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एक बेटी का पिता के नाम पत्र, हकीकत जानकर रह जाएंगे हैरान

credit: google

प्यारे पापा,

बहुत अरसा हो गया, मैंने आपसे ठीक से बात नहीं की। आपने भी तो कई सालों से मुझसे बात नहीं की। आज भी आप मुझसे बात नहीं करते। मेरे बारे में कुछ नहीं जानते! सिवाय इसके कि मैं आपकी बेटी हूँ। आपकी बेटी हूँ, ये पता है, लेकिन फिर भी आपने कभी बेटी कहकर नहीं पुकारा।

शायद, बचपन में कभी कहा हो! पर मुझे याद नहीं! अम्मा बताती है कि बचपन में मैं बहुत शरारती थी। सारा दिन गली के बच्चों के साथ धूल-मिट्टी में खेला करती थी। मेरे बाल हमेशा धूल में सने रहते थे। लिहाज़ा जूएँ और लीखें भी थीं। अम्मा अकेले घर का सारा काम खुद करती थी। इसलिए आप ही मेरे बालों में कंघी किया करते थे। मेरे सिर से जूएँ भी निकालते थे। मैं ये जूएँ वाली शर्मनाक बात इसलिए लिख पा रही हूँ, क्योंकि आपका स्नेह झलकता है उसमें! मैंने अपनी सहेलियों से उनके पापा के बारे में सुना है। पर ऐसा स्नेह तो उनके पापा भी नहीं दिखाए कभी!

पर अम्मा एक और बात बताती है, कि आप कभी नहीं चाहते थे कि हम हों। हम, यानि हम तीन बहनें। यानि आप नहीं चाहते थे कि आपकी बेटियाँ हों, वो भी तीन-तीन। आपने अपनी बेटियों को उतना नहीं पाला जितना कि उन्होंने खुदको खुद पाला है।

आपने हमारे साथ बहुत सारी ज़्यादती की है। शायद अपने बेटों के प्रति भी की है। जितनी हमारे साथ की, उससे कहीं ज़्यादा अम्मा के साथ की। इसीलिए अम्मा ने हमारे साथ की। इसलिए हम आपके और अम्मा दोनों की तवज्जो से महरूम रहे। अगर कभी तवज्जो मिली भी तो खुद को मकरूम महसूस किया।

मैं और भी बहुत कुछ महसूस करती हूँ। वो भी जिनके बारे में अम्मा बात नहीं करती। आपको अपनी ये नाफ़रमान बेटी कभी रास नहीं आई। क्यों नहीं आई, ये राज़ आपने कभी खोला नहीं। मेरी तरह आपको कभी मेरी किताबें भी रास नहीं आई। आप कई दफ़ा धमकी दिया करते थे कि उनको फेंक देंगे। पर कभी फेंक नहीं पाए। क्योंकि आप जानते थे कि आपने मुझे वो किताबें लाकर नहीं दी। आपके सारे बच्चे एक मामूली से सरकारी स्कूल में पढ़ें हैं। इसलिए क्योंकि हमारे पास पैसे नहीं थे। सरकारी स्कूल में पढ़ाई के पैसे लगते नहीं, बल्कि पैसे मिलते थे। हम पैदल ही स्कूल और घर आया करते थे। इसलिए किराए के भी पैसे नहीं लगते थे। मगर फिर भी आप बात-बात पर ताने मारते थे कि पैसे लग रहे हैं, पैसे लग रहे हैं! पैसे नहीं लगाते थे लेकिन फिर भी कहते थे पैसे लग रहे हैं! पता नहीं क्यों आपको ये पैसे वाली बात इतनी अहम लगती है! अपने बच्चों से भी ज़्यादा अहम।

मुझे ऐसा महसूस होता है क्योंकि मुझे याद है कि जब मैं अपने इम्तिहान के दिनों में रात में लाइट जलाकर पढ़ती थी तो आप बंद करवा दिया करते थे, ये कहकर कि बिजली का बिल कौन भरेगा! मेरे घर में बिजली भी थी। फिर भी मैं रात में स्ट्रीट लाइट में पढ़ा करती थी। उन्हें पता था कि मेरी नज़रें कमज़ोर हैं, फिर भी दो साल तक चश्मा तक नहीं बनवाया। उस बखत मैं सातवीं में थी। सातवीं और आठवीं दोनों में मैंने बिना चश्मे के पढ़ाई की। कक्षा में कभी ब्लैकबोर्ड दिखाई नहीं देता था। जो कुछ पढ़ती थी किताब से पढ़ती थी। सब कुछ पढ़ लेती थी किताब से। पर गणित पढ़ने में थोड़ी दिक्कत होती थी। मेरी शिक्षिका जानती थीं कि मुझे ब्लैकबोर्ड दिखाई नहीं देता। वे मुझसे पूछा करती थीं कि चश्मा क्यों नहीं लगाती? मैं कोई जवाब नहीं दे पाती! बस इतना कहती कि इलाज चल रहा है। अपनी परेशानियों को जताने की आदत नहीं थी मुझे!

