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वर्तमान भौतिकी परिवेश में समस्त विश्व अगर किसी समस्या से ग्रस्त है तो वह है ‘असंतुलित पर्यावरण’

21 वीं सदी के शैशवकाल से ही मानव अपनी भौतिक अभिलाषाओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संपदा का अतिविदोहन कर रहा है। आज असंतुष्ट मानव अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के दोहन के लिए अपने ही जीवन के सहायक जल, जंगल व जमीन और वन्यजीव-जंतुओं का अतिविदोहन कर प्रकृति व मानव के तारतम्य संबंध को तोड़ रहे हैं। प्रकृति मानव जीवन का आधार है। प्रकृति मानव की मूलभूत आवश्यकताएं भोजन, वस्त्र व मकान ही नहीं अपितु समस्त आवश्यक वस्तुएं मानव को जीवन पर्यंत उपहार स्वरूप प्रदान करती है। वर्तमान में औद्योगिकीकरण के भंवर-जाल में फंसता मनुष्य प्रकृति के घटकों पर अनावश्यक प्रहार कर अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए असुरक्षित जीवन का माहौल पैदा कर रहा है। प्रकृति व मानव की तारत्म्यता विश्रंखलित सी प्रतीत हो रही है। वर्तमान में कटते दरख्तों की कराह को अनदेखा कर मनमुखी मानव चौतरफा कंक्रीट के जंगल तैयार कर रहा है। ऐसे में जीवन में सुमंगलता कि आशा व्यर्थ सी प्रतीत हो रही है। वृक्षों के विनाश से बढ़ता तापमान उससे पिघलते ग्लेशियर व वर्षा की कमी और वन्य जीव जंतुओं के अस्तित्व पर संकट बन गया है। औद्योगिक प्रगति के सहायक कल-कारखानों से निकलती प्रदूषित वायु से प्राणवायु में घुलता जहर व इन्हीं का बहता अपशिष्ट नदी-नालों व नहरों में जल को प्रदूषित कर हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है। मानव नैसर्गिक वातावरण को छोड़ अपने ऐस-ओ-आराम के लिए कृत्रिम वातावरण की ओर अभिमुखि की हो रहा है। इनसे विसर्जित होती विषैली गैंस से ओजोन परत में छिद्र बढ रहा है, जिससे समस्त विश्व पर ग्लोबल वॉर्मिंग के काले बादल मंडरा रहे हैं। आज संपूर्ण विश्व ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे से चिंतित है। इसी खतरे को सदियों पहले ही अनेक पर्यावरणविदों, तत्ववेत्ताओं व संत और धर्मात्माओं ने भांप मानव को पूर्व में ही इसके प्रति आगाह किया, जिनमें प्रमुख है सद्गुरु जांभोजी

मध्य सदी में मरुधरा मैं सद्गुरु जांभोजी द्वारा जल, जंगल व जमीन और जीव-जंतुओं के संपोषण युक्त विचारधारा का प्रतिपादन किया गया। विचारधारा के अनुपालन के विष्णोइ(बिश्नोई) कहलाए। जांभोजी का बोध प्रकृति के सन्निकट अधिक रहा। उन्होंने अपनी दूरदर्शिता से पर्यावरण संरक्षण को लोगों की मनोवृत्ति से जोड़ने का प्रयास किया। जांभोजी ने सामाजिक सुख शांति एवं विकास का आधार पर्यावरण संपोषण व रक्षण को माना। उन्होंने पहले-पहल विचारधारा के अनुपालकों को जल की महत्ता व परिशुद्धता बताते हुए पाहल (मंत्रित जल) दिया और उन्हें पंथ में दीक्षित किया। सद्गुरु जांभोजी हरे वृक्षों की महता उद्गार करते हुए कहते है : ‘हरी कंकेड़ी मंडप मैड़ी जहां हमारा वासा” अर्थात् यह हरा कंकेड़ी का वृक्ष जहां हम विराजित हैं उसी में हमारा वास है। फिर कहते हैं ‘मोरे धरती ध्यान वनस्पति वासो ओजु मंडल छायो’. इन शाश्वत सूक्तियों में पर्यावरण रक्षण का गुढ ज्ञान भरा पड़ा है। विश्नोई पंथ की संहिता में जांभोजी ने जगत् कल्याण से ओतप्रोत नियम (पंथ आधार) का समावेश कर पंथ के अनुयायियों को प्रकृति व पर्यावरण संरक्षण से जोड़ा।

