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जसिंता केरकेट्टा की तीन कविताएं

1.

प्रेम में ‘दो’ हो जाना

 

प्रेम में आदमी

क्यों ‘एक’ हो जाना चाहता है?

अपनी भिन्नता के साथ

क्यों ‘दो’ नहीं रह पाता है?

 

इस ‘एक’ की चाहत में वह

प्रेम को हथियार में बदलता है

और जीवन भर….

अपने साथी पर हमला करता है

प्रेम कहां उसकी ताक़त बन पाता है?

 

इधर देश के प्रेम में कुछ लोग

सबको ‘एक’ कर देना चाहते हैं

जो ‘एक’ न हो पाए, वे मारे जाते हैं

 

प्रेम के नाम पर

सबको ‘एक’ करने की चाहत में

वे मनुष्य भी नहीं रह पाते हैं

 

हम प्रेम में हमेशा ‘दो’ बने रहे

धीरे-धीरे जाना और हर बार

एक दूसरे को अद्भुत पाया

एक  दूसरे की ताक़त को सराहा

कमियों को रास्ता दिखाया

हमारे रास्ते अलग रहे पर हम साथ चले

 

कभी-कभी लगता है

वह मुझे, मुझसे ज्यादा जानता है

मैं खुद को ठीक से जानने के लिए

उस तक जाती हूं और वह

खुद को जानने के लिए मुझ तक आता है ।

 

 2.

जो तुम्हारा है वह स्टेशन पर खड़ा है

 

मैं हमेशा सफ़र पर होती

और वह हमेशा स्टेशन पर

आधी रात, भोर या दिन-दोपहर

हर बार वह मिलता मुझे स्टेशन पर…

मेरा इंतज़ार करता हुआ

शायद बिना कुछ कहे चुपचाप

इसी तरह मुझसे प्यार करता हुआ

 

मुझे लगता मेरा प्यार कहीं दूर है

कभी न कभी उस तक पहुंचना ज़रूर है

 

और मैं हमेशा उस तरफ़ भागती

वह मेरा सामान ढोकर

कभी छोड़ने के लिए, कभी लेने के लिए

खड़ा रहता अक्सर उसी स्टेशन पर…

 

मैंने अपनी चाहतों के सारे किस्से

सिर्फ़ उससे ही साझा किए

वह किसी स्त्री की तरह

सारे किस्से अपनी गांठ में रखता

जो कभी भी नहीं खुलते

वह हमेशा चुप रहता

बस साथ-साथ चलता

जैसे चलता हो कोई साथी या सहयात्री

 

मैं पूछती उससे

कैसे पता चलता है

कि कोई सचमुच प्यार करता है?

वह कहता

असल प्रेम में जब कोई होता है

वह मां की तरह हो जाता है

 

एक दिन मैंने मां से भी पूछा

कैसे पता चलता है

कि कोई सचमुच प्यार करता है?

मां ने कहा

प्रेम कहां कुछ मांगता है ?

वह तो सिर्फ़ परवाह करता है

 

तुम जहां उसे छोड़ कर जाती हो

वह सालों से वहीं तो रुका है

प्रेम तक पहुंचने के लिए ट्रेन की क्या ज़रूरत?

जो तुम्हारा है वह स्टेशन पर खड़ा है ।

 

3.

मैं देशहित में क्या सोचता हूं

 

मैं एक साधारण सा आदमी हूं

व्यवसाय करता हूं

रोज अपने फ्लैट से निकलता हूं

और देर रात फ्लैट में घुसता हूं

बाहर पहरा बिठाए रखता हूं

 

टीवी देखता हुआ सोचता हूं

कश्मीर में सभी भारतीय क्यों नहीं घुस सकते ?

 

अच्छा हुआ सरकार ने 370 हटा दिया

और ये आदिवासी इलाके?

ये क्या बाहरी-भीतरी लगाए रखते हैं?

 

वहां भी सभी भारतीय क्यों बस नहीं सकते?

 

मैं तो दलितों को जाहिल

और आदिवासियों को जानवर समझता हूं

मुस्लिम और ईसाई को देशद्रोही

और इस देश से इन सबकी सफ़ाई चाहता हूं…

 

मैंने कभी जीवन में…

गांव नहीं देखे, बस्ती नहीं देखी

झुग्गी नहीं देखे, जंगल नहीं देखे

मैं किसी को भी ठीक से जानता नहीं

मुठ्ठी भर लोगों को जानता-पहचानता  हूं

 

जिन्हें मैं भारतीय मानता हूं

और चाहता हूं

ये भारतीय हर जगह घुसें

और सारे संसाधनों पर कब्ज़ा करें

 

देशहित में यही सोचता हुआ

अपनी फ्लैट में घुसता हूं

बाहर पहरा बिठाए रखता हूं

मेरे सुकून और स्वतंत्रता में दख़ल देने

यहां कोई घुस न पाए

इस बात का पूरा ध्यान रखता हूं ।

 

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

जसिंता केरकेट्टा
पत्रकार और आदिवासी कवयित्री

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