-धनंजय
सावन महीने में जलाभिषेक के साथ कांवड़ियों की यात्रा गुरुवार को समाप्त हो गई। सावन में कांवड़ियां भगवान शिव की आराधना करते हुए गंगा से जल लाते हैं और किसी विशेष शिव मंदिर के शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं। ऐसा नजारा सबसे ज्यादा उत्तर भारत सहित कई अन्य जगहों पर देखने को मिल सकता है।
पिछले कुछ दशकों से कांवड़ की ओर लोगों का रुझान तेजी से बढ़ा है। खासकर युवा वर्ग की भीड़ इसमें बड़े जोशीले अंदाज में हिस्सा लेने हर साल पहुंच रही है। समाज के हर तबके के लोग कांवड़ यात्रा में शामिल होते हैं। कांवड़ लाने के साथ अब कई विषमताएं भी सामने आ रही हैं। इसके सकारात्मक पक्ष के साथ- साथ नकारात्मक पक्ष की ओर ध्यान करवाना मीडिया से लेकर समाज के हर लोगों का काम है। भक्ति भावना और उसकी अभिव्यक्ति करने के लिए पूजा-पाठ तो ठीक है, लेकिन उसका नाजायज फायदा लेकर धर्म की आड़ में गलत काम करने वाले को रोकना भी जरूरी है। अक्सर देखा गया है कि लोग इकट्ठे होकर डीजे ट्रॉली के पीछे-पीछे नशे में झूमते हैं। नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। आइये हम आपको बताते हैं कि वास्तव में कांवड़ उठाने की परंपरा की शुरुआत कैसे हुई-
कांवड़ यात्रा का इतिहास कुछ इस प्रकार से है-
कांवड़ यात्रा के बारे में जानकारी पौराणिक कथाओं से मिलती है, लेकिन पुराणों में से भी सबसे अधिक प्रचलित कथाओं में एक सावन के महीने का समुद्र मंथन है। समुद्र मंथन के दौरान महासागर से निकले विष को शिव द्वारा पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया तब से उन्हें ‘नीलकंठ’ कहा जाने लगा, लेकिन विष के प्रभाव से वह नीलकंठ के नकारात्मक बाधाओं से घिर गए। विष के असर को कम करने के लिए देवी पार्वती समेत सभी देवी-देवताओं ने मिलकर उनपर पवित्र नदियों का शीतल जल से जलाभिषेक किया । इसके बाद शिव विष की नकारात्मक प्रभाव से मुक्त हो गए। तब से लेकर आज तक यह परंपरा चली आ रही है।
दूसरी तरफ यह कहना है कि श्रवण कुमार सबसे पहले कांवड़िया थे। उनके द्वारा ही त्रेतायुग में कांवड़ यात्रा की गई थी । जब उनके दृष्टिहीन माता पिता ने हरिद्वार में स्नान करने की इच्छा जताई तो उन्होंने माता-पिता को एक डंडे के सहारे अपने दोनों कंधो के अगल बगल टोकरी में बैठा कर यात्रा करवाई और वहां से लौटते वक्त गंगाजल को अपने साथ ले गए।
नया स्वरूप लेती कांवड़ यात्रा
ये होना चाहिए- कांवड़ ले जाना भक्ति भाव के साथ ही बड़े हिम्म्त व तपस्या का काम होता है। गंगाजल भरने से लेकर शिवलिंग पर जलाभिषेक कराने तक भक्तों को पूरा सफर पैदल पदयात्रा करके पूरी करनी होती है, जिसकी वजह से पैरो में चलते-चलते छाले पड़ जाते हैं लेकिन शिव भक्ति में लीन अपने आपको टस से मस नहीं होने देते।
ये हो रहा है- धीरे-धीरे पहले की तुलना में भक्ति भाव के साथ पूरी श्रद्धा से कांवड़ लेकर चलने वाले कांवड़ियों की कमी होती जा रही है। इसी बदलाव के क्रम में यह देखा जा सकता है कि एक बड़ा जन सैलाब अपनी मौज में चलता, जिसके साथ सभी तरह के इंतजाम होते है और मौज मस्ती के साथ इस सफर को पूरा किया जाता है। लगभग सभी के पैरों में चप्पल देखी जा सकती है। यात्रा के दौरान वाहनों की सुविधा मुहैया होती है।
