शौक शोक में तब्दील हो रहा है….
किसी चीज़ का शौक़ होना बुरी बात नहीं है लेकिन, उसकी अति कई दफ़ा नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करती है। ये शौक़ कई दफ़ा शक़ को जन्म देते हैं और शक़ शोक को।
अब वाट्सएप को ही ले लीजिए। वाट्सएप न जाने क्या कुछ हो गया है हमारे लिए। वाट्सअप यानि हमारे आस-पास क्या कुछ चल रहा है, ये सब कुछ हमें वाट्सएप से ही पता चलता है (या हम वाट्सएप से ही पता करते हैं)। वाट्सएप ख़बरे जानने के लिए अख़बार हो गया है, ज्ञान बांटने के लिए यूनिवर्सिटी, आंदोलन के लिए राम लीला मैदान हो गया है…ख़तोकिताबत के लिए डाकख़ाना हो गया है। कुछ लोग यहां आई बात पर यकीन करते हैं, उन्हें वाइरल करते हैं, और कईयों का बहुत कुछ छीन लेते हैं…
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने इस संवेदनशील मुद्दे पर एक लघु फिल्म बनाई है। फिल्म का नाम है ख़त। केतन दीक्षित, इरा ख़ान और मोहम्मद सिद्दीक़ी ने इसका निर्देशन किया है। ये तीनों पत्रकारिता के विद्यार्थी हैं। उनकी यह लघु फिल्म पत्रकारिता में वाइरल हो रही फ़ेक न्यूज़ की बीमारी को रोकने का प्रयास है।
फिल्म की कहानी
फ़िल्म में एक ही मुख़्य किरदार है, जिसे बाकि के सहायक किरदार बाबा नूर कहकर बुलाते हैं। ख़त पाकिस्तान के मशहूर लेख़क की कहानी बाबा नूर से प्रेरित है जिसे आज के दौर के हिसाब से दिख़ाया गया है। फ़िल्म वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया के माध्यम से वायरल हो रही फेक न्यूज़ की समस्या को उजागर करती है।
फ़िल्म बताती है कि किस प्रकार लोग ऐसी ख़बरों को देख़कर (क्योंकि पढ़ने की आदत जा चुकी है) भीड़ बन जाते हैं। इस भीड़ में उनका विवेक दब जाता है। वे इन्हें सच मान बैठते हैं और जब तक असल सच सामने आता है तब-तक कोई न कोई लिंच किया जा चुका होता है।
फिल्म का मुख्य किरदार बाबा नूर पिछले 5 वर्षों से अपने बेटे के ख़त का इंतज़ार कर रहा है। गांव के युवा जिन्हें वाट्सएप और गपशप से फ़ुरसत नहीं है, उन्हें पागल समझते हैं, उनका मज़ाक उड़ाते हैं। वहीं बुज़ुर्ग लोग जो अब भी रेडियों से न्यूज़ सुनते हैं, उन्हें बाबा से हमदर्दी है। बाबा का मज़ाक उड़ाने पर वे इन युवाओं को डांटते हैं। आख़िर में पता चलता है कि उनका बेटा यूसुफ़ पांच साल पहले मारा जा चुका है। किसी भीड़ ने उसे मार दिया था।
बेहद रोचक हैं फ़िल्म के दृश्य
फिल्म में कई दृश्य हैं जो बेहद रोचक हैं। ये हालिया हाल बयां करते हैं। इनमें फेक न्यूज़ और लिंचिंग से जुड़ी कई घटनाओं का ज़िक्र मिलता है। मसलन यूनेस्को द्वारा भारतीय राष्ट्रगान को सबसे श्रेष्ठ राष्ट्रगान घोषित करने का झूठ, या यूसुफ़ को ट्रेन में मार दिया जाना….क्यों? क्योंकि उस पर शक़ था कि वह अपने साथ बीफ़ लेकर सफ़र कर रहा था।
चूंकि फिल्म को अहमद नदीम क़ासमी की कहानी बाबा नूर से प्रेरित बताया गया है, इसलिए कुछ दृश्य और डायलॉग इस कहानी से लिए गए हैं। मसलन फिल्म का शुरुआती दृश्य जिसमें बच्चे बाबा नूर को देख़कर हंसते हैं, उनका मज़ाक उड़ाते हैं और फ़िर एक बुज़ुर्ग आकर उन्हें समझाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह क़ासमी की कहानी बाबा नूर शुरू होती है। वहीं फ़िल्म का वो डायलॉग जब बाबा नूर कहते हैं, “ठीक ही तो कह रहा है, डाकख़ाने ही तो जा रहा हूँ…” भी क़ासमी की कहानी से ही लिया गया है…
आगरा अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के लिए चुनी गई है फ़िल्म ख़त
इस फ़िल्म को अंतर्राष्ट्रीय शॉर्ट फिल्म और डॉक्यूमेंट्री फेस्टिवल फिल्मसाज़ 2019 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म चुना गया है। साथ ही इसे आगरा अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के लिए भी चुना गया है।
यूट्यूब पर भी इस फिल्म को रिलीज़ किया गया है। बहुत ज़्यादा लोगों ने नहीं देख़ी है, क्योंकि लोग अकसर वट्सएप पर वाइरल हो रही चीज़ो को देख़ना ज़्यादा पसंद करते हैं।
कॉलेज के नौजवान विद्यार्थियों ने बिना किसी ख़ास सुविधा के ये फ़िल्म बनाई है। इसलिए ज़्यादा नुक़्स निकालने की बजाए देख़नी चाहिए, देख़ लीजिए। पढ़ने का शौक़ तो रहा नहीं, देख़ ही लीजिए, और फ़िर कुछ भी फॉरवर्ड करने से पहले सोचिए, जांच कीजिए, कि आपके वाट्सएप पर जो मैसेज आया है, उसमें कितनी सच्चाई है।
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