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सावन के चढ़ते ही मेहंदी के रंगों का खुमार, जानिए क्या है इन दिनों खास  

-चंदा गुप्ता 

29 जुलाई से सावन की शुरुआत हो गई है, ऐसे में हर ओर रंग भी बदला नजर आ रहा है। सड़कों पर नज़ारा देखते ही बनता है किसी ओर से बारिश की बौछार के साथ कावरियों की बोल बम की गूँज तो किसी ओर नए नए कपड़ों में सजकर श्रृंगार किये हुए महिलाओं की भीड़।

भगवान के शिव के सबसे प्रिय माह सावन का पहला सोमवार 30 जुलाई को था। वैसे तो भगवान शिव को प्रसन्न् करने के लिए पूरे श्रावण माह में विशेष पूजा की जाती है, लेकिन सोमवार का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि सोमवार के प्रतिनिधि ग्रह चंद्र और देवता शिव हैं। भगवान शिव ने अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण किया हुआ है, इसलिए सोमवार की पूजा से शिव की कृपा प्राप्त होती है और जन्मकुंडली में बुरे प्रभाव दे रहे चंद्र की भी शांति होती है।

हिंदु महिलाओं के लिए सावन का यह महीना इसलिए भी खास होता है क्योंकि यह उनके सोलह श्रृंगार को पूरा करता है। महिलायें हरे कांच की चूडिय़ां और मेंहदी से हाथों को सजाती हैं। सावन में जब चारों ओर हरियाली फैली हो ऐसे में भारतीय महिलाएं भी अपने साजो-श्रृंगार में हरे रंग का खूब इस्तेमाल करती हैं और जब महिलाओं के श्रृंगार की बात हो रही हो और उसमें मेहंदी की बात न हो तो बात अधूरी रह जाती है, सावन में मेहंदी लगाने का विशेष महत्व है।
मान्यता है कि जिसकी मेहंदी जितनी रंग लाती है, उसको उतना ही अपने पति और ससुराल का प्रेम मिलता है। मेहंदी की सोंधी खुशबू से लड़की का घर-आंगन तो महकता ही है, लड़की की सुंदरता में भी चार चांद लग जाती है। इसलिए कहा भी जाता है कि मेहंदी के बिना दुल्हन अधूरी होती है।
अक्सर देखा जाता है कि सावन आते ही महिलाओं की कलाइयों में चूड़ियों के रंग हरे हो जाते है तो उनका पहनावा भी हरे रंग में तब्दील होता है। ऐसे में मेहंदी न हो तो बात पूरी नहीं होती है। यही कारण है कि राजधानी में सावन के आते ही मेहंदी के छोटे से लेकर बड़े दुकानों में लड़कियों और महिलाओं की भीड़ लगी रहती हैं।

मंदिरों में हो रही जमकर भीड़

भगवान भोलेनाथ से श्रावण का महीना, रूद्राभिषेक और कांवड़ का उत्सव आंखों के सामने आता है। आईये जानते हैं कि कांवड़ यात्रा कब शुरू हुई, किसने की, इसका क्या उद्देश्य है कि इन दिनों मंदिरों में जमकर भीड़ होती है-

अलग-अलग जगहों की अलग मान्यताएं रही हैं, माना जाता है कि सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ लाकर “पुरा महादेव”, में जो उत्तर प्रदेश प्रांत के बागपत के पास मौजूद है, गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाकर उस पुरातन शिवलिंग पर जलाभिषेक, किया था। इसी परंपरा का अनुपालन करते हुए सावन में गढ़मुक्तेश्वर, जिसका वर्तमान नाम ब्रजघाट है, से जल लाकर लाखों लोग श्रावण मास में भगवान शिव पर चढ़ाते हैं।

उत्तर भारत में भी गंगाजी के किनारे के क्षेत्र के प्रदेशों में कांवड़ का बहुत महत्व है। राजस्थान के मारवाड़ी समाज के लोगों के यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ के तीर्थ पुरोहित जो जल लाते थे और प्रसाद के साथ जल देते थे, उन्हें कांवड़िये कहते थे। ये लोग गोमुख से जल भरकर रामेश्वरम में ले जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते थे। यह एक प्रचलित परंपरा थी। लगभग 6 महीने की पैदल यात्रा करके वहां पहुंचा जाता था। इसका पौराणिक तथा सामाजिक दोनों महत्व है। इससे एक तो हिमालय से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण देश की संस्कृति में भगवान का संदेश जाता था। इसके अलावा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की लौकिक और शास्त्रीय परंपराओं के आदान-प्रदान का बोध होता था। परंतु अब इस परंपरा में परिवर्तन आ गया है। अब लोग गंगाजी अथवा मुख्य तीर्थों के पास से बहने वाली जल धाराओं से जल भरकर सावन में शिव का जलाभिषेक करते हैं।

बैजनाथधाम, झारखंड में रावणेश्वर लिंग के रूप में स्थापित है। सावन तथा भाद्रपद मास में लाखों श्रद्धालु कांवड़ यात्रा करके इनका जलाभिषेक करते हैं। इस धार्मिक उत्सव की विशेषता यह है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र धारण करते हैं और बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सबको एक ही भाषा में बोल-बम के नारे से संबोधित करते हैं। दरभंगा आदि क्षेत्रों के यात्री कांवड़ के माध्यम से भगवान का अभिषेक बसंत पंचमी पर करते हैं। सर्वप्रथम उत्तर भारत से गए हुए मारवाड़ी परंपरा के लोगों ने इस क्षेत्र में यह परंपरा प्रारंभ की थी।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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