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लेखक के तौर पर एनडीटीवी के प्रियदर्शन से खास बातचीत : साक्षात्कार

लेखक के तौर पर प्रियदर्शन की पहचान कवि और कथाकार इन दोनों ही रूपों में है। देश की जानी-मानी पत्र-पत्रिकाओं में तीन दशकों से नियमित लेखन का कार्य कर रहे हैं। 1996 से 2002 के बीच जनसत्ता में सहायक संपादक के पद पर रहे। 2003 से अब तक एनडीटीवी इंडिया में कार्यरत हैं। इनके समीक्षा लेखन हिंदी लेखन की रचनात्मक प्रवृत्तियों को रेखांकित करते हैं। प्रस्तुत है इनसे राजीव कुमार झा की बातचीत-


आपने कविता लेखन भी किया है लेकिन हिंदी में आपकी पहचान कहानीकार के रूप में है। इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

दरअसल मेरी शुरुआत कविताओं से ही हुई। बल्कि अब भी कविताएं लिखता हूं। इसी साल मेरी कविताओं का नया संग्रह ‘यह जो काया की माया है’ प्रकाशित हुआ है। लेकिन आप ठीक कह रहे हैं, देखता हूं मेरी मूल पहचान कथाकार की हो गई है। शायद इसलिए कि मेरी पहली किताब कहानियों की ही आई 2007 में ‘उसके हिस्से का जादू’। फिर एक संग्रह और आ गया ‘बारिश धुआं और दोस्त।’ उपन्यास भी कहानियों में गिन लिया जाता है। शायद इसलिए मैं कहानीकार मान लिया गया हूं या फिर यह भी संभव है कि लोगों को मेरी कहानियां मेरी कविताओं के मुकाबले ज़्यादा पसंद आई हों, लेकिन मुझे कवि कहलाना पसंद है।

अपने बचपन घर परिवार और शिक्षा दीक्षा के बारे में बताएँ?

मैं मूलतः रांची का हूं। वही सारी पढ़ाई-लिखाई हुई। स्कूली पढ़ाई कई स्कूलों में भटकते हुए हुई। आख़िरी 4 साल संत लुइस हाई स्कूल में गुज़रे। फिर रांची यूनिवर्सिटी से मैंने अंग्रेजी में एमए किया। पत्रकारिता मैंने बहुत कम उम्र से शुरू कर दी थी। शायद सत्रह-अठारह साल की उम्र से। एमए करते हुए वहां के स्थानीय अखबार रांची एक्सप्रेस में नौकरी भी की। उसी दौरान बीजे का भी कोर्स किया। उन दिनों शहर की साहित्यिक सांस्कृतिक हलचलों से बहुत गहरा जुड़ाव था। मैं कई संस्थाओं से जुड़ा था। ‘हस्ताक्षर’ से जुड़कर नाटक भी किए। आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी जुड़ा रहा। लेकिन 1993 में दिल्ली आ जाने के बाद वह सारा सिलसिला टूट गया।

हालांकि उस दौर ने मुझे काफी समृद्ध बनाया। दरअसल साहित्य का माहौल मुझे घर से ही मिला। पिता विद्याभूषण और मां शैलप्रिया लिखते रहे और शहर की सांस्कृतिक गतिविधियों से भी जुड़े रहे। इसकी वजह से मुझे बहुत सारी किताबें घर पर ही पढ़ने को मिल गईं। हालांकि कॉलेज के दिनों में रांची के कई पुस्तकालयों की खाक छानकर भी पढ़ता रहा। लिखने का शौक भी बिल्कुल स्कूली दिनों से शुरू हो गया था।

पत्रकारिता के पेशे में साहित्य लेखन और अनुवाद से जुड़े कार्यों के निर्वहन में कैसे सामंजस्य कायम करते हैं?

