तुम मिले
तो कई जन्म
मेरी नब्ज़ में धड़के
तो मेरी साँसों ने तुम्हारी साँसों का घूँट पिया
तब मस्तक में कई काल पलट गए-
एक गुफा हुआ करती थी
जहाँ मैं थी और एक योगी
योगी ने जब बाजुओं में लेकर
मेरी साँसों को छुआ
तब अल्लाह क़सम!
यही महक थी जो उसके होठों से आई थी-
यह कैसी माया कैसी लीला
कि शायद तुम ही कभी वह योगी थे
या वही योगी है-
जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है
और वही मैं हूँ… और वही महक है…
– अमृता
अमृता प्रीतम 20 वी सदी की प्रसिद्ध कवयित्री थी, जो हिंदी और पंजाबी में लिखती थी, इसके साथ ही वो साहित्यकार और निबंधकार भी थीं।
वह अपनी एक प्रसिद्ध कविता, “आज आखां वारिस शाह नु” के लिए काफी प्रसिद्ध है। यह कविता उन्होंने 18 वीं शताब्दी में लिखी थीं और इस कविता में उन्होंने भारत विभाजन के समय में अपने गुस्से को कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया था।
“अज आखां वारिस शाह नू कितों कबरां विचो बोल !
ते अज किताब -ऐ -इश्क दा कोई अगला वर्का फोल !
इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख -लिख मारे वेन
अज लखा धीयाँ रोंदिया तैनू वारिस शाह नू कहन
उठ दर्मंदिया दिया दर्दीआ उठ तक अपना पंजाब !
अज बेले लास्सन विछियां ते लहू दी भरी चेनाब !
किसे ने पंजा पानीय विच दीत्ती ज़हिर रला !
ते उन्ह्ना पनिया ने धरत उन दित्ता पानी ला !
जित्थे वजदी फूक प्यार दी वे ओह वन्झ्ली गई गाछ
रांझे दे सब वीर अज भूल गए उसदी जाच
धरती ते लहू वसिया , क़ब्रण पयियाँ चोण
प्रीत दियां शाहज़ादीआन् अज विच म्जारान्न रोण
अज सब ‘कैदों ’ बन गए , हुस्न इश्क दे चोर
अज किथों ल्यायिये लब्भ के वारिस शाह इक होर
अज आखां वारिस शाह नून कित्तों कबरां विचो बोल !
ते अज किताब -ऐ -इश्क दा कोई अगला वर्का फोल ! “
अमृता प्रीतम की रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ, और 1956 में साहित्य अकादमी, 1969 में पद्मश्री, 1982 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, 2004 में पद्मविभूषण भी दिया गया।
उनकी आत्मकथा ” रसीदी टिकट” के अनुसार उनका विवाह अनारकली बाजार के होजिअरी व्यापारी के बेटे प्रीतम सिंह से हुआ था, लेकिन 1960 में अमृता ने अपने पति को छोड़ दिया और इसका कारण कवि साहिर लुधियानवी के प्रति हो रहे आकर्षक को बताया। साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम का प्रेम बेहद अनोखा था, अधूरी प्रेम कहानी की ऐसी मुक्कमल दास्तान कही और देखने को नही मिलती। साहिर लुधियानवी ने लिखा था
“वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा.”
ये मोहब्बत किसी और कि नहीं साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम की थी। झूठा चाय का कप, जली सिगरेट के टुकड़े और ढेर सारे ख्वाब, अमृता के मोहब्बत की यही जमा पूंजी थी। अपनी आत्मकथा “रसीदी टिकट” में अमृता ने अपने और साहिर लुधियानवी के मुलाकात के बारे में लिखा है
“जब हम मिलते थे, तो जुबां खामोश रहती थी। नैन बोलते थे। दोनों बस एक टक एक दूसरे को देखा किए”
उनकी मुलाकात एक आर्टिस्ट और लेखक इमरोज से हुई उन्होंने अपने जिंदगी के 40 साल इमरोज के साथ गुजारे, इनके जीवन पर एक किताब भी लिखी गयी है ” अमृता इमरोज: ए लव स्टोरी” इमरोज अमृता की जिंदगी में बहुत देर से आये, उन्होंने लिखा है ‘अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते।’
अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त, 1919 को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गुजरांवाला में हुआ था। साल 1980-81 में उन्हें कागज और कैनवास कविता संकलन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। अमृता ने आठ सौ से ज्यादा किताबें लिखी हैं। 31 दिसंबर 2005 को 86 साल की उम्र में उनका निधन हो गया
कार्य-
नॉवेल –
- पिंजर
- डॉक्टर देव
- कोरे कागज़, उनचास दिन
- धरती, सागर और सीपियन
- रंग दी पट्टा
- दिल्ली की गलियाँ
- तेरहवाँ सूरज
- यात्री
- जिलावतन (1968)
- हरदत्त का जिंदगीनामा
आत्मकथा –
- रसीदी टिकट (1976)
- शैडो ऑफ़ वर्ड्स (2004)
- ए रेवेन्यु स्टेम्प
लघु कथाए –
- कहानियाँ जो कहानियाँ नही
- कहानियों के आँगन में
- स्टेंच ऑफ़ केरोसिन
काव्य संकलन –
- अमृत लहरन (1936)
- जिउंदा जीवन (1939)
- ट्रेल धोते फूल (1942)
- ओ गीतां वालिया (1942)
- बदलाम दी लाली (1943)
- साँझ दी लाली (1943)
- लोक पीरा (1944)
- पत्थर गीते (1946)
- पंजाब दी आवाज़ (1952)
- सुनेहदे (सन्देश) (1955)
- अशोका चेती (1957)
- कस्तूरी (1957)
- नागमणि (1964)
- इक सी अनीता (1964)
- चक नंबर चट्टी (1964)
- उनिंजा दिन (49 दिन) (1979)
- कागज़ ते कनवास (1981) – भारतीय ज्नानपिथ
- चुनी हुयी कवितायेँ
- एक बात
साहित्यिक पत्रिका –
- नागमणि, काव्य मासिक
अमृता प्रीतम जिन्होंने न सिर्फ प्रेम किया, उन्होंने प्रेम जिया एक अधूरी कहानी को जो हम सभी के दिलो में हमेशा रहेगी। उनकी ही पंक्तियों के साथ उनकी सौंवी जन्मतिथि पर उन्हें सादर नमन
मैं तुझे फिर मिलूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहींमैं तुझे फिर मिलूँगी!!
-अमृता प्रीतम
Be the first to comment on "अमृता प्रीतम के 100 सालः वो कविताएं जो हर प्रेमी-प्रेमिका के दिलों में बसती हैं"