पर आपको तो जैसे आदत थी मेरी मुश्किलें बढ़ाने की। स्कूल में मैं हमेशा अव्वल आती थी इसलिए मुझे स्कॉलरशिप मिल जाती थी। 10वीं से ही ट्यूशनें देना भी शुरू कर दिया था। आपसे कभी अपनी पढ़ाई पर खर्च नहीं करवाया।

पर फिर भी जब यूनिवर्सिटी जाने की बारी आई तो आपने मुँह बना लिया। मतलब आप नहीं चाहते थे कि मैं यूनिवर्सिटी जाऊँ। मैंने कहा आप कुछ मत दीजिए। मैं कर लूंगी। मैंने कर भी लिया। ग्रेजुएशन पूरा किया। आपके कुछ दिए बिना पूरा किया। फिर कहा कि मुझे एमए करना है। आपने कहा कि अब आगे और नहीं पढ़ाएंगे। और पैसे कौन खर्च करेगा! अगर दम है तो कर लो! हमसे कुछ उम्मीद मत करना!

कमाल है पापा! आपने तो हमेशा उम्मीद तोड़ने की कोशिश की। फिर आपसे क्या उम्मीद करती! पहले भी खुद ही किया था। इस बार भी खुद ही कर लिया। मैंने एमए भी किया। आपके सहयोग के बिना किया ये तो नहीं कहूँगी, क्योंकि आप मुझे कुछ और देते हों या न देते हों, पर अपने घर में सोने और खाना खाने की इजाज़त देते थे। इतना तो स्नेह था ही आपका मेरे प्रति।

आप कई दफा कह चुके थे कि आप मुझसे छुटकारा चाहते हो। बिलकुल उसी तरह जिस तरह आप अपनी बाकि दो बेटियों को भी कहा करते थे। पहले बेटियों से छुटकारा पाने की बात कही आपने। मगर फिर जब देखा भाइयों का सहयोग है, तो कहा कि आपको अपनी हर औलाद से छुटकारा चाहिए। पता नहीं आपकी औलादों ने ऐसा क्या कर दिया कि आप उनसे छुटकारा चाहते हैं।

आपको कई दफा छुटकारा पाने का मौका भी मिला। पर आपने हर वो मौका खो दिया। या फिर शायद आपने जानबूझकर खो दिया। क्योंकि न चाहते हुए भी आपमें थोड़े-बहुत पिता बाकि रह गए थे।

मुझे याद है कि बचपन में हर दीवाली को मेरी फ्रॉक में आग लग जाया करती थी। आप हर बार अपना हाथ जलाकर मुझे जलने से बचा लिया करते थे। अगले दिन फिर कोसने लगते थे। फिर वही छुटकारा पाने वाली बातें करते। मुझे समझ न आता कि फिर मौका मिलते ही गँवा क्यों देते!

अम्मा भी बताती है कि बचपन में मैं दो दफ़ा खो गई थी। शायद 2-3 बरस की रही होंगी मैं! आप काम पर से आए। पानी तक नहीं पीया। मुझे ढूंढ़ने निकल गए। मैं अम्मा और आपको पुलिसवाले के पास मिली थी। वो मुझे आपको दे नहीं रहा था। उसका कहना था कि इतनी प्यारी बच्ची आपकी नहीं हो सकती! आप बड़े बदसूरत हैं! उसने मुझसे कई दफा पूछा था अम्मा की ओर इशारा करके – “ये तुम्हारी मम्मी हैं?”  मैं कोई जवाब नहीं देती। मतलब सिर तक नहीं हिलाती। फिर आखिरकार आपके बदसूरत चेहरे की ओर इशारा करके पूछते हैं-“ये कौन हैं?” मैं तब भी कुछ नहीं कहती। बस आपको गले लगा लेती हूँ! पुलिसवाला समझ जाता है। शायद वो भी पिता होगा इसलिए! आप मुझे फिर से घर ले आते हैं।

मगर फिर भी बार-बार एहसास कराते हैं कि ये मेरा घर नहीं है। मेरी दो बहनों को भी यही एहसास कराते हैं कि ये उनका घर नहीं है। चूँकि भाई लोग साथ देते हैं, मेरा ही नहीं पूरे परिवार का, इसलिए उन्हें भी एहसास कराते हैं कि ये उनका घर नहीं है। परिवार का साथ देने वाली बात आपको रास नहीं आती। मगर आप फिर भी परिवार की बदनामी की परवाह करते हैं। इसलिए मकरूम हो जाने को कहते हैं। हमें मकरूम हो जाना मंजूर नहीं। हमें पिता चाहिए मालिक नहीं। शायद इसीलिए आपको लगता है कि आप हमें मंजूर नहीं।

