वर्तमान हिन्दी कविता लेखन में पेशे से स्वतंत्र पत्रकार जसिंता केरकेट्टा की पहचान आदिवासी कवयित्री के रूप में है। इनकी कविताओं में झारखंड के आदिवासी जनजीवन का स्वर जीवंत है।
जसिंता केरकेट्टा झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के खुदपोस गांव में जन्मी हैं। उरांव आदिवासी समुदाय से हैं। दो कविता संग्रह “अंगोर” आदिवाणी, कोलकाता से और संग्रह “जड़ों की ज़मीन” भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित है। तीसरा संग्रह ” ईश्वर और बाज़ार” राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से शीघ्र प्रकाशित होने वाली है। उनके पहले संग्रह अंगोर का अनुवाद इंग्लिश, जर्मन, इतालवी, फ़्रेंच भाषा में हो चुका है।
जसिंता केरकेट्टा की तीन कविताएं
प्रस्तुत है राजीव कुमार झा के साथ साहित्य और समाज से जुड़े कुछ विचारणीय मुद्दों पर इनकी बातचीत-
आपको आदिवासी कवयित्री के रूप में देखा जाता है। हिंदी में आदिवासी लेखन को इन दिनों एक धारा के रूप में देखा जाता है, इसके बारे में बताएँ। क्या आप खुद को आदिवासी रचनाकार के रूप में देखती हैं ?
हिंदी में आदिवासी लेखन को किस धारा के रूप में देखा जा रहा मुझे इसकी जानकारी नहीं है। और कवि के रूप में अपनी आदिवासी पहचान को लेकर मैं समझती हूं कि एक कवि किसी भी भाषा में लिखता हो, वह एक साथ कई पहचानों के साथ जुड़ा होता है। जितनी अधिक पहचान के साथ वह होता है, अपने लेखन में उतनी अधिक विविधता, विशिष्टता, व्यापकता लेकर आता है, जो आगे चलकर वैश्विक हो जाता है।
सबसे पहले एक कवि इस धरती का मनुष्य होता है। एक मनुष्य के रूप में वह एक ही समय में विश्व, देश, राज्य और अपने समुदाय, भाषा, जेंडर की पहचान भी लिए हुए होता है। इस दृष्टि से देखें तो एक आदिवासी, हिंदी में लिखते हुए भी भारतीय, झारखंडी, आदिवासी और अपने समुदाय की पहचान के साथ हो सकता है। वह हिंदी का कवि होते हुए भी आदिवासी कवि हो सकता है। स्त्री या पुरुष कवि हो सकता है। इसमें कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए।
विश्व के दूसरे हिस्सों में जो आदिवासी अंगरेजी में लिखते हैं, वे अंगरेजी में लिखते हुए भी देशज कवि ही होते हैं। भारत के आदिवासी कवियों के संदर्भ में भी ऐसा कहा जा सकता है। मैं स्वयं को एक आदिवासी स्त्री रचनाकार, जिसके लेखन की भाषा हिन्दी है, के नजरिए से देखती हूं।
आप झारखंड की हैं। आपको हिंदी में आदिवासी लेखन की पहचान से झारखंड के लेखन का क्या संबंध प्रतीत होता है?