पत्रकारिता करते हुए भी मैंने बहुत लिखा। दरअसल लिखना मुझे अच्छा लगता है। फ्रीलांसिंग के दौर में सब कुछ चलता रहा। उसी दौर में कई अनुवाद भी किए। सौभाग्य से जनसत्ता में मेरा काम विचार और साहित्य के पन्नों से जुड़ा रहा। इसलिए साहित्य और पत्रकारिता में तालमेल बिठाना आसान रहा। लेकिन 2003 के बाद, जब मैं टीवी की दुनिया में चला आया, तब वाकई एक बार लगा कि यह सिलसिला टूट जाएगा। लेकिन लिखने की आदत बनी रही, सिलसिला बना रहा। बेशक, अब किताबों के अनुवाद करने का समय नहीं मिलता।

अपने प्रिय लेखकों के बारे में बताइए ?

प्रिय लेखकों के बारे में बताना आसान काम नहीं है। किताबें पढ़ते हुए चार दशक हो गए। जब पढ़ना शुरू किया था, तब दिनकर की रश्मिरथी मेरी प्रिय किताबों में थी। उसी समय जयशंकर प्रसाद और महादेवी की कई कविताएं बहुत अच्छी लगती थीं। बाद में धूमिल और दुष्यंत कुमार ज़ेहन में छाए रहे, साथ में उर्दू ग़ज़ल की परंपरा के मीर-गालिब, फ़ैज़ और फ़िराक़ भी।

जयशंकर प्रसाद के नाटक भी बहुत पसंद आते थे। गंभीर साहित्य पढ़ने का सिलसिला आगे बढ़ा तो अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर से लेकर विनोद कुमार शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी और कई लेखक इस सूची में जुड़ते चले गए। लेकिन फणीश्वरनाथ रेणु की ख़ास जगह रही। इनके अलावा-मोहन राकेश, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा भी पसंदीदा रहे। संजीव, उदय प्रकाश, शिवमूर्ति, अलका सरावगी- नाम याद आते जाएंगे, यह सिलसिला खत्म नहीं होगा। यही बात कविताओं के साथ कह सकता हूं। छायावादी कवियों और दिनकर के साथ जुड़ाव की जो शुरुआत हुई, उसमें भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर, मुक्तिबोध रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, देवी प्रसाद मिश्र जैसे कई कवि‌ शामिल होते चले गए। दरअसल जितने नाम ले रहा हूं, उससे ज़्यादा छूटते जा रहे हैं।

आपकी लिखी पुस्तक समीक्षाओं की भी अपनी रचनात्मक पहचान है। अपने लेखन में समीक्षा को आप कितना अहम और जरूरी हिस्सा मानते है। इस दिशा में अपनी सक्रियता और दायित्व के बारे में बताएँ?

हां, यह सच है कि मैंने बहुत सारी समीक्षाएं लिखी हैं। बल्कि मेरा समीक्षात्मक या आलोचनात्मक लेखन मेरी कुल कविताओं और कहानियों से कहीं से ज़्यादा है। इसमें अगर मेरे वैचारिक लेखों को जोड़ दें तो इनकी तादाद कई गुना बढ़ जाती है। दरअसल अपनी शुरुआती पत्रकारिता के दौर में फ्रीलांसिंग करते हुए मैंने किताबों पर बहुत लिखा। फिर एक सच्चाई है हिंदी का मौजूदा आलोचनात्मक लेखन बहुत लचर है। आलोचना के क्षेत्र में जो नए लोग काम कर रहे हैं उनमें बेशक कुछ बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन ज़्यादातर को देखकर हैरानी भी होती है और अफ़सोस भी होता है।

बहरहाल, मेरे लेखन में समीक्षात्मक लेखन का बहुत अहम योगदान है। दूसरों की रचनाओं की पड़ताल करते हुए मैंने साहित्य और लेखन की सूक्ष्मताओं पर विचार का कहीं बेहतर अवसर पाया। शायद वह लेखन न किया होता तो मेरी कहानियां और कविताएं भी कुछ अलग होतीं।

नारी और दलित लेखन से हिंदी में किस तरह का सामाजिक विमर्श शुरू और खत्म हो रहा है?

