पुलिस के ऊपर बड़ी जिम्मेदारी किस तरह से बढ़ गई कि अब सीधे कानून को हाथ में लेकर एनकाउंटर कर देना पड़ रहा है। पहले न्यायिक सक्रियता की बात होती थी। अब पुलिस सक्रियता की बात होनी चाहिए। ज्यूडिशियल सिस्टम नाकाम हो गई है। इसलिए शायद पुलिस को ही सबकुछ करना पड़ रहा है। पुलिस होश में आई है। लेकिन यह कोई पहला मामला नहीं है जब किसी पुलिस एनकाउंटर पर सवाल उठे हैं। इससे पहले भी कई मामले सामने आए हैं, जिसमें पुलिसिया कार्रवाई सवालों के घेरे में रही हैं।
लोग टेलीविजन से लेकर सोशल मीडिया, सड़क से लेकर संसद तक जश्न मना रहे हैं। मिठाइयां खिला रहे हैं। बधाइयां दे रहे हैं। खूब दीजिए बधाइयां लेकिन क्या इससे ही सारे आरोपियों को सजा मिलने जा रही है। अब सेंगर और चिन्मया को भी उड़ा दो। प्रज्ञा ठाकुर, अमित शाह सब पर ही आरोप लगे हैं। क्या पुलिस इन पर भी इसी तरह कार्रवाई करेगी।
दुख इस बात का है अब आप भूल जाएंगे कि उन्नाव में कैसे जलाया गया उस लड़की को और फिर उसकी कैसे मौत हुई इस तरह न जाने कितनों के साथ रेप की घटनाएं होती हैं औऱ बिना सजा के आरोपी घूम रहे होते हैं।
आप भूल जाएंगे कि कैसे विरोध प्रदर्शन करने वाले प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज होता है। भूल जाएंगे कि पुलिस क्यों नहीं करती मदद, भूल जाएंगे कि आप का एफआईआर लिखा गया था कभी या नहीं? लेकिन आप अब भी पुलिस को हीरो बताएंगे। रेयान स्कूल मसला याद है न कैसे झूठा आरोप लग जाता है औऱ असली आरोपी बाहर हो जाता है। क्यों नहीं इससे सीख लेते।
भूल जाएंगे कि कोई और अपराध होते भी हैं या केवल एक ही अपराध है यही? क्या लोकतांत्रिक सरकार ने अपना बहुमत का इस्तेमाल नहीं कर सकती थी? क्या कोई कानून या नियम के अंतर्गत ये सब नहीं किया जा सकता था? फैसले को मुठभेड़ न ही बताइये, अगर इस देश मे कोई कानून नहीं है तो कानून के हिसाब से इस केस को सुलझाने की कोशिश क्यों हो रही है? आपको यानी पुलिसिया तंत्र और सरकार को सही चीज बतानी थी न? कि रामायण क्यों रचा गया, बता देते मार दिया गया जानबूझकर! लेकिन नहीं इस देश में कानून सुधार, पुलिस सुधार, न्याय तंत्र में सुधार की बात करनी बेमानी है। आप लोग तो जश्न ही मनाइये। हो सकता इस जश्न में कम से कम 2012 के निर्भया रेप कांड के बाद 2019 में जगी भीड़ फिर से सो जाएगी। कैंडल मार्च नहीं निकलेगा, अब पिछले निर्भया के बाद ये निर्भया और इन दोनों के बीच शांत। अब उसके बाद अब अगर कोई निर्भया होगी तभी उठिएगा….शायद मालूम नहीं कि कितनी निर्भया हर दिन यूं ही जल रही हैं और किसी को पता नहीं। क्या सबको पुलिस ऐसे ही मार गिरा पाएगी?
लेकिन सवाल यह जरूर बना है कि पुलिस ने साजिश के तहत ये सब रामायण रचा? आरोपी वही थे सच में या दूसरे यह कितना सत्य है? अगर वही न थे तो असली आरोपी कहीं और घूमेगा तो क्या फायदा हुआ।
दबाव में आकर मार गिराने के लिए संविधान और कानून की जरूरत नहीं पड़ी। और लोगों के सपोर्ट ने पुलिसिया कार्यवाही पर शायद अब जश्न मनाने के सिवा कुछ भी सोचने समझने की शक्ति भी खो दिया होगा। ऐसा क्यों किया गया? सवाल का उत्तर सार्वजनिक कब होगा?