मैं कविताएं लिखती हूं, अखबारों के लिए यात्रा वृतांत, आलेख भी लिखती हूं। मेरी कविताएं आदिवासी जीवन दर्शन, उसके मूल्य, आदिवासियों के संघर्ष, इतिहास, उनका प्रकृति से जुड़ाव, स्त्री जीवन, राजनीति सहित मनुष्य जीवन के अलग-अलग आयामों की बात करती हैं। इस देश में, राज्य में, एक मनुष्य के रूप में एक आदिवासी की स्थिति क्या है, क्यों है, इस पर भी सवाल उठाती हैं।
ये कविताएं यह एक ही समय में देश के अंदर आदिवासी मुद्दों की बात करती हुईं वैश्विक भी हो जाती हैं। क्योंकि, दुनिया के दूसरे लोग इन कविताओं से गुजरते हुए उन्हें सिर्फ आदिवासी व्यक्ति की नहीं बल्कि वैश्विक मनुष्य की कविता के रूप में देख रहे हैं। वे भारत और झारखंड के आदिवासियों की स्थिति को समझने के लिए लैटिन अमेरिका के आदिवासियों के संघर्ष को पहले याद करने की कोशिश करते हैं। क्योंकि कई देशों में वे भारत के आदिवासियों की कल्पना नहीं कर पाते क्योंकि उन्होंने उनके बारे कभी नहीं सुना है।
हिंदी साहित्य भी आदिवासी पृष्ठभूमि से आती रचनाओं से और समृद्ध हो रहा है। इससे दूसरे लोग भी आदिवासी समाज का जीवन के प्रति एक अलग नज़रिए को समझने का अवसर मिलता है। आदिवासी समाज के प्रति अपने पूर्व धारणाओं से निकलने का मौका मिलता है। इससे वे उनके संघर्ष और पीड़ाओं को समझ सकेंगे। मनुष्य के रूप में आदिवासियों के हक अधिकार और जल जंगल, ज़मीन के संघर्ष को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सकेंगे। इस संदर्भ में वृहत झारखंड की अवधारणा को भी समझ सकेंगे। कविताओं के माध्यम से मुझे ऐसी ही उम्मीदें हैं।
झारखंड के आदिवासी समुदायों से हिंदी के सरोकारों के संदर्भ में अपने विचार प्रकट करें?
मेरी समझ में अल्पसंख्यकों के नाम पर इस देश का सेक्युलर समाज मुख्यत: मुस्लिमों, ईसाई और उनके मुद्दों पर ही केंद्रित रहता है। उनकी चर्चा करता है। दलितों ने भी वैश्विक स्तर पर अपने साहित्य से अपनी आवाज़ बुलंद की है। पर, वैसे आदिवासी जो किसी संगठित धर्म के तहत नहीं आते, उनकी बातें कोई नहीं करता है। विकास के नाम पर आदिवासियों की प्रताड़ना, माओवादी के नाम पर फर्जी एनकाउंटर, भूख से मौत, गोवंश के नाम पर होने वाली हत्या जैसी बातों पर एक सन्नाटा पसरा महसूस होता है। साहित्य में भी ऐसी ही खामोशी दिखती है।
आदिवासी पृष्ठभूमि से आता लेखन, हिंदी के साहित्य में इन मसलों को, बहस को लाने, रचनाकारों का ध्यान इधर भी खींचने का प्रयास करता है। वृहत झारखंड के आदिवासी मुद्दों, संघर्ष और जीवन को भी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के बीच उठाने का काम करता है। ऐसी ही उम्मीद रखते हए ही मेरा लिखने का काम जारी है। यह लेखन किताबी और काल्पनिक कम, यथार्थवादी ज्यादा है। ताकि लिखा हुआ किताबों तक सिमटा न रहे। लोग इन कविताओं को जी रहे जिंदा लोगों के जीवन को महसूस कर सकें।
हिंदी और अन्य भाषाओं के अपने प्रिय कवियों – लेखकों के बारे में बताएँ ?
हिंदी के वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता “बाज़ार का दिन” ने पहले पहल मुझे बहुत प्रभावित किया था, जिसमें एक आदिवासी लड़की की चर्चा है जो जंगल में बाघ से नहीं डरती, पर उसे गीदम के बाज़ार जाते वक्त डर लगता है। केदारनाथ सिंह की कविताओं ने मुझे बहुत चमत्कृत किया है। चंद्रकांत देवताले की कविताओं ने भी बहुत प्रभावित किया है।
बिरसा मुंडा के संघर्ष और उनकी चेतना की प्रासंगिकता को किस रूप में देखती हैं ?
आदिवासी नायकों ने आदिवासियों की स्वतंत्रता से कभी समझौता नहीं किया और इसके लिए हमेशा संघर्ष किया है। उन्होंने अपने दिशुम को कभी गुलाम होने नहीं दिया। ब्रिटिश शासन से संघर्ष के कारण ही आदिवासियों की जीवन शैली को ध्यान में रखकर अंग्रेजों ने उनके लिए अलग नियम कानून बनाए, जो बाद में संविधान में भी रखे गए। मनुष्यों के जिस समानता, स्वतंत्रता की बात आज होती है, इसके लिए आदिवासियों ने हमेशा संघर्ष किया है। वीर बिरसा मुंडा का संघर्ष भी ऐसे ही सपनों को लेकर था।
वीर बिरसा मुंडा हर काल में प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि उनके संघर्ष के बाद ही लोगों ने आदिवासियों की खूंटकटी और भुईहरी ज़मीन की अवधारणा को समझने की कोशिश की और छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट बना। इससे जमींदार और साहूकारों द्वारा आदिवासी ज़मीन की निर्बाध लूट रोकी जा सकी। आज उनके पास जो थोड़ी बहुत ज़मीन बची है, उसमें इस कानून का बड़ा हाथ है।
अपने माता – पिता, घर परिवार और पढ़ायी के बारे में बताएँ ?
