2 अक्टूबर। गांधी जयंती। 2019 के इस अक्टूबर का यह दूसरा दिन गांधी नामके व्यक्ति को 150 साल का बना देगा। यानी कि सत्य-अहिंसा जैसे उन पवित्र विचारों के 150 साल जिसे हम अपनी सुविधानुसार स्वीकारते हैं। कभी ज्यादा-कभी कम। यह नमक की तरह है। जिंदगी अगर भोजन है तो आप इसमें नमक मिलाएंगे जरूर, मगर स्वादानुसार। अकेले नमक आप खा नहीं सकते। ठीक वैसे ही सत्य-अहिंसा को आप अपना नहीं सकते, लेकिन इससे इनकार भी नहीं कर सकते हैं। राजनीतिक, वैश्विक और सामाजिक स्तरों पर तो यह दोनों मंत्र बहुत बड़े ब्रांड हैं। खूब भुनाए भी जा रहे हैं। दरअसल संक्रमण के इस काल में गांधी के विचारों को मशक्कत नहीं करनी पड़ रही है, लेकिन गोडसे के जरिए हिंसा को जायज ठहराने की कोशिशें जरूर सिर उठाने लगी हैं।
महात्मा के विषय में तो बहुत लिखा-पढ़ा गया है। कई शोध भी हुए हैं। बात जब गोडसे की निकली है तो इसे ही दूर तक ले जाने की कोशिश करते हैं। गांधी के परपोते हैं तुषार, जिन्होंने लेट्स किल गांधी किताब लिखी है, आओ गांधी को मारें। उसी किताब के हवाले वह नाथूराम गोडसे को बयान करते हैं। तुषार गांधी अपनी किताब ‘लेट्स किल गांधी’ में लिखते हैं कि नाथूराम हमेशा परिवार बसाने से इनकार करता था और जब उसकी शादी के रिश्ते आते तो उन्हें नकार देता था। नाथूराम हमेशा ही आदमियों के इर्द-गिर्द रहता था। दरअसल नाथूराम को कुछ लोगों ने संत जैसा होने का भ्रम दिला रखा था, इसलिए वह कुछ हद तक औरतों से भी नफरत करने लगा था।
नाथूराम अगर किसी फिल्म का चरित्र होता तो काफी दिलचस्प होता। इस पीढ़ी ने उसे देखा तो नहीं है, लेकिन कई किताबों जिन पन्नों पर वह दर्ज है, उनके अनुसार वह जल्द ही तुनक जाने वाला और हीनभावना से ग्रस्त था। उसका बचपन कुछ-कुछ अकेलेपन में बीता था, और साथ के लड़के मजाक बनाते थे।
नाथूराम नाम पड़ने के पीछे भी कहा जाता है कि उसे बचपन में नथ पहनाई गई थी। हुआ ऐसा कि जिस मराठी चितपावन कुल के ब्राह्मण परिवार में गोडसे जन्मा, वहां उससे पहले 3 बच्चों की जन्म लेते ही मृत्यु हो गई थी। ज्योतिषी ने उपाय बताया कि यह बालक तभी बचेगा, जब इसका पालन कन्या की तरह हो। माता-पिता ने इसे पत्थर की लकीर मानती हुए बाल गोडसे की बायीं नाक छिदवाकर नथ पहना दी। यह नथ गोडसे को नाथूराम की पहचान दिला गई। जवानी में उसकी नथ तो उतर गई, लेकिन बचपन की हीनभावना ने पीछा नहीं छोड़ा। वह अंतर्मुखी होता गया।
नाथूराम मराठी माध्यम से पढ़ा और अंग्रेजी उसके लिए बड़ी समस्या थी। वह मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं पास कर सका, जिसके चलते उसे नौकरी भी नहीं मिली। एक बार उसे बढ़ईगिरी का काम मिला, लेकिन वह उससे खुश नहीं था तो रत्नागिरी चला आया। यहीं उसकी मुलाकात सावरकर से हुई। एक बार नाथूराम हैदराबाद में हिंदुओं के अधिकारों को लेकर एक रैली निकाल रहा था। इसी दौरान उसे गिरफ्तार किया गया. वह एक साल जेल में रहा. जेल से जब वह छूटा तो लौटकर पूना आया। इसी दौरान सावरकर एक राष्ट्रीय पार्टी बनाने के लिए प्रयासरत थे, इसमें वे केवल मराठी ब्राह्मणों को शामिल कर रहे थे। 1940 में इन्हीं सबके बीच नाथूराम, नारायण डी. आप्टे से मिला, जो हिंदू महासभा के लिए काम कर रहा था। दोनों के बीच कई बातों पर असहमति थी, लेकिन दोनों ताउम्र बेहतरीन दोस्त रहे। इन दोनों ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं की गिरफ्तारी के बाद सावरकर के विचारों पर बने एक दल को ज्वाइन कर लिया। दल में ज्यादातर पूना के ही लोग थे। यह दल कांग्रेसियों के खिलाफ हिंसक गतिविधियों में भी शामिल रहता था और कहा जाता है कि नाथूराम को भी हिंसा की ट्रेनिंग यहीं से मिली। नाथूराम और उसका दोस्त आप्टे इस दल का एक अख़बार भी निकालते थे. और दोनों गांधी को हिंदू विरोधी मानते थे और बेहद नापसंद करते थे।
इसी किताब के अनुसार, इसी बीच नाथूराम और आप्टे मिलकर अपनी पार्टी का जो अख़बार निकाला करते थे, उसपर संकट के बादल मंडराने लगे क्योंकि इंवेस्टर्स पैसा देने से मना कर रहे थे. इसी बीच आप्टे ने नाथूराम को उसका पुराना लक्ष्य याद दिलाया, ‘चलो गांधी को मारते हैं’। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। तुषार की यह किताब निर्णायक नहीं है, लेकिन उन्होंने इसमें लोगों की बातचीत और खींचतान के जरिए उस वक्त का खाका खींचा है, जिसमें जहां गांधी को समझने-मानने वाला पूरा राष्ट्र था, तो इसी बीच-बीच में कहीं गांधी को नापसंद और नफरत करने वाले भी थे। तुषार किताब में एक-एक का नाम दर्ज करते हैं और उन्हें गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार मानते हैं। जिस बंदूक से महात्मा की हत्या की गई उसकी कहानी भी दिलचस्प है।
ब्रिटिश आर्मी में एक भारतीय लेफ्टिनेंट थे कर्नल वीवी जोशी। यह पिस्टल मुसोलिनी की सेना के एक अफसर के आत्मसमर्पण करने के बाद उससे छीनकर लाई गई थी। बाद में जोशी ग्वालियर के महाराज जयाजीराव सिंधिया की मिलिट्री में अधिकारी हो गए। तुषार लिखते हैं कि हत्या से पहले यह पिस्टल तीन महाद्वीपों में घूम चुकी थी। इसके बाद यह गोडसे तक कैसे पहुंची, यह रहस्य ही है।
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