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यूपी चुनाव परिणाम: क्या अन्य मुद्दों के अलावा ईवीएम ने भी सपा का बिगाड़ा खेल?

यूपी सहित 5 राज्यों के चुनाव परिणाम आते ही तय हो गया कि कौन इस बार अपनी सरकार बना रहा है। यूपी, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने जीत दर्ज की है। जबकि पंजाब में आम आदमी पार्टी इस बार सरकार बना रही है।

ये रहे चुनाव परिणाम

यूपी चुनाव परिणाम में सीटों की संख्या की बात करें को यूपी चुनाव में 403 सीटों में से 255 सीटें बीजेपी को, अपना दल को 12 सीटें, निर्बल भारतीय शोषित हमारा आम दल (निषाद पार्टी) को 6 सीटें मिली हैं, जबकि सपा को 111 सीट, रालोद को 8 सीट और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को 6 सीटें मिली हैं। इसके अलावा जनसत्ता दल लोकतांत्रिक को 2 सीट, बसपा को 1 सीट और कांग्रेस को 2 सीट मिली हैं।

यूपी के अलावा गोवा में 40 सीटों में से बीजेपी ने 20 सीटें, कांग्रेस को 11 सीटें, आप ने 2 सीट, गोवा फॉरवर्ड पार्टी को 1 सीट, 3 सीट अन्य को, महाराष्ट्रवादी गोमंतक को 2 सीट, रिवोल्यूशनरी गोअंस पार्टी को 1 सीट हासिल हुई। मणिपुर में बीजेपी ने 60 विधानसभा सीटों में से 32 सीट हासिल की। जबकि यहां कांग्रेस को 5 सीटें ही मिलीं।

उत्तराखंड की 70 सीटों में से बीजेपी को 47 सीटें, कांग्रेस को 19 सीटों पर संतोष करना पड़ा।

पंजाब में आम आदमी पार्टी ने 117 सीटों में से 92 सीटों पर प्रचंड बहुमत हासिल किया है। कांग्रेस ने 18 तो वहीं बीजेपी ने 2 सीटें ही पाई हैं।

यूपी में बीजेपी सरकार मगर उप मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने अपनी सीट गवाईं

यूपी में बीजेपी की शानदार जीत के बाद भी उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या सहित राज्य के 11 मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा।

सिराथू में भाजपा के उम्मीदवार यूपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को सपा के डॉ पल्लवी पटेल ने 7337 मतों से पराजित कर दिया। इसके अलावा गन्ना मंत्री सुरेश राणा शामली जिले की थाना भवन सीट पर रालोद के अशरफ अली खान से 10000 से अधिक मतों से हार गये।

ग्राम्य विकास मंत्री राजेंद्र प्रताप सिंह उर्फ मोती सिंह प्रतापगढ़ जिले की पट्टी सीट पर सपा के राम सिंह से 22051 मतों से हार गये। राज्यमंत्री चंद्रिका प्रसाद उपाध्याय चित्रकूट सीट पर सपा के अनिल कुमार से 20876 मतों से पराजित हो गये।

राज्य मंत्री आनन्‍द स्‍वरूप शुक्‍ला को बलिया जिले की बैरिया सीट पर समाजवादी पार्टी के जयप्रकाश अंचल ने 12,951 मतों से पराजित किया।

बलिया जिले की ही फेफना सीट पर खेल मंत्री उपेंद्र तिवारी समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार संग्राम सिंह से 19,354 मतों से पराजित हुए। समाजवादी पार्टी की उषा मौर्या ने फतेहपुर जिले की हुसैनगंज सीट पर भाजपा उम्मीदवार और राज्‍य सरकार के मंत्री रणवेन्द्र सिंह धुन्नी को 25,181 मतों से पराजित कर दिया।

औरैया जिले की दिबियापुर सीट पर राज्‍य मंत्री लाखन सिंह राजपूत समाजवादी पार्टी के प्रदीप कुमार यादव से मात्र 473 मतों के अंतर से पराजित हुए। विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार माता प्रसाद पांडेय ने सिद्धार्थनगर जिले की इटवा सीट पर बेसिक शिक्षा मंत्री सतीश चंद्र द्विवेदी को 1,662 मतों से हराया। गाजीपुर सीट पर राज्यमंत्री संगीता बलवंत को समाजवादी पार्टी के जयकिशन ने 1692 मतों के अंतर से पराजित किया।

मंत्रियों की हार की वजह क्या है?

हार की तमाम वजहों पर विश्लेषक अपनी राय दे रहे हैं। यूपी सरकार के कामों को लेकर आम जनमानस में बदलाव को लेकर आकांक्षा तो दिखती है। मगर इस बदलाव में यूपी सरकार को हटाने को लेकर लोगों के अंदर वो जोश नहीं दिखा जो दिखना चाहिये। यानी इस बार योगी की लहर नहीं थी। वहीं अखिलेश यादव की सरकार बनाने के लिए वोट तो दिये गए। लेकिन योगी सरकार को हटाने की लहर जनता के बीच उस तरीके से नहीं दिखी जो सत्ता परिवर्तन कर सके। शायद इसलिए ही योगी और अखिलेश के बीच कांटे की टक्कर भी देखी गई। मगर कई जगहों पर अखिलेश यादव बहुत कम वोटों के अंतर से सीट नहीं हासिल कर पाये। बीजेपी को हटाने के लिए कोरोना कुप्रबंधन, आवारा पशुओं, किसान आंदोलन, महंगाई, बेरोजगारी रही, वहीं विपक्ष के पास मुद्दे बिजली मुफ्त, कर्मचारियों की पुरानी पेंशन बहाली का मुद्दा, रोजगार ज्यादा बना।

जबकि भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा राशन वाली योजना से मिलता दिखाई दिया। वहीं बसपा से कुछ वोटों का भाजपा में मिलना भी बताया जा रहा है। इसके अलावा सपा के वोटों में बसपा के वोट बैंक का साथ न मिलना के साथ ओवैसी और अन्य कारणों से वोटों में कटौती भी हुई।

वोट फीसद से क्या पता चलता है?

बीजेपी को 403 में से 255 सीटों पर जीत मिली है बीजेपी का वोट प्रतिशत 41.29 रहा। इस जीत के बाद बीजेपी 37 साल बाद पहली ऐसी पार्टी बन गई जो लगातर प्रदेश में 2 बार सरकार बनाने में सफल हुई है। इससे पहले आखिरी बार 1985 में नारायण दत्त तिवारी लगातार सरकार बना पाए थे।

वहीं दूसरी ओर समाजवादी पार्टी को भी 403 में से 111 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफलता मिली है, अखिलेश यादव की अगुवाई वाली सपा को 32.06 प्रतिशत वोट मिला है। मायावती की बसपा को 1 और प्रियंका गाँधी वाड्रा की अध्यक्षता में कांग्रेस को 2 ही सीटों से संतुष्टि करनी पड़ी हैं।

यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि बसपा का वोट शेयर 12.88 फीसद है। इसका मतलब बसपा के पारंपरिक वोट बीजेपी में चले गये हैं। ऐसा अनुमान लग रहा है।

2017 के चुनाव में बीजेपी को 403 में से 312 सीटों पर कामयाबी मिली थी ,और समाजवादी पार्टी को कुल 47 सीटों पर ही बमुश्किल जीत हासिल हुई थी।  

2017 में मोदी लहर का जो असर था वो इस बार थोड़ा फीका नज़र आया हालांकि बीजेपी ने बहुमत हासिल किया है लेकिन इस जीत के साथ ही बीजेपी को इस बार लगभग 50 सीटों का नुकसान भी हुआ है। दूसरी ओर समाजवादी पार्टी को हार के बावजूद एक अच्छी बढ़त भी मिली है। सपा को लगभग 65 सीटों की बढ़त मिली है।

ईवीएम क्यों बन रहा मुद्दा

बीजेपी की इस जीत को विपक्षी नेता चुनाव आयोग से मिलीभगत और ईवीएम में धांधली का आरोप लगा रहे हैं। ईवीएम धांधली के मामले में सोशल मिडिया पर एक ऑडियो क्लिप भी वायरल हो रही है, दरअसल इस 9 -10 मिनट की ऑडियो क्लिप में एक चुनाव अधिकारी किसी से ईवीएम बदल  देने की बात कर रहा है, जिसमें वो खुद को गाजीपुर में कासिमाबाद का अधिकारी  बता रहा है, दूसरा शख्स उस से कहता है कि क्या आपको ईवीएम बदले जाने का नहीं पता। इस पर चुनाव अधिकारी कहता है कि एसओ ने नौकरी जाने की बात कही तो क्या करता। इस पर चुनाव अधिकारी कहता है कि ये तो करीब-करीब हर बूथ पर हुआ है। आगे वो कहता है कि सपा का माहौल है लेकिन उनका सरकार में मुश्किल लग रहा है। जो हो रहा है, उस से साफ है कि बीजेपी की सरकार बनने जा रही है।

इस संदर्भ में अखिलेश यादव ने ट्वीट किया है कि, “ईवीएम बदले जाने को लेकर एक चुनाव अधिकारी की किसी से बात करने की जो ऑडियो रिकॉर्डिंग सोशल मीडिया पर चल रही है। मा. उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रपति महोदय उसका संज्ञान लें व सरकार संबंधित व्यक्ति को तुरंत संपूर्ण सुरक्षा दें। किसी एक व्यक्ति का जीवन हमारे लिए सरकार बनाने से ज्यादा अहम है।”

सपाध्यक्ष अखिलेश यादव ने 10 मार्च  यानी नतीजों वाले दिन भी अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट करके अपने कार्यकर्तोओं को ईवीएम्  से हो रहे वोटों की गिनती और बूथों पर नजर बनाये रखने की अपील की थी।

यहां देखना होगा कि राष्ट्रपति और उच्चतम न्यायलय इस पर क्या कार्यवाही करता है

अखिलेश यादव ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए ये भी कहा है कि समाजवादी पार्टी विधानसभा चुनाव 2022 के जनादेश को जनता का सम्मान करते हुए स्वीकार करती है। अखिलेश ने कहा कि हर एक छात्र, बेरोजगार युवा, शिक्षक, शिक्षामित्र, पुरानी पेंशन समर्थक, महिला, किसान, मजदूर और सभी शुभचिंतकों को धन्यवाद जिन्होंने समाजवादी पार्टी के प्रति विश्वास जताया है।

समाजवादी पार्टी को हार का सामना तो करना पड़ा है लेकिन गौरतलब है कि जिस तरह से अखिलेश यादव ने बीजेपी जैसी मजबूत पार्टी के सामने अकेले दम पर इस चुनाव को खड़ा किया और 111 सीटों पर जीत दर्ज करके दूसरी बड़ी पार्टी बनी। चुनावों के दौरान अखिलेश ने लगभग सूबे के हर ज़िले में रैलियां की और जनता को सम्बोधित किया, उन जनसभाओं में जनता की भीड़ भी उमड़ उमड़ कर आई नतीजतन सभी राजनीतिक पंडित और मीडिया भी अखिलेश यादव की जीत के दावे करने पर मजबूर थे।

आइये डालते है नजर कि इतने बड़े जनसैलाब के पसंदीदा नेता होने और जन लाभकारी योजनाओं की घोषणा के बावजूद अखिलेश से इस चुनाव को जीतने में कहाँ चूक हुई?

पूर्व मुख्यमंत्री और अपने पिता मुलायम सिंह यादव से अखिलेश यादव ने कई राजनीतिक दावपेंच सीखे लेकिन कुछ ऐसे पहलू रहे जिन पर अखिलेश चूक गए। 2022 विधानसभा चुनाव अखिलेश ने अकेले अपने दम पर वन मैन आर्मी के तर्ज पर लड़ा।  वहीँ अगर बात  करें  करें उनके पिता मुलायम सिंह यादव की तो उनके पास टीम हुआ करती थी जिस टीम में उनके पास समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधि हुआ करते थे। मुलायम की टीम में बेनी बर्मा, आजम खान, अमर सिंह और जनेश्वर मिश्र सरीखे नेता हुआ करते थे जो हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। अखिलेश ने ये पूरा चुनाव वन मैन आर्मी की तरह पूरा किया।

चुनाव अगर बीजेपी जैसी मजबूत टीम से लड़ना है तो उन्हें हर वर्ग का एक नेता तैयार करना होगा जिसकी अपने समाज में अच्छी पैठ हो और वो अच्छा वक्ता हो। अखिलेश कुर्मी समाज के कद्दावर नेता लालजी वर्मा का सही उपयोग नहीं कर पाए, लालजी की कुर्मी समाज में अच्छी पैंठ है।

जातीय समीकरण नहीं बना पाए

2022 विधानसभा चुनाव मुद्दों से ज़्यादा जाति और धार्मिक मुद्दों पर ही केंद्रित था, तो चुनाव को जीतने के लिए एक ऐसी टीम की आवश्यकता थी जिसमें अगड़ी और पिछड़ी जातियों का समावेश हो। लेकिन अखिलेश और सपा ने अपना ध्यान पूर्णरूप से  सिर्फ पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों पर केंद्रित कर दिया। इससे सवर्णों का वोट बैंक सपा के हाथों से फिसल गया। 

लिहाजा बीजेपी से नाराज सवर्ण मतों को साधने में भी वो पूरी तरह से सफल नहीं हो सके।

गठबंधन रहे असफल

अखिलेश ने अब तक तीन गठबंधन किए है 2017 में कांग्रेस के साथ, उसके बाद 2019 में मायावती की बसपा के साथ, 2021-2022 में रालोद के साथ ये तीनों ही गठबंधन अखिलेश को ज्यादा फायदा नहीं दिला सके। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी का वो प्रभाव नज़र नहीं आया जो चौधरी चरण सिंह और अजीत सिंह में था।

ये गठबंधन भी असफल साबित हुआ। जो किसान आंदोलन साल भर चला समाजवादी पार्टी उसका भी ज्यादा फायदा उठा पाने में असफल रही।

 गुंडा राज की छवि

अखिलेश की सरकार आने पर गुंडागर्दी बढ़ जाती है। इस तरह की छवि अखिलेश सरकार की बनी। खासकर सपा कार्यकर्ताओं के इस छवि को अखिलेश यादव तोड़ने में नाकामयाब रहे।

छोटे दल सिमट कर रह गए

अखिलेश ने छोटे दलों को साथ जोड़ा, टिकटों की घोषणा के पहले तक तो ओम प्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान, स्वामी प्रसाद अखिलेश के साथ घूमते नजर आये, लेकिन राजभर चुनावों के दौरान सिर्फ अपने परिवार और समर्थकों तक ही सिमट कर रह गए। दारा सिंह का भी लगभग यही हाल रहा। यानी इनमें से कोई भी अखिलेश के साथ मिल कर लड़ता नहीं दिखा बल्कि अपनी-अपनी जीत सुनिश्चित करने में ही जुट गए। इससे इनकी बिरादरी का जो मत समर्थन था वो पूरी तरह से ट्रांसफर नहीं हो सका।

भाजपा का कट्टर हिंदुत्व की छवि

भाजपा का अयोध्या, काशी और मथुरा के मंदिरों का मुद्दा सपा के जातिगत गठबंधनों को तोड़ने में कुछ हद तक कामयाब हो गया। समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम, एससी और ओबीसी समुदायों के नेताओं के साथ हाथ मिलाकर एक गठबंधन लाया। हालांकि, भाजपा सपा पर “मुस्लिम तुष्टिकरण” का आरोप लगाकर हिंदुत्व का कार्ड अपने पक्ष में खेलने में सफल रही। इस संदर्भ में खासकर पश्चिमी यूपी में जिन मुद्दों ने मुख्य भूमिका निभाई उनमें 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे थे।

बसपा की हार से बीजेपी को फायदा

यूपी के कुल मतदाताओं में दलित 21 फीसदी हैं। मायावती के चुनाव में खुलकर सुनियोजित ढंग से न उतरने साथ ही हर मुद्दों पर आम लोगों के साथ खुलकर न आ पाने की वजह से मायावती के वोटर्स में बिखराव हुआ।

दलितों ने मुफ्त राशन और घरों से जुड़ी केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के कारण भाजपा के साथ जाने का फैसला किया।

हालांकि अखिलेश यादव का दलित नेता चंद्रशेखर आज़ाद (रावण) के साथ संक्षिप्त जुड़ाव भी दलित मतदाताओं के साथ सपा की संभावनाओं को सेंध लगाने में भूमिका निभा सकता था। लेकिन ऐसा हो नहीं सका।

गैर यादव ओबीसी को साथ नहीं ला सके

समाजवादी पार्टी के वोटर्स समीकरण में मुसलमान और यादव यानी एम+वाई संयोजन फिट बैठते हैं। इन समुदायों का अखिलेश यादव को समर्थन प्राप्त हुआ किंतु वे गैर-यादव ओबीसी को भाजपा के बजाय सपा को वोट देने के लिए मनाने में असमर्थ रहे। इसके बजाय कि ओबीसी नेता के चेहरे के रूप में योगी सरकार में मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी चुनाव से ठीक पहले सपा में शामिल हुए। इनमें से स्वामी प्रसाद मौर्य तो अपनी ही सीट फाजिल नगर से चुनाव हार गए। वहीं धर्म सिंह सैनी भी नकुड़ सीट से चुनाव हार गये।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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