकि यह वास्तविक कहानी है जो लक्ष्मण ने अपने आसपास के लोगों को जोड़कर पात्र का रूप दे दिया है।
इस पुस्तक को कैसे पढ़ें
दंश को इसलिए पढ़ें कि यह जानें कि लाख कठिनाइयों के होने के बाद भी कैसे अंतिम पन्नें में कहानी में सब कुछ अच्छा हो गया। इस उपन्यास को अमेजन पर जाकर ऑनलाइन खरीद सकते हैं या दिल्ली के हिंदी भवन के पास फुटपाथ पर लगे लक्ष्मण राव के स्टॉल से खुद उन्हीं के हाथों ले सकते हैं। पुस्तक में 240 पेज हैं और यह हार्ड कवर में उपलब्ध है।
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कौन हैं लक्ष्मण राव
लक्ष्मण राव साहित्यकार हैं ऐसा लगेगा जब आप किताब देखेंगे। लेकिन, वास्तविक जीवन में वह हिंदी भवन के पास फुटपाथ पर चाय उबालते हैं औऱ उसी के साथ पठन पाठन कर शब्दों को पन्नें में बड़े साजो सज्जा के साथ उतार लेते हैं, जिसे सामने चाय की चुस्कियां लेता इंसान ठीक से समझ भी नहीं पाता। मगर जैसे ही वह चाय की ठिया के बगल में अपनी नजर दौड़ाता है तो उसे किताबों के ढेर देखने को मिलेंगे साथ ही यह भी देखने को मिलेगा कि वह खुद चाय वाले की हैसियत से वहां बैठते हैं किन्तु वह अपनी पहचान साहित्य के बल पर बड़े बड़े स्कूल, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, मीडिया और सरकार तक बना रखे हैं। उन्होंने अब तक 25 से अधिक किताब प्रकाशित करा लिया है।
-प्रभात
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