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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के आरक्षण संबंधी अध्यादेश लाने को लेकर लिखा खुला पत्र

तस्वीरः गूगल साभार

ऑल इंडिया यूनिवर्सिटीज एंड कॉलेजिज एससी, एसटी ओबीसी टीचर्स एसोशिएशन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुला पत्र लिखा है, जिसमे केंद्रीय, राज्य व मानद विश्वविद्यालयों के अलावा अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षकों के आरक्षण संबंधी प्रस्तावित अध्यादेश जल्द से जल्द जारी करने की मांग की गई है। आरक्षण संबंधी अध्यादेश न आने से देशभर के विश्वविद्यालयों के एससी, एसटी और ओबीसी शिक्षकों में इसको लेकर गहरा असंतोष व्याप्त है। एसोसिएशन का कहना है कि पिछले एक दशक से केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की स्थायी नियुक्तियां न होने से खाली पदों की संख्या बढ़ती जा रही है।

एसोसिएशन के नेशनल चेयरमैन व डीयू की विद्वत परिषद के सदस्य प्रो. हंसराज ‘सुमन ‘ने बताया है कि यूजीसी के 5 मार्च 2018 को जारी सर्कुलर के अनुसार सभी केंद्रीय, राज्यों और मानद विश्वविद्यालयों ने यह निर्देश दिये थे कि विश्वविद्यालय/कॉलेज 200 पॉइंट पोस्ट बेस रोस्टर के स्थान पर डिपार्टमेंट वाइज रोस्टर बनाकर नियुक्तियां करें। यूजीसी के इस सर्कुलर के आने के बाद सबसे ज्यादा नुकसान एससी, एसटी के उम्मीदवारों का हुआ है। उनका कहना है कि जो डिपार्टमेंट बहुत छोटे हैं जिनकी संख्या 6 से कम है वहां पर केवल 1 पद ओबीसी कोटे का बनता है। ऐसी स्थिति में एसटी समुदाय से आने वाले उम्मीदवारों को कभी भी आरक्षण का लाभ नहीं मिल पायेगा।

प्रधानमंत्री को लिखे खुले पत्र में प्रो. सुमन ने बताया है कि यूजीसी से अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में कुछ ऐसे संस्थान है जिनमे आरक्षण नहीं दिया जाता, यदि आरक्षण दिया जाता है तो केवल असिस्टेंट प्रोफेसर तक जबकि यूजीसी दिशानिर्देश 2006 में एसोसिएट प्रोफ़ेसर और प्रोफ़ेसर, डीन, डायरेक्टर, रजिस्ट्रार, प्राचार्यों आदि पदों पर आरक्षण की बात करता है, लेकिन कुछ संस्थानों में आरक्षण की बुरी स्थिति है। उनका कहना है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से वर्ष 2005 से 2010 के बीच विश्वविद्यालयों/कॉलेजों में शिक्षकों के आरक्षण संबंधी आदेशों और दिशा निर्देशों में अनेक अनियमितताएं तथा खामियां नजर आती हैं। उन्होंने सवाल उठाया कि मैनेजमेंट, मानविकी विषयों में एसोसिएट प्रोफेसर व प्रोफेसर के पद अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी ) के लिए आरक्षित हो सकते हैं किंतु आईआईटी, आईआईएससी ,आईआईएम, आईआईएसईआर ,एनआईटीई तथा एनआईटी, एमपीए, आईआईएसईआर में आरक्षित क्यों नहीं हो सकते? मानव संसाधन विकास मंत्रालय का इस संदर्भ में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है। इन संस्थानों में नेशनल लॉ विश्वविद्यालयों आदि में जो कि अन्य मंत्रालय द्वारा शासित है किंतु मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा नहीं। इन संस्थानों में आरक्षण नीति संबंधी कोई दिशा निर्देश नहीं है।

प्रधानमंत्री को लिखे खुले पत्र में उन्होंने यह भी बताया है कि न तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय और न ही ये संस्थान आरक्षण नियमावलियों को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करते हैं, जो कि आरटीआई के नियमों का भी उल्लंघन करते हैं। ऐसा करना सूचना अधिकार अधिनियम 2005 ओएम-1/6/2011-आईआर ,दिनांक 15/4/2013 तथा दिनांक 22/9/2014 में डीओपीटी द्वारा जारी सर्कुलर का उल्लंघन है। हमे यह भी ज्ञात हुआ है कि सरकार कभी भी जब अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) के आरक्षण संबंधी नीति पर चर्चा करनी हो या लागू करना है तो राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (नेशनल कमीशन फ़ॉर शेड्यूल्ड कास्ट) राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (नेशनल कमीशन फ़ॉर शेड्यूल्ड ट्राइब) से परामर्श नहीं लेती जो कि संविधान के अनुच्छेद 338 (9) का सीधा-सीधा उल्लंघन है।

विश्वविद्यालयों से आरक्षित वर्गों की सीटें गायब, शिक्षकों में दहशत

प्रो. सुमन ने यह भी बताया है कि इसके अलावा आरक्षण संबंधी नीतियों पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के कल्याणार्थ संसदीय समिति की भी अनदेखी करती है खासतौर से केंद्रीय विश्वविद्यालयों जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के मामले में।

उनका यह भी कहना है कि सामाजिक न्याय का सिद्धांत भी कहता है कि सभी को प्रतिनिधित्व मिले इसके लिए जरूरी है कि अध्यादेश लाने के समय राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग व अनुसूचित जाति, जनजाति के कल्याणार्थ संसदीय समिति से परामर्श लिया जाए और ठीक इसी तरीकों से रजिस्ट्रार, लाइब्रेरियन, फाइनेंस ऑफिसर, परीक्षा नियंत्रक आदि को एक समहू में लाकर नियुक्तियों के संदर्भ में आरक्षण का लाभ देना चाहिए।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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