सब्र चाहिए मुझे
परेशां हूँ
निकलता हूँ
अपने डेरे से रोज
उसके लिए
कहाँ मिलेगा
ये सब्र
सब्र चाहिए मुझे
मन अपने गति से
भी अधिक
ढूंढ़ता है उसे
पूरी दुनिया
देखता है मन
पूरे सब्र से
लेकिन सब है
बस नहीं है
वो ही
सब्र नहीं है
कहाँ ये सब्र
सब्र चाहिए मुझे
सब कहते हैं
सब्र से रहो
सब्र से खाओ
सब्र से पीओ
सब्र से घूमो
सब्र से जीओ
सब्र से पढ़ो
इश्क़ में सब्र रखो
सब्र से चलो
सब्र से चिंतन करो
कहाँ ये सब्र
मुझे चाहिए सब्र
पोथी भी पढ़ी
वो भी सब्र से
सुना है
ये सब्र को
समझा देती है
यहाँ भी
मन अपनी गति में
सब्र न रखा
फिर न मिला मुझे
तो बस वो ही सब्र
कहाँ है ये सब्र
सब्र चाहिए मुझे
फिर से सोचा
घूमते हैं जहाँ
पढ़ते हैं पोथी
लेकिन सबके बाद
मिला सच में
सब्र के रूप में
एक सब्र का सच
सब सब्र देते हैं
सब सब्र बताते हैं
सब्र मिलता है
अपने आप से
अपने सब्र से
अपने आत्म से
अपने सोच से
अपने भ्रम
उसे खत्म करने से
मिलता है सब्र
सच को सब्र से
सुनने में
अब यही है सब्र
अभी मिला है सब्र
ढूंढ़ लिया है सब्र
अब नहीं छूटेगा
ऐसा सब्र
मुझे चाहिए था सब्र
अब सब्र से हूँ
बस यही तो है सब्र
(रचनाकार अंकित चौरसिया दर्शन-विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी रिसर्च स्कॉलर हैं)
Amazing yaar creation??
Its True …
Great