सवाल आरोपी का नहीं है। सवाल यहां बस पुलिस के उस तंत्र से है जो सब कुछ रचता है। जो रहस्य बना देता है, किसी समस्या को सुलझाने के बजाय उलझा देता है। अब अपराध खत्म नहीं होंगे अपराध तो वैसे ही होते रहेंगे। लेकिन राजनीतिक फायदा उठाया जाएगा। और खुश होने वाले मासूम लोगों को एक बार और हथियार बना लिया जाएगा।
लेकिन सबसे अहम बात जिसकी जरूरत है और बात होनी चाहिए कानून में सुधार की, न्यायिक व्यवस्था में सुधार की और पुलिस तंत्र में भी सुधार की ताकि सबको न्याय सयम से और सही मिल सके।
चलिए विस्तार से समझिए इस पूरे मामले को
हैदराबाद डॉक्टर मर्डर केस के चारों अभियुक्तों को पुलिस ने मार दिया है। पुलिस का दावा है कि उन्हें मुठभेड़ में मारा गया है हालांकि चारों अभियुक्त पुलिस हिरासत में थे।
इस घटना की काफ़ी लोग प्रशंसा कर रहे हैं तो काफ़ी लोग आलोचना भी कर रहे हैं। साइबराबाद के पुलिस कमिश्नर वीसी सज्जनार ने प्रेस कांफ्रेंस कर
कहा। शमशाबाद एरिया में 27-28 की रात को वेटनरी डॉक्टर को अगवा कर, सेक्शुअली एसाल्ट कर, मर्डर कर यहां जलाया गया था। इसके बाद हमने चार लोगों को 30 नवंबर को गिरफ्तार किया था और उन्हें चेल्लापली मजिस्ट्रेट के सामने भेजा गया। हमें इन चारों की दस दिन की पुलिस हिरासत चार दिसंबर को मिला। इन लोगों ने बताया कि पीड़िता का फ़ोन, घड़ी और पावर बैंक इत्यादि इधर छुपाया था। हम लोग उसकी तलाशी के लिए इधर आए थे। हमारे दस पुलिसकर्मी उनके साथ थे। हम उन्हें अपराध की जगह लेकर आए थे। यहां पर अभियुक्तों ने पुलिस पर हमला कर दिया है, उन्होंने हमारे दो पुलिसकर्मियों से हथियार भी छीन लिए और गोली चलाने लगे। सबसे पहले पुलिस पर हमला मोहम्मद आरिफ़ ने किया, इसके बाद दूसरे अभियुक्तों ने भी हमला किया। चेतावनी देने के बाद भी वे थमे नहीं। पुलिस को जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी और उसमें चारों मारे गए। घटना सुबह 5.45 से 6.15 के बीच हुई।
पुलिस इसे एनकाउंटर बता रही है, जबकि कई संगठन इस एनकाउंटर पर सवाल उठा रहे हैं। हलांकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस संबंध में ख़ुद संज्ञान लिया है और एनएचआरसी ने तुरंत एक टीम को घटनास्थल पर जांच के लिए जाने के निर्देश दिए हैं। इस टीम का नेतृत्व एक एसएसपी करेंगे और जल्दी से जल्दी आयोग को अपनी रिपोर्ट सौपेंगे। वहीं तेलंगाना हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया है कि वो चारों अभियुक्तों के शव 9 दिसंबर शाम 8 बजे तक परिरक्षित रखे और उनके पोस्टमॉर्टम का वीडियो कोर्ट में जमा करवाए।
इस बीच मारे गए अभियुक्तों के परिजनों ने कोर्ट में मुक़दमा चलाए जाने से पहले ही पुलिस द्वारा उन्हें मुठभेड़ में मार गिराने पर सवाल उठाए हैं और कहा है कि पुलिस की कहानी पर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की बात करें तो इसके मुताबिक 01 जनवरी 2015 से 20 मार्च 2019 के बीच उसे देशभर में फेक एनकाउंटर से जुड़ी 211 शिकायतें मिली हैं। इनमें से सबसे ज़्यादा फ़ेक एनकाउंटर की शिकायतें आंध्र प्रदेश उसके बाद उत्तर प्रदेश में दर्ज की गई हैं। इशरत जहां मामला, सोहराबुद्दीन शेख, तुलसीराम प्रजापति मामला जैसे कई फर्जी एनकाउंटर के मामले पर एनएचआरसी ने कार्रवाई की है।
भारत के कानून में एनकाउंटर नहीं!
