SUBSCRIBE
FOLLOW US
  • YouTube
Loading

“सामाजिक न्याय का क़ब्रगाह- भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान”

भारतीय ज्ञान-विज्ञान की परम्परा में शिक्षण संस्थानों में सामाजिक शोषण और भेदभाव का पुराना इतिहास रहा है। सवाल यह है कि क्या आज़ाद भारत और बाबा साहब प्रदत्त संवैधानिक प्रावधानों के बाद 70 वर्षों में हालात बदले हैं? अगर बदलाव हुआ है तो वह कितना और किस रूप में? क्या यह महज कागज़ी है? अगर कागज़ी बदलाव नहीं हैं तो आंकड़े क्या कहते हैं? सामाजिक न्याय के लिहाज से हमने अब तक शिक्षा व्यवस्था में क्या हासिल किया है और कितना लम्बा सफर और तय करना बाकी है? इससे बड़ा सवाल यह कि शिक्षा ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को कितना पुष्ट और विस्तार दिया है? अभी कितना कुछ बचा है और किस प्रकार इस संवैधानिक हक़ को प्राप्त किया जा सकता है ? ये वे सवाल हैं जिनके जवाब में ही उच्च शिक्षा और तमाम शिक्षण संस्थानों में सामाजिक न्याय की प्रगति का आकलन सम्भव है।

पुरातन भारतीय शिक्षण -व्यवस्था जो पुरोहितवाद और आश्रम से अधिक वर्णाश्रम पर आश्रित रहा है, वहां सामाजिक न्याय जैसी शब्दावली का प्रयोग लगभग अवांछनीय है। संस्कृत और संस्कृत आधृत वैदिक शिक्षण परम्परा में वर्ण व्यवस्था के आधार पर शिक्षण की बात स्वीकार की गई जहाँ समाज और सामाजिक न्याय जैसी परिकल्पना भी बेमानी है। इस व्यवस्था ने सामाजिक रूप से पिछड़े-दमित वर्गों को सरस्वती (विद्या) के आस -पास फटकने की भी जगह नही दी। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसे में सामाजिक न्याय दूर नही दुःस्वप्न सा नज़र आता है ।

पालि ,प्राकृत से अपभ्रंश काल तक जिसे क्रमशः बौद्ध, जैन और सिद्धों-नाथों का समय कहा जाता है, वहां भी शिक्षा और शिक्षण व्यवस्था में बहुजनों की हिस्सेदारी और भागीदारी नगण्य ही है।

आदिकाल (1000 ई) के आसपास नाथों के साथ दमित वर्ग अपने आप को शिक्षा के करीब रख पाने में सक्षम जरूर हो जाता है परंतु यह केवल मात्र सांकेतिक ही है ।

मध्यकालीन इतिहास जिसे साहित्यिक दुनिया में भक्तिकाल भी कहा जाता है वहाँ से शिक्षण व्यवस्था में पहली बार बहुजन वर्ग का सीधा और प्रत्यक्ष हस्तक्षेप जरूर नज़र आता है। यह वह समय है जब कबीर, रैदास, आदि कवियों ने न केवल अपने वर्ग को मुखर वाणी दी बल्कि शास्त्र का विरोध कर हर तरह के भेदों को साजिश के रूप में पहचानने की भी पहल की ।

बिना शास्त्र और शास्त्रीय ढांचे को तोड़े शिक्षण व्यवस्था में बहुजनों का आनुपातिक हस्तक्षेप और भागीदारी एक यूटोपिया मात्र है, जिसे पुरोहितवाद ने बारम्बार गढ़ने की कोशिश की है।

उत्तर-मध्यकाल यानी रीतिकालीन साहित्य और दरबारी व्यवस्था में सामाजिक और शैक्षणिक विमर्श की जगह ही नही बचती, न इस इतिहास से कुछ अपेक्षा ही की जा सकती है।

आधुनिक काल में जहां पूरी दुनिया आधुनिकता के पोशाक में लिपटकर विज्ञान, तर्क, प्रश्न और लोकतंत्र आदि विचारों से चमक रही थी, वहां भी भारतीय समाज लगभग सोने का नाटक कर रहा था और हमारा साहित्य भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहकर उसे अंग्रेजों द्वारा उड़ा लेने की खिलाफत में जुटा था। कुल मिलाकर यह दौर औपनिवेशिक गुलामी की दासता से मुक्ति का था। इस मुक्ति संघर्ष में भी बौद्धिक होने/दिखने और साबित करने में शास्त्रवाद और पुरोहितवाद सफल रहा, भले ही ज़मीनी संघर्ष में सर्वाधिक शहादत आदिवासी, दलित और पिछड़ों की हुई।

गांधी-युग और गांधी के नेतृत्व में भी फंडिंग और एडिटिंग का स्वभार लगभग उच्च वर्णों के हाथ ही रही, निश्चित रूप से गांधी को गांधी बनाने वालों में संख्या के हिसाब से ‘बहुजनों’ का दबदबा था।