अब आप हमारी ज़िंदगी में दखल नहीं देते, क्योंकि आपने हमें अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया है। आप सालों तक नशे में रहे। दारू-सिगरेट पीकर अम्मा को सताया। हमें सताया। खुद की सेहत बिगाड़ी। ठीक हुए तो धमकी दी कि मकरूम हो जाओ वर्ना फिर से दारू-सिगरेट पीऊंगा।

आपको हमारी सेहत की परवाह नहीं रही। शायद बचपन में कभी रही हो! रही होगी, शायद इसीलिए अब तक ज़िंदा हूँ, भले ही दिलों-दिमाग से बीमार हूँ। आपका खून हूँ मैं। पर शरीर में खून की कमी भी है। शायद आपके स्नेह की कमी की वजह से है। एक दफा बहुत बीमार हो गई थी मैं। तेज बुखार था मुझे 105.5 डिग्री। रात भर मेरा शरीर गर्म रहा। मैं तड़पती रही। छोटी बच्ची नहीं थी। एम.ए. कर रही थी। जानती थी कि बीमार हूँ। बहुत बीमार। मगर कुछ कहा नहीं। उसी तरह जिस तरह आप नहीं कहते। बहुत ज़्यादा तनाव भी था मुझे। मरने को जी कर रहा था। ऐसा लग रहा था कि मैं पागल हो जाऊंगी, सिर फट जाएगा। फिर सुबह हो गई। मैंने बिस्तर से उठने की कोशिश की। मगर गिर गई। मैंने अम्मा की ओर देखा। अम्मा खफा थी मुझसे। इसलिए कहा-मैं किसी को अस्पताल नहीं ले जाऊंगी। आप काफी देर तक बिस्तर पर बैठे रहे। फिर अम्मा को बोले ले जा इसको! अम्मा ने फिर कहा नहीं ले जाऊंगी। फिर आपने हेलमट उठाया। कहा कि चल। मैंने कहा मैं अपने आप कर लूंगी। जैसे कि हमेशा करती हूँ। आपने कहा चल। मैं जानती थी कि अकेले जाने की हिम्मत नहीं है मुझमें। इसलिए आपके साथ चली गई। अपने थैले में अपने पैसे रख लिए, ताकि आपके पैसे खर्च न करवाने पड़े।

आप एक छोटे से क्लीनिक में लेकर गए। डॉक्टर ने कहा ग्लूकोज देना होगा। शायद खून की भी ज़रूरत पड़े। बर्फ भी चाहिए। पट्टी लगानी है। क्लीनिक में बर्फ नहीं थी। आपने कहा घर से लेकर आता हूँ। गर्मी का मौसम था। क्लीनिक घर से काफी दूर था। मुझे लगा था कि बर्फ पिघल जाएगी। पर बर्फ नहीं पिघली, क्योंकि आपका दिल पिघल गया था। नर्स ने कहा कि बर्फ दे दें। पट्टी करनी है। आपने नहीं दी। आपने अपनी जेब से रूमाल निकाला। उस पर बर्फ रखी। फिर दो बार मोड़कर मेरे माथे पर रख दिया। माथे पर रखते हुए मेरे सिर पर अपना हाथ फेरा आपने। लगा आपने आशीर्वाद दिया। बुखार कम हुआ तो बिल देने की बारी आई। मैंने अपना थैला खोला। पैसे निकालकर आपको दे दिए। आपने ले लिए और बिल भर दिया। मैंने आपसे पैसे खर्च नहीं करवाए, पर आपका थोड़ा सा स्नेह खर्च करवा लिया।

पर अगले दिन आप फिर कोसने लगे। मुझे भी और मेरी किताबों को भी।

अब पढ़ने के साथ-साथ लिखती भी हूँ। एक बार अपनी डायरी टेबल पर छोड़कर अंदर वाले कमरे में चली गई थी। बाहर आई तो देखा कि आप पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। पढ़ने का शौक नहीं था। इसलिए टूटा-फूटा ही पढ़ सके। समझ नहीं पाए।

मैं भी समझ नहीं पाती कि मुझमें बेटी वाला भाव बचा भी है कि नहीं। जब-जब आप पर गुस्सा आता है लिख देती हूँ। कोसती हूँ या नहीं, इसका पता नहीं क्योंकि लिखकर भूल जाती हूँ। लिखकर पढ़ा नहीं कभी कि क्या भाव हैं-हल्के हैं या भारी हैं।

 

आपकी बेहिज़ और नाफ़रमान बेटी

(जैसा कि आप मुझे बोलते हैं)

 

(लेखिका ने नाम सार्वजनिक न करने के लिए कहा है, यह उनके निजी विचार हैं। इससे फोरम4 का कुछ लेना देना नहीं है।)

 

 

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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