दिल्ली के अंदर दो मुख्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों जेएनयू और डीयू में चुनावी दौर समाप्त हो गया है। जहां जेएनयू में हमेशा की तरह वामपंथी दलों ने विजय हासिल की तो डीयू में भी हर बार की तरह धनबल, बाहुबल समर्थित दलों ने जीत दर्ज की। इस बार दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में लगभग 1 लाख 42 हज़ार विद्यार्थी वोट देने योग्य थे। गौरतलब है कि इस बार वोटिंग प्रतिशत मात्र 39.9 रहा जो कि पिछली बार से कम है। इतनी कम वोटिंग प्रतिशत का मुख्य कारण ये है कि अधिकांश छात्रों में डूसू में जीतकर आने वाले नेतृत्व को लेकर अविश्वास का होना है।
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में जीतकर आने वाले प्रतिनिधियों की नींव ही अगर चॉकलेट, पिज़्ज़ा, वाटर पार्क पर निर्भर हो तो वो क्या ही छात्र हितों के मुद्दों को उठा पाएंगे। यह विडंबना ही है कि देश के मुख्य केंद्रीय विश्वविद्यालय का चुनाव “मुद्दा रहित” होता है। यहां पर छात्रों से सम्बंधित मुद्दों की जगह क्लब पार्टी, वाटर पार्क, चॉकलेट, पिज़्ज़ा, बर्गर की सत्ता कायम है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाले नए छात्रों के पास अवसर कम होता है कि वो सही प्रत्याशी को ठीक से समझ सकें क्योंकि जब वो कॉलेज में जाना शुरू करता है तब तक उसके सामने खम्भों पर लटके बड़े बड़े होर्डिंग,पोस्टरों और महंगी गाड़ियों की एक लंबी कतार की झलक पेश कर दी जाती है, जिससे अधिकांश छात्र इस चकाचौंध से प्रभावित हो जाते है और अपने वोट का सही स्थान चुन लेते हैं। इस संदर्भ में सबसे अहम जिम्मेदारी होती है कॉलेज परिसर के वरिष्ठ और अनुभवी विद्यार्थियों की क्योंकि अपने एक दो साल के अनुभव से वो ये अच्छी तरह समझ चुके होते हैं कि असल मायने में कौन सा छात्र संगठन वाक़ई में छात्र हितों के लिए संघर्ष करता है और कौन सा छात्र संगठन बरसाती मेंढक की तरह सिर्फ चुनाव के समय नज़र आता है। लेकिन, असल विडंबना ये है कि ये “समझदार छात्र” निराशा से भर चुके होते हैं और वोट डालने में यकीन नहीं रखते और इसी वजह से वोटिंग प्रतिशत हमेशा कम ही रहता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हर छात्र को ये बात समझना जरूरी है कि जो छात्र संगठन उन्हें मात्र एक चॉकलेट के बहाने लुभाने की कोशिश कर रहे हैं दरसअल उनका छात्र राजनीति को लेकर कोई विज़न ही नहीं होता,ऐसे संगठन वैचारिक रूप से शून्यता से परिपूर्ण होते हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में मुद्दे गायब हो चुके हैं, चॉकलेटवादी राजनीति अपनी जड़ जमा चुकी है। प्रवेश लेने वाले नए छात्र इस चकाचौंध को देखते हुए अपना वोट वाटरपार्क में ही डुबो देते है,ये बात जितनी ही सच है उतनी ही कड़वी। हालांकि धनबल, बाहुबल की इस राजनीति के विपरीत कुछ छात्र संगठन ऐसे भी हैं जो बिना चुनाव की परवाह किये पूरे साल छात्रों के साथ उनकी हर समस्या में खड़े होते हैं और छात्र राजनीति में एक उम्मीद पैदा करते है। एक ऐसी उम्मीद जिसमे एक आम छात्र भी डूसू चुनाव में धनबल से दो-दो हाथ करने को तैयार रहता है।
अगर हम चाहते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालयसे भविष्य के लिए ऐसे नेताओं की खेप तैयार हो जो संविधान में विश्वास रखने वाला हो, जो कल्याणकारी कार्यों में अपनी प्रतिबद्धता रखता हो तो जल्द ही एक नए सिरे से शुरुआत करनी होगी। सभी छात्रों को ये दृढ़ निश्चय करना होगा कि जो भी प्रत्याशी आपसे वोट मांगने आ रहा है उसके साथ सवाल जवाब की परंपरा विकसित हो, स्नातक द्वितीय और तृतीय वर्ष के छात्रों को अधिक से अधिक संख्या में वोट के लिए बाहर निकलना चाहिए ताकि वोटिंग प्रतिशत में सुधार हो, अन्य विश्वविद्यालय की भांति डीयू में भी प्रेसिदेन्सीअल् डिबेट की शुरुआत हो और इसके साथ साथ दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन की भी जिम्मेदारी है कि लिंगदोह समिति के नियमों के आधार पर ही चुनाव हों और अगर कोई प्रत्याशी इसका उल्लंघन करता है तो उसकी उम्मीदवारी रद्द कर दी जाय।
अगर दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र राजनीति को अपंग होने से बचाना है, धनबल और बाहुबल वाली पारंपरिक राजनीति को रोकना है और विचार से परिपूर्ण राजनीति की शुरुआत करनी है तो सभी छात्रों को खुद ये वीणा उठाना होगा तभी डीयू को एक नई दिशा दी जा सकेगी।
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कड़वा सच।
सच्चाई कभी छिपती नही है