भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे लम्बे समय तक चलने वाला आंदोलन, किसान आंदोलन के अंत के दिन की घोषणा किसानों कर दी है. अब हर जगह किसानों के बॉर्डर पर लगे टेंट उखड़ने शुरू हो गए हैं. सिंघु और टिकरी बॉर्डर से एक साथ किसान दिल्ली से पंजाब तक विजय मार्च निकालेंगे।
19 नवम्बर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीनों कृषि कानून की वापसी की घोषणा के बाद सबको भरोसा था कि अब आंदोलन खत्म हो जाएगा। लेकिन उम्मीद के विपरीत किसान नेताओं ने अपनी अन्य माँगों के पूरा होने तक आंदोलन जारी रखने की घोषणा कर दी. संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्य और भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने कहा था कि ‘आंदोलन तत्काल वापस नहीं होगा, हम उस दिन का इंतजार करेंगे जब कृषि कानूनों को संसद में रद्द किया जाएगा। सरकार MSP के साथ-साथ किसानों के दूसरे मुद्दों पर भी बातचीत करें।’ इससे ही संकेत मिल गया था कि आंदोलन अभी बाकी है. इसके बाद सरकार की तरफ से किसानों से एक कमिटी बनाने की बात कही. किसानों ने संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्यों में से एक 5 सदस्यीय कमेटी का गठन किया, जो आगे के सभी मसलों पर सरकार से सीधे बातचीत करेगी। इसके बाद किसान संगठनों ने सरकार को एक पत्र लिखकर अपनी मांगों से अवगत कराया। जिस पर सरकार ने जवाब देते हुए कई मांगों में सुधार करने की मांग करते हुए किसान संगठनों को एक पत्र लिखा। इसी पत्र में कुछ सुधार और अपनी मांगों पर 8 दिसम्बर को सिंघु बॉर्डर पर संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक हुई जिस पर सभी संगठनों ने सहमति जताई और अगर उन मांगों पर सरकार की तरफ आधिकारिक स्वीकृति मिल जाती है तो किसान 9 दिसम्बर को अपना आंदोलन ख़त्म कर देंगे। सरकार की तरफ से 9 दिसम्बर को आधिकारिक श्वेत पत्र मिलने पर संयुक्त किसान मोर्चा सिंघु बॉर्डर पर मीटिंग कर आंदोलन समाप्ति की औपचारिक घोषणा करने वाले हैं।
क्यों और कब शुरू हुआ था आंदोलन
केंद्र सरकार द्वारा 20 और 22 सितम्बर को संसद में तीन कृषि कानून पारित करवाए गए जिन्हें 27 सितम्बर को राष्ट्रपति द्वारा सहमति दी गई. इसके बाद से ही किसान संगठनों द्वारा बड़े स्तर पर इनका विरोध शुरू हो गया. हालाँकि इन कृषि कानूनों को पहले ही अध्यादेश के माध्यम से सरकार ने लागू कर दिए थे, जिनका विरोध मुख्यता पंजाब और हरियाणा के किसानों से शुरू कर दिया था. संसद से कानून पारित होने के बाद ये विरोध प्रदर्शन बड़े स्तर पर होने लगे. किसान संगठनों ने दिल्ली जाकर विरोध दर्ज कराने का निर्णय लिया। 26 नवम्बर को दिल्ली की सीमाओं पर किसानों को रोक दिया गया, जिसमें पुलिस द्वारा लाठीचार्ज, आंसू गैस और पानी की बौछार का इस्तेमाल किया गया. किसानों को दिल्ली आने की अनुमति नहीं दी गई. किसानों ने बॉर्डर पर ही अपना कारवां जमा लिया। किसान संगठनों ने दिल्ली को तीन और से घेर लिया, टिकरी बॉर्डर, गाज़ीपुर बॉर्डर और सिंघु बॉर्डर। आंदोलन का असर देश भर में हुआ जिससे और राज्यों के किसान भी इस आंदोलन से जुड़ते गए जिसमें प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश के किसान शामिल हुए. हालांकि आंदोलन को समर्थन दक्षिण राज्यों के किसानों से भी बड़े स्तर पर मिला।
