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महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर विशेषः जानिए 7 सामाजिक पाप जिसे गांधी ने गिनाया था

आज महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि है। 72 वर्षों पूर्व आज ही के दिन गोडसे नामक एक सिरफिरे हत्यारे ने उस शांतिदूत की हत्या कर दी थी जिसने सत्य और अहिंसा के अस्त्रों के साथ ‘सत्याग्रह’ नामक एक नवीन प्रयोग कर डाला जिससे न सिर्फ दमनकारी हिंसक ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति वाले अंग्रेजी साम्राज्य को भारत से उखाड़ फेंका, बल्कि भारतीय जनमानस में एक आत्मिक नैतिक शक्ति को स्फूर्त करने का मंगलकारी कार्य भी किया।

‘हिंद स्वराज’ से लेकर ‘सत्य के प्रयोग’  एवं उनकी अनेक पत्र – पत्रिकाओं  ‘हरिजन’ , ‘इंडियन ओपिनियन’, ‘यंग इंडिया’ आदि में उनका मानवतापरक चिंतन बिखरा हुआ है। ‘हिंद स्वराज’ में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उन्नत करने के तरीकों एवं ‘सत्य के प्रयोग’ में सत्य के प्रति युधिष्ठिर जैसी उनकी प्रतिबद्धता ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है। परंतु वर्तमान परिदृश्य में जो गाँधी विचार सर्वाधिक प्रासंगिक है , वह है “सात सामाजिक पापों की अवधारणा।”

गाँधीजी ने सात सामाजिक पापों को गिनाया था 

  • सिद्धांतों के बिना राजनीति
  • परिश्रम के बिना संपत्ति
  • अंतरात्मा के बिना आनंद
  • चरित्र के बिना ज्ञान
  • नैतिकता के बिना वाणिज्य
  • मानवता के बिना विज्ञान
  • त्याग के बिना पूजा।

वैसे तो ये सातों सामाजिक पापों की अवधारणा हमेशा ही प्रासंगिक रहेगी। परंतु वर्तमान में, जब सिद्धांतविहीन राजनीति फल – फूल  रही है, राजनीति और सिद्धांतों के मध्य पारस्परिक रिश्तों को समझना और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। आज देश में चारों तरफ तिरंगा झंडा और आंबेडकर की तस्वीर के साथ भारतीय संविधान की प्रस्तावना का पाठ हो रहा है। स्पष्ट ही है कि हमारे इस ‘भारत’ नामक राष्ट्र का जो बुनियादी सिद्धांत है , वह है ‘भारतीय संविधान’ एवं उसमें निहित मूल्य और आज भारतीय राजनीति ने इन सिद्धांतों को ताक में रख दिया है। ऐसे में आंबेडकर के ‘भारतीय संविधान’ की प्रस्तावना का पाठ और गाँधीवादी सत्याग्रह आशा की किरण जगाता है कि “गाँधी और आंबेडकर जिन्दा है।”

महात्मा गाँधी को याद करते हुए उनके ‘साधन और साध्य की पवित्रता’ के सिद्धांत को याद रखना जरूरी हो जाता है क्योंकि यही वह सिद्धांत है जो महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व को सशक्त और सर्वाधिक नैतिकवान बनाता है। चौरी -चौरा में आंदोलनकारियों की हिंसा ने अहिंसा के पुजारी गाँधीजी को इतना अधिक विचलित कर दिया था कि उन्होंने ‘असहयोग आंदोलन’ ही वापस ले लिया था। आज जब राजनीतिज्ञ सत्ता रूपी साध्य के लिए पवित्रता , नैतिकता और सिद्धांतों की बलि आए दिन चढ़ा देते हैं, गाँधीजी और उनके विचार अधिक प्रासंगिक होकर उभरते हैं।

गाँधीजी ने आर्थिक उन्नति के बारे में भी विचार किया है। वे छोटे और मझोले आकार के हस्तशिल्पों के हिमायती थे। वे मशीनीकरण का विरोध और हर हाथ को काम  की वकालत करते थे। उन्होंने परिश्रम के बिना संपत्ति अर्जन को सामाजिक पाप की संज्ञा दी थी। उन्होंने लघु और मध्यम उद्योगों  के जरिए स्वनिर्भर खुशहाल ग्रामों का सुनहरा स्वप्न देखा था जिसे हकीकत में बदलने में हम विफल हुए हैं।

वास्तव में ‘भारत’ नामक राष्ट्र के बुनियादी चिंतन को तीन महान विभूतियों ने आकर प्रदान किया है। वे हैं, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी , समाजवादी पुरोधा डॉ. राममनोहर लोहिया और संविधान शिल्पी डॉ. भीमराव आंबेडकर। इन तीनों महापुरुषों के सामाजिक- राजनीतिक चिंतन के आधुनिक संदर्भों में समानांतर पाठ की आवश्यकता है। इन तीनों महापुरुषों के चिंतन का सम्मिश्रण ही भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा।

महात्मा गाँधीजी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

पवन कुमार यादव
परास्नातक छात्र , दिल्ली विश्वविद्यालय

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