दलित और स्त्री लेखन हमारी राजनीति, हमारे समाज और हमारे साहित्य की पुरानी और जानी-पहचानी विचारधाराओं की विफलता का नतीजा है। बराबरी का स्वप्न दिखाने वाला मार्क्सवाद दरअसल इन चोट खायी, पीछे छूट गई अस्मिताओं की अपेक्षाएं पूरी करने में नाकाम रहा। दुनिया भर में महसूस किया गया कि तथाकथित मुख्यधारा की राजनीति और संस्कृति ने हाशिए पर चले गए समाजों की आपराधिक अवमानना और उपेक्षा की है। उनको अब उनका दाय लौटाने की कोशिश हो रही है। लेकिन यह मुख्यधारा की सदाशयता का मामला नहीं है, दलित-पीड़ित अस्मिताएं अब अपना साहित्य और अपना इतिहास अपनी कलम से लिख रही हैं। यह एक स्वागत योग्य प्रक्रिया है जिसका विरोध यथास्थिति को बनाए रखने की हताश कोशिश से ज़्यादा कुछ नहीं है।

साहित्य लेखन और अनुवाद के अलावा अपनी अन्य कलात्मक अभिरुचि के बारे में बताएँ?

कलात्मक या अकलात्मक- मेरा मन बहुत सारी चीज़ो में लगता है। कभी रंगमंच से जुड़ा रहा था। अवसर मिलते ही नाटक अब भी देखता हूं। फिल्में में भी मैं खूब देखता हूं। यह नेटफ्लिक्स और अमेज़न प्राइम के जमाने में पैदा हुआ शौक नहीं है, बल्कि बरसों से सिनेमाघरों में जाकर फिल्में देखने का चाव रहा है। लॉक डाउन की घोषणा के पहले वाले आख़िर शनिवार भी मैंने फ़िल्म देखी थी। इसके अलावा क्रिकेट देखने में भी मन लगता है, लेकिन अब पहले की तरह नहीं। अच्छा संगीत भी लुभाता है, लेकिन पाता हूं, इसके लिए अवकाश नहीं निकाल पाता। वह ‌ग़ालिब का शेर है ना- ‘हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले / बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले।’

प्रियदर्शन द्वारा लिखी गई किताबें 

1 ज़िंदगी लाइव (उपन्यास)
2 बारिश, धुआं और दोस्त (कहानी संग्रह)
3 उसके हिस्से का जादू (कहानी संग्रह)
4 यह जो काया की माया है (कविता संग्रह)
5 नष्ट कुछ भी नहीं होता (कविता संग्रह)
6 ग्लोबल समय में गद्य (आलोचना)
7 ग्लोबल समय में कविता (आलोचना)
8 ख़बर-बेख़बर (पत्रकारिता विषयक)
9 नए दौर का नया सिनेमा (फिल्म)
10 इतिहास गढता समय (विचार)

अनूदित किताबें
उपन्यास ज़िंदगी लाइव का अंग्रेज़ी में अनुवाद
कविता संग्रह नष्ट कुछ भी नहीं होता का मराठी में अनुवाद

अनुवाद
1 सलमान रुश्दी का मिडनाइट्स चिल्ड्रेन (आधी रात की संतानें)
2 अरुंधती रॉय का द ग्रेटर कॉमन गुड (बहुजन हिताय)
3 रॉबर्ट पेन का उपन्यास टॉर्चर्ड ऐंड डैम्ड (क़त्लगाह)
4 ग्रीन टीचर (हरित शिक्षक)
5 के बिक्रम सिंह की किताब कुछ ग़मे दौरां
6 पीटर स्कॉट की जीवनी

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

राजीव कुमार झा
बिहार के लखीसराय जिले के बड़हिया के इंदुपुर के रहने वाले राजीव कुमार झा स्कूल अध्यापक हैं। हिंदी और मास कॉम से एमए कर चुके राजीव लेखक, कवि और समीक्षाकार भी हैं।

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