पूरे एक साल क्या क्या हुआ
इसके बाद हाईवे जाम को लेकर तमाम तरह की बातें हुई. कृषि कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी याचिकाएं दायर हुईं. सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों पर रोक लगा दी. इसके बाद सरकार ने किसान संगठनों से बातचीत का फैसला किया। दोनों के बीच 11 दौर की बातचीत हुई, लेकिन कुछ हल नहीं निकला। किसानों ने 26 जनवरी को राजधानी दिल्ली में परेड निकाली जिसमें बहुत हंगामा हुआ और कुछ हिंसक वारदातें भी घटीं। इसके बाद सरकार ने बातचीत बंद कर दी और लम्बे समय तक किसान बॉर्डरों पर बैठे रहे. इसके बाद किसानों ने सत्ताधारी दल को चुनावी राजनीति से चुनौती देने की कोशिश की. किसान संगठनों ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ चुनाव प्रचार किया। इसका असर चुनाव परिणामों में भी देखने को भी मिला। इसके बाद किसानों ने हर चुनाव में यही रणनीति अपनाने की बात कही. अभी देशभर में हुए विधानसभा और लोकसभा उपचुनाव में भी बीजेपी को झटका लगा. संसद सत्रों के दौरान भी किसानों ने संसद तक मार्च किये और महिला किसानों ने अपनी किसान संसद का आयोजन भी किया। उत्तर प्रदेश सहित पंजाब के भी विधानसभा चुनाव 2022 में होने वाले हैं इसको देखते हुए किसानों ने बीजेपी को वोट पर चोट देने की बात की। किसानों ने अपना विरोध प्रदर्शन केवल दिल्ली की सीमाओं तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि इस मुख्य आंदोलन के इतर कई अन्य बिंदु बन गए।
लखीमपुर और करनाल में किसानों के ऊपर बर्बरता से दबाव बढ़ा
दिल्ली की सीमाओं के इतर कई आंदोलन समानान्तर खड़े हो गए। यूपी, पंजाब, हरियाणा जैसे कई राज्यों में बीजेपी नेताओं का घेराव कर किसानों ने सरकार पर दबाव डालने का प्रयास किया। इसके प्रत्युत्तर में किसानों के ऊपर लाठियां भी चलीं, किसानों की मौत भी हुईं और उनके ऊपर प्रशासन की ओर से बर्बरतापूर्ण दबाने का काम भी हुआ। इतना ही नहीं बीजेपी नेताओं ने खुद ही किसानों से निपटना शुरू किया और खुलेआम आंदोलन को कुचलने का प्रयत्न भी किया। इसका परिणाम हमें हरियाणा के करनाल में प्रशासन का किसानों बर्बरता वाला कांड और यूपी के लखीमपुर में गृह राज्य मंत्री की गाड़ी से कुचलकर किसानों की हत्या कर देने का मामला सामने आया।
क्या किसान आंदोलन सफल रहा?
निःसन्देह किसान आंदोलन सफल रहा. उनकी सबसे बढ़ी मांग कृषि कानूनों को सरकार ने वापस लिया, इसके अलावा आंदोलन के दौरान हुए मुक़दमे भी वापस लिए जाने को सरकार राजी हो गई. आंदोलन के समय जिन किसानों ने जान गवाईं उन्हें मुआवजा देने के लिए भी सकारात्मक रुख दिखाया है. बिजली बिल और पराली को लेकर सरकार किसानों से बात कर हल ढूंढेगी। दूसरी सबसे बड़ी मांग एमएसपी को लेकर थी. इसपर सरकार ने एक कमिटी बनाने का प्रस्ताव दिया था, जिसमें संयक्त किसान मोर्चा के सदस्य भी शामिल होंगे। इस मांग को किसानों ने स्वीकार कर लिया है.
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