मैं झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले की रहने वाली हूं। इस जिले के मनोहरपुर ब्लॉक के खुदपोस गांव की हूं। पिताजी पुलिस विभाग में थे। इसलिए उनके तबादले की वजह से अलग-अलग जिलों में रहने का मौका मिला। बचपन, अपने गांव के साथ -साथ संताल परगना में बीता। पिताजी ने बाद में पुलिस की नौकरी छोड़ दी। अब वे गांव में ही रहते हैं। मां और दो बड़े भाई हैं। भाभी और उनके बच्चे सभी गांव में ही रहते हैं। मेरे बाद दो छोटी बहनें हैं। एक की शादी हो चुकी है और सबसे छोटी बहन मेरे साथ रांची में रहती हैं।
मैंने चक्रधरपुर स्थित कार्मेल उच्च विद्यालय से मैट्रिक, मनोहरपुर स्थित संत अगस्तीन कॉलेज से इंटर और रांची के संत जेवियर्स कॉलेज से मास कम्युनिकेशन में स्नातक किया है। रांची यूनिवर्सिटी से मास कम्युनिकेशन में एमए किया है। तीन साल तक रांची के एक दैनिक अखबार में बतौर पत्रकार काम करने के बाद अब स्वतंत्र रूप से लिखती हूं।
झारखंड की आदिवासी भाषाओं और उसके साहित्य के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए ?
झारखंड में आदिवासी भाषाओं में काफी कुछ लिखा जा रहा है। पत्रिकाएं भी निकल रही हैं। लेकिन उनका प्रचार प्रसार शहरों में बसे लोगों के बीच कम है। खासकर नई पीढ़ी के बीच, क्योंकि वे तेज़ी से अपनी भाषा भूल रहे हैं। भाषाओं को बचाने के लिए इसमें लिखने, पढ़ने की जरूरत है। इसमें साहित्य सृजन की आवश्यकता है।
झारखंड की आदिवासी कला और संस्कृति के विरासत को किस तरह देखती हैं ?
झारखंड की आदिवासी कला संस्कृति यहां के लोगों की विशिष्ट पहचान की ओर इंगित करती है। यहां की संस्कृति अपने भीतर जीवन दर्शन और मूल्यों को लिए हुए है। उनके ख़त्म होने से वे जीवन मूल्य भी धीरे-धीरे लुप्त होते जाते हैं। इसलिए उनका संरक्षण और साथ ही उनका महत्व भी लोगों के बीच प्रचारित करने की जरूरत रहती है। किसी राज्य की पहचान वहां की कला, संस्कृति से होती है। झारखंड की पहचान भी उनसे ही बनती है, इसलिए उनके संरक्षण और प्रोत्साहन की बहुत जरूरत है।
आजकल के अपने लेखन और अन्य कार्यों के बारे में बताएँ ?
मैं झारखंड के खूंटी जिले के आदिवासी गांवों में आदिवासी लड़कियों की शिक्षा, भाषा संस्कृति के संरक्षण को लेकर काम कर रही हूं। लड़कियों को एकत्र करती हूं। उनसे बातचीत करती हूं और उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हूं। गांव में अभिभावकों के साथ बैठकें करती हूं, ताकि वे घर में बच्चों को पढ़ने का सही माहौल दें। शहर के सक्षम लोगों को इन लड़कियों की उच्च शिक्षा के लिए सहयोग करने के लिए जोड़ने का काम भी कर रही हूं। ग्रामीणों को एकजुट करने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि के आयोजन में सहयोग करती हूं। वर्तमान में अपनी मातृभाषा कुडुख़ सीखने के प्रयत्न में हूं। तीसरा कविता संग्रह ” ईश्वर और बाज़ार” पर काम पूरा हो चुका है, जो राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य है। इधर कहानियों पर भी काम कर रही हूं।
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