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बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी जनता पर पड़ रही भारी

महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, अव्यवस्था, अराजकता, अपराध, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, आदि इत्यादि, आज 2022 के भारत में यह सब चरम पर है. हर तरफ जैसे एक उदासी का माहौल है. एक अंतहीन अंधेरा, जिसे समय दर समय देश के प्रधान इवेंट मैनेजर के द्वारा नए नए करतब दिखा कर छुपा दिया जा रहा है. पूरे देश में लगभग ऐसा ही माहौल है, कि लोग अब लांग टर्म गोल की बात ही करना बंद कर चुके हैं. एक मर्तबा हिस्टोरियन आर एस शर्मा द्वारा कही गयी बात, “यूनिटी इन डाइवर्सिटी (अनेकता में एकता) वाली बात झूठी नज़र आ रही है. देश कई हिस्सों में अंदर ही अंदर खोखला होता जा रहा है.

हर घर मोदी

हर घर मोदी के नारों के बीच अब हमने हर घर जाकर लोगों के दिलों का हाल पूछना बंद कर दिया है. हर घर आज किसी ना किसी समस्याओं से जूझ रहा है, हर घरों की आज अपनी अपनी एक शिकायतें हैं, हर घर आज चीख चीख कर कहना चाह रहा है कि राजनीतिक रैलियों के शोर शराबे में कोई उनकी भी बात सुन ले. संविधान के मूल भावना के साथ आज जमकर खिलवाड़ करने की कोशिश की जा रही है. पंक्ति में खड़ा आखिरी व्यक्ति का अब नंबर आता ही नहीं है. 21वीं सदी में आज हम मॉडर्न साइंस ऐज में आगे बढ़ने की जगह पीछे चले जा रहे हैं. आज सबको अपना अपना पास्ट हाउंट कर रहा है. अच्छे दिन की तलाश में अब बुरे से बुरे दिन में लोग जीना सीख रहे हैं.

सामान्यकरण की ओर

न्यू इंडिया में न्यू नार्मल के तहत हर वो चीज़ को नॉर्मलाइज़ की जा रही है, जिसकी कल्पना भी एक सभ्य समाज को नहीं करनी चाहिए. आज आम आदमी पूरे दिन दो रोटी की जुगत भिड़ाने में ही इतना व्यस्त हो चला है, कि लीज़र टाइम जैसी चीज़े अब सुनहरे सपने जैसे हो गयी है. मशीनी युग में इंसान को ही मशीन समझ लिया गया है, जहां प्रेम, आराम, सपने, सोना, स्वाद, संवाद, घूमना, चहकना, झूमना, गाना, बजाना, किताबें, सितार, कहानियां, विचार, इत्यादि, जैसी चीजों की जगह ही नहीं बची है. ना सोशल सिक्योरिटी और ना ही सुनहरे सपने को लेकर कोई रोडमैप. मजबूरी में मजदूरीयत की कॉन्ट्रैक्ट साइन हो रही है बस. 

लोगों की घटती आय

कोई पूछने वाला नहीं कि जब कोरोना काल में लोगों की आय नौकरी ज़िन्दगी, सब घट और खत्म हो रही थी, तो सत्ता के शीर्ष के साथ पैठ बिठाने वाले सेठ का धन दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही क्यों जा रहा था? 

कहीं कहीं सवाल और विरोध के सुर उठते भी हैं तो उन्हें एड्रेस करने के लिए एक कॉमन प्लेटफार्म नहीं है. कहीं यदा कदा मीडिया अटेंशन मिल भी जाती है तो सिस्टम को भली भांति पता है कि कैसे सबकी चूड़ी टाइट रखनी है.

दूर का चश्मा 

मशहूर धारावाहिक तारक मेहता का उल्टा चश्मा में तारक मेहता का एक डायलॉग है कि, “प्रॉब्लम तो है सबके साथ, बस है नज़रिए की बात.” मगर अफ़सोस कि आज हमारी नज़र ही खराब हो गई है. पूरे देश को जबरदस्ती दूर के चश्मे की जगह नजदीक का चश्मा पहनाया जा रहा है, ताकि लोग आपस में ही उलझे रहें. हिन्दू मुस्लिम से, ब्राह्मण दलित से, गरीब अमीर से एक दूसरे को अपने विरुद्ध लोग टारगेट करना सीख गए हैं.

आखिरी बार कब

अब किसी को इस बात की चिंता नहीं सताती कि बढ़ती महंगाई में बच्चों की पढ़ाई का खर्च कैसे उठाएंगे? बच्चे पढ़ लिख लिए तो क्या उनके भी सपने को किसी अग्निवीर जैसी स्कीम के तहत रौंद दिया जाएगा? देशहित में कहीं उन्हें भी तो बंधुआ मजदूर की तरह घंटों काम करने को कंडीशन तो नहीं की जाएगी? घर में कोई अगर कैंसर जैसे भीषण बीमारी का शिकार हो गया, तो क्या उसके लिए पैसे किस मंदिर मस्जिद के खजाने से आएंगे? आखिरी बार पूरा परिवार कब घूमने गया था? आखिरी बार कब पत्नी के साथ सिनेमा हॉल गए? आखिरी बार कब घर के महीने के आखिरी दिन तक पैसा बचा और अंत में कुछ बचत के लिए भी बच गया? दुनिया का आखिरी पन्ना खत्म हो जाएगा, मगर यह सवाल खत्म नहीं होंगे.

मायाजाल

सवाल जो कि झकझोड़ते हैं, जो भविष्य के लिए डराते हैं, सवाल जो कि सत्ता से सवाल करने को मजबूर करती है. मगर मन की बात वाले वन वे कम्युनिकेशन के दौर में वाजिब सवाल को सामना करने का ट्रेंड खत्म हो गया है. सत्ता के पास कई सारे सवालों के लिए कई सारे बनावटी समस्याओं का मायाजाल है. धर्म खतरे में है, देश खतरे में है, संस्कृति खतरे में है, ऐसे कई मायाजाल में सत्ता आम आदमी को इस कदर फंसा कर रखती है कि संविधान और स्वाभिमान जो कि वाकई खतरे में है, इस पर कोई बात ही नहीं करना चाहता है. 

-अमन कौशिक (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातक है।)

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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