ये होना चाहिए- यात्रा के दौरान शिव भक्तों को किसी भी प्रकार का नशा व मासाहार पदार्थ सेवन करने की अनुमति नहीं होती। इसके अलावा किसी से अपशब्द बोलने व लड़ाई करने की मनाही होती है। नम्रता का संदेश शिव भक्तों को कहा गया।
ये हो रहा है- ज्यादातर लोग यात्रा के दौरान भोले की भक्ति के नाम पर नशे के कश लगाए जाते देखे जा सकते हैं। सभी प्रकार के मादक पदार्थों का सेवन भक्ति के नाम पर किया जाने लगा है, जिससे कि यात्रा में एक नया रोमांच भर सकें। हद तो तब होती है जब छोटे उम्र के बच्चे नशे में धुत दिखाई पड़ते है। किसी महिला को गाड़ी, बसों में बैठे देख अपशब्द बोलना उनके यात्रा को और भी उनकी श्रद्धा को और भी पवित्र कर देता है। आपस मे भी बिना गाली गलौज के बातें नहीं होती।
ये माना जाता है- कावड़ भक्तों को बगैर स्नान किये कांवड़ को छूना अमान्य माना गया है। आमतौर पर कांवड़ियों को तेल, साबुन का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहये।
क्या है हकीकत- ज्यादातर कांवड़ भक्त स्नान के बजाय केवल नशे में गोते लगाते हुए इस यात्रा को सफल बनाने का प्रयास करते हैं। सफाई भी नहीं दिखती।
ये है वर्जित- कांवड़ यात्रा के समय चमड़े की किसी भी चीज़ का स्पर्श, गाड़ियों से यात्रा, चारपाई पर बैठना ये सब वर्जित है। कांवड़ को किसी भी पेड़ या भूमि पर रखना वर्जित कहलाता है।
हकीकत ये है- तथाकथित भक्त यात्रा के दौरान चप्पल का इस्तेमाल करते हैं। साथ ही वाहनों में बैठकर घूमना यात्रा की हकीकत की ओर ले जाता है। बिना डीजे, ट्राली, ट्रैक्टर, टेम्पो और हुड़दंगबाजी के उन्हें ये यात्रा नीरस लगने लगती है। किसी से स्पर्श की बात की जाए तो इस बार कांवड़ यात्रा के दौरान दिल्ली में गाड़ी के स्पर्श होने से गाड़ी को बुरी तरह से तोड़ दिया गया। यहां तक कि पुलिस की गाड़ी को भी नही बख्शा गया। कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़ को किसी भी जगह लटका कर लोग पिकनिक मनाने की तरह मगन होकर चल देते हैं।।
इस बार यह भी देखा गया
इस बार के कांवड़ यात्रा में जहा डीजे पर कांवड़ियों का शोर शराबा दिखा। वहीं भगवा झंडे के साथ राष्ट्रीय ध्वज को भी लहराया जा रहा था। ट्रैक्टर, ट्राली पर गाने भी राजनीतिक पार्टी का पूरा समर्थन करते हुए देखे गए। ‘डीजे बजवा दिए योगी ने, भोले नचवा दिया योगी” की राजनीतिक शोर भी सड़कों पर खूब हुई। पिछली सरकार यानी अखिलेश यादव की सरकार ने डीजे पर प्रतिबंध लगा दिया था। वहीं, योगी की सरकार ने डीजे बजने पर प्रतिबंध हटा दिया और यहां तक सरकार की ओर से कांवड़ियों पर फूल भी बरसाए गए। इस फूल बरसाने में सरकारी राजकोष का जमकर प्रयोग किया गया।
लेकिन, इन सबके बावजूद कांवड़ आज भी उन्हीं के नाम से जाना जाएगा जो धूप में नंगे पांव चलकर अपनी यात्रा श्रद्धा से पूरी करते हैं, जिनके पैरों में छाले होते हैं, जिनकी यात्रा में शोर नहीं होता; न कि उनके जो राजनीतिक रंग देते हैं और भोले के असली भक्ति करने वालों को बदनाम करते हैं।
नोट- सभी तथ्य अपने अनुभव और अपनी सूझबूझ के सहारे लिखी गई हैं। इसमें किसी भी भक्त को उनकी श्रद्धा के प्रति खेद पहुंचाना मकसद नहीं है। ये उन लोगों के लिए लिखी गई हैं जो भक्त और भक्ति दोनों को बदनाम करते हैं।
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