भारतीय संविधान के अंतर्गत ‘एनकाउंटर’ शब्द का कहीं ज़िक्र नहीं है। पुलिसिया भाषा में इसका इस्तेमाल तब किया जाता है जब सुरक्षाबल/पुलिस और चरमपंथी/अपराधियों के बीच हुई भिड़ंत में चरमपंथियों या अपराधियों की मौत हो जाती है। भारतीय क़ानून में वैसे कहीं भी एनकाउंटर को वैध ठहराने का प्रावधान नहीं है।
आम तौर पर लगभग सभी तरह के एनकाउंटर में पुलिस आत्मरक्षा के दौरान हुई कार्रवाई का ज़िक्र ही करती है। आपराधिक संहिता यानी सीआरपीसी की धारा 46 कहती है कि अगर कोई अपराधी ख़ुद को गिरफ़्तार होने से बचाने की कोशिश करता है या पुलिस की गिरफ़्त से भागने की कोशिश करता है या पुलिस पर हमला करता है तो इन हालात में पुलिस उस अपराधी पर जवाबी हमला कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एनकाउंटर को लेकर कुछ दिशानिर्देश हैं।
एनकाउंटर के दौरान हुई हत्याओं को एकस्ट्रा-ज्यूडिशियल किलिंग भी कहा जाता है।
एनएचआरसी के दिशानिर्देश
जब किसी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज को किसी पुलिस एनकाउंटर की जानकारी प्राप्त हो तो वह इसके तुरंत रजिस्टर में दर्ज करे।
जैसे ही किसी तरह के एनकाउंटर की सूचना मिले और फिर उस पर किसी तरह की शंका ज़ाहिर की जाए तो उसकी जांच करना ज़रूरी है। जांच दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम या राज्य की सीआईडी के ज़रिए होनी चाहिए।
अगर जांच में पुलिस अधिकारी दोषी पाए जाते हैं तो मारे गए लोगों के परिजनों को उचित मुआवज़ा मिलना चाहिए।
कभी पुलिस पर किसी तरह के ग़ैर-इरादतन हत्या के आरोप लगे, तो उसके ख़िलाफ़ आईपीसी के तहत मामला दर्ज होना चाहिए। घटना में मारे गए लोगों की तीन महीनें के भीतर मजिस्ट्रेट जांच होनी चाहिए।
इस तरह के एनकाउंटर पहले भी, इसलिए उठ रहे सवाल
पुलिस एनकाउंटर के बाद वीसी सज्जनार की कहानी को लोग मनगढ़ंत बता रहे हैं इसके पीछे कई कारण हैं। जिनमें सीन रिक्रिएशन के दौरान पुलिस की लापरवाही और तुरंत बाद इतने कम समय में बिना गोली लगे किसी भी पुलिसकर्मी ने कैसे फायर कर दिया।
तेलंगाना के वरिष्ठ पत्रकार एन वेणुगोपाल राव राज्य के इतिहास का हवाला देकर पुलिस की कहानी पर सवाल उठाते हैं। वो कहते हैं कि हर बार पुलिस की कहानी में इतनी समानता कैसे होती है?
हैदराबाद डॉक्टर रेप केस का ज़िक्र करते हुए एन वेणुगोपाल राव ने कहा कि दिसंबर 2007 में साइबराबाद के पुलिस कमिश्नर और1996 बैच के आईपीएस अधिकारी वीसी सज्जनार ने वारंगल ज़िले में एसिड अटैक के तीन अभियुक्तों को पुलिस हिरासत में इसी तरह क्राइम सीन पर ले जाकर गोली मार दी थी।


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