गाँधी जी के सामाजिक सुधार आंदोलनों में भी नेतृत्व उच्च वर्णों का ही रहा-यह सुयोग है या कुछ और! इस पर टिप्पणी करने का साहस नहीं है, यह शोध का विषय हो सकता है। अम्बेडकर-गांधी मिलन या पूना पैक्ट के साथ इस तथ्य को देखना असंगति नहीं होगी। पूना पैक्ट के साथ पहली बार देशभर में दलित चेतना का प्रत्यक्ष उभार नज़र आता है, जहाँ गाँधी और अम्बेडकर पहली बार परस्पर विरोधी रूप में सामने आते हैं, जाहिर सी बात है कि यह पैक्ट एक नए भारत की ओर इशारा कर रहा था। खैर बापू की नीयत और निगाह पर प्रश्नचिन्ह न लगाया जा सकता है, न तत्कालीन राजीतिक परिप्रेक्ष्य में उसकी सम्भावना हो सकती है। अम्बेडकर की विद्वता और दूरदर्शिता का पहला संकेत पूना पैक्ट के संदर्भ में देखे और समझे जाने की जरूरत है।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान मैकाले की शिक्षा नीति ने बहुजनों के साथ सौतेला व्यवहार किया। यह कहना भी उतना ही सच  होगा जितना यह कहना कि प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन (1857) में मुंडा विद्रोह महज़ चिंगारी थी और असल विद्रोह मंगल पांडेय से शुरू हुआ।

खैर यह बीते भारत की तस्वीर थी , असल खेल तब शुरू होता है जब देश सही मायने में देश बनने की ओर बढ़ रहा था, आज़ादी (औपनिवेशिक गुलामी से) मिलने वाली थी, संविधान बनाया जा रहा था और इस रूप में एक नए भारत की नींव रखी जा रही थी । प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में बाबा साहब अम्बेडकर ने जो सिफारिशें दीं और उनमें से कितने पर सहमति बनी और किन बातों पर असहमति जाहिर हुई और किनके द्वारा की गईं। जब तक यह नहीं जान लेते तब तक आज़ाद भारत में आरक्षण के प्रावधानों को पूर्णतः समझ पाना मुश्किल है। आग्रह है कि आप संविधान सभा की बहसों के लिखित प्रारूप को जरूर पढ़ें।

1950 में संविधान लागू होने के बाद शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति का आरक्षण (नियमित रोस्टर के साथ) लागू हुआ। राजनीतिक आरक्षण का प्रावधान दस वर्षों के समीक्षात्मक नोट के साथ लागू हुआ जो अब तक जारी है, जारी रहेगी, कोई संदेह भी नहीं है। सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर मिल रहा यह आरक्षण शिक्षा और सरकारी नौकरियों में भी लागू जरूर हुआ, भले ही जमीनी स्तर पर इसके असर न पड़े हों। इसमें कहीं भी आर्थिक पिछड़ेपन या दमन का जिक्र नहीं है। जाहिर है कि उच्च शिक्षा में भी यही व्यवस्था अनमने ढंग से लागू हुआ जो अब तक जारी है (तमाम खामियों और संशोधित प्रस्तावों के साथ)। यह बात हुई अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण के संदर्भ में।

अब बात करते हैं पिछड़े वर्गों के आरक्षण के संदर्भ में जो 27 वर्षों के रेपोर्टिकरण के बाद लागू हुआ 1997 में, यहां भी सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को संसद और संविधान ने आधार के रूप में स्वीकृत किया। इस व्यवस्था में भी आर्थिक पिछड़ेपन का जिक्र नहीं था। एक लंबे आंदोलन के बाद यह लागू भी हुआ, लेकिन संख्या के आधार पर देश की आधी आबादी होने के कारण शुरुआत से ही इस व्यवस्था पर यथास्थितिवादियों की टेढ़ी नज़र रही। उच्च शिक्षा और शिक्षण संस्थानों में इसे मनमर्ज़ी नियम के साथ लागू किया गया (डीयू में 2007 की जगह 2013 में), (बीएचयू में अब तक नहीं), आदि ढेरों उदाहरणों से इस तथ्य की सहज पड़ताल की जा सकती है। देशभर में एक भी अति पिछड़ा समुदाय का प्रोफेसर न होना उपरोक्त तथ्य की स्वतः पुष्टि करता है। मंडल आंदोलन से कई नेता उभरे और सत्ता में रहे ,लेकिन बावज़ूद इसके हालात जस का तस बना रहा। आंदोलन से लाभ बस इतना हुआ कि इस पिछड़े वर्गों के लोग पढ़ गए और सीधे सामान्य वर्ग को चुनौती देने में सफल भी हुए, हद्द तो तब हो गयी जब ये लोग तथाकथित सामान्य वर्ग में भी योग्यता के कील गाड़ने शुरू कर दिए, खासकर उच्च शिक्षा में।

जाहिर सी बात है कि यह यथास्थितिवादी व्यवस्था यानी मठों के लिए सीधी चुनौती थी, उन्होंने इसे स्वीकार किया और पुनः अपनी मनुवादी मातृ संस्थाओं यानी न्यायालय, संसद और संस्कृति सम्मत पुरातन मान्यताओं को आगे कर दिया और आरक्षण को मेरिट (गुणवत्ता) से जोड़कर उसके असल प्रारूप पर हमले शुरू किए।

क्रीमीलेयर के प्रावधान और निरतंर होते बदलाव, रोस्टर का मनमर्ज़ी खेल, आर्थिक पिछड़ेपन पर आकर्षण जनित आरक्षण और नवीन ओबीसी आरक्षण व्यवस्था में बदलाव आदि तमाम षड्यंत्र वास्तव में यथास्थितवाद यानी मठों को बचाये रखने की कवायद है- कोई शक?

इस बात को नहीं तथ्य को आप जितना जल्द समझ लें अच्छा होगा, अन्यथा उच्च शिक्षा और उच्च शिक्षण -संस्थानों में पढ़ने और पढ़ाने के सपने /हक़ को खुद से अलग कर लें।

(नोट- यह लेखक के निजी विचार हो सकते हैं। किसी भी विवाद की स्थिति में फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा)

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

डॉ. ज्ञान प्रकाश
असिस्टैंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय

Be the first to comment on "“सामाजिक न्याय का क़ब्रगाह- भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान”"

Leave a comment

Your email address will not be published.


*