पर्यावरण रक्षण व संपोषण संबंधी नियम जो जांभाणी पंथ के आधार है-

“पानी वाणी ईंधणी इतना लीजो छाण’…

पानी को हमेशा छानकर ही प्रयोग में लेवें। पानी को छानकर प्रयोग में लेने से स्वास्थ्य संबंधी विकार नहीं होंगे। इसी समय इस संबंध में संत श्री केसोजी कहते हैं

‘हर दिन जल छाणण को हुंदो, जीवाणी जल राखै जुदो

सो पहुचावो नदी निवाण्य, जल छाण्यो चड़िसी परवाण्य

यह नियम जीव दया व मानव स्वास्थ्य अभिरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

वाणी को हमेशा हृदय रूपी छाननी से छानकर ही बोलें जिससे वातावरण में भाषिक जहर (सांस्कृतिक प्रदूषण) न फैलें।

ईंधन का प्रयोग करते समय हमेशा उन्हें झिड़क कर ही प्रयोग में लें, जिससे उनके चिपके कीट-पतंगों को बचाया जा सके।

जीव दया पालनी यह नियम संसार के समस्त जीवों के प्रति दया भाव उत्पन्न करता है। अहिंसा जगत् शांति का आधार है। जांभोजी जीव हिंसको को चेतन करते हुए कहते है “जीवां ऊपर जोर करीजै।

अंतकाल होयसी भारी”

कहा भी गया है

हिंसा हूंता हिंसा फळे निमळ धरम री साख

जीव दया हे पालणी देह हित धरम राख

हरे वृक्षों को न काटना: हरे वृक्ष में भी प्राण होते हैं। तभी तो ये फलते-फूलते हैं। वृक्षों से हमें प्राणवायु मिलती है। इसके साथ ही वो हमें सदैव फल, फूल व सूखी लकड़ियां और छाया आदि उपहार स्वरुप देत हैं। वृक्षों को धरती पर जीवित देवों की संज्ञा दी गई है। अतः इन्हें कदापि नहीं काटना चाहिए वृक्षों को न काटने के संबंध में सद्गुरु जांभोजी ने कहा ‘सोम अमावस आदिवारी कांय काटी बन रायो’. मानव द्वारा दिनभर के क्रियाकलापों द्वारा पर्यावरण में होने वाले बदलाव की पूर्ति हेतु यज्ञ का महत्व बताते हुए सद्गुरु जांभोजी कहते हैं ‘होम करीलो दिन ठाविलो’. जांभाणी साहित्य में सर्वत्र प्राकृतिक संपदा के रक्षण व पोषण संबंधी उदाहरण मिलते हैं…। इतना ही नहीं जांभोजी की वाणी के अनुसरणकर्ताओं ने पर्यावरण संरक्षण के मूल वृक्ष व वन्य जीवों की रक्षा हेतु अनेक अहिंसात्मक रूप से आत्मोत्सर्ग किये है, जिनमें “खेजड़ली का साका” प्रमुख है। विश्वभर में एक साथ इतने लोगों का वृक्षों को बचाने के लिए अहिंसात्मक आत्मोसर्ग की यह पहली पहल घटना है जो विश्व को पर्यावरण संरक्षण के महत्व बताने में परिपूर्ण है। पंथ की स्थापना से लेकर वर्तमान तक समय-समय पर प्रकृति हितार्थ बिश्नोईयों ने अपने शिर्ष मस्तिष्क अर्पित कर जंभवाणी की ज्योति जला रखी है, जिसके तप से धीरे-धीरे ही सही संपूर्ण विश्व में मैं अलग जगी है। प्रकृति की रक्षा ही उसकी वृद्धि का आधार है। वर्तमान प्रोद्योगिकी युग में आज समस्त विश्व असंतुलित पर्यावरण से त्रस्त हैं। ऐसे में जंभवाणी की प्रासंगिकता और बढ़ी। आइए हम जंभवाणी की अलग-जगह जगह कर मानव जीवन में सुमंगलता लाने का प्रयास करें।

-जय खीचड़

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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