बात-बात में निकलते, साला-साली शब्द।
देवनागरी हो रही, देख-देख निःशब्द।।
अगर मनुज के हृदय का, मर जाये शैतान।,
फिर से जीवित धरा पर, हो जाये इंसान।।
कमी नहीं कुछ देश में, भरे हुए गोदाम।
खास मुनाफा खा रहे, परेशान हैं आम।।
बढ़ते भ्रष्टाचार को, देगा कौन लगाम।
जनसेवक को चाहिए, काजू औ’ बादाम।।
आज पुरानी नीँव के, खिसक रहे आधार।
नवयुग की इस होड़ में, बिगड़ गये आचार।।
नियमन आवागमन का, किसी और के हाथ।
जाना तो तय हो गया, आने के ही साथ।।
प्यार और नफरत यहाँ, जीवन के हैं खेल।
एक बढ़ाता द्वेष को, एक कराता मेल।।
प्रस्तुत दोहा के रचयिता डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक” हैं जो जाने माने साहित्यकार और ब्लॉगर हैं।
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