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प्रदर्शनकारियों की मौत की खबरें आईं सामने, आपातकाल जैसी स्थिति के लिए कौन है जिम्मेदार?

ज्यादातर जगह प्रदर्शनकारी अलोकतांत्रिक प्रदर्शन करने में व्यस्त हैं। पुलिस अलोकतांत्रिक कार्यवाही करने में व्यस्त है। सरकार अलोकतांत्रिक आदेश देने में व्यस्त है। और उधर जीडीपी को सुधारने, रोजगार पैदा करने, मंहगाई को कम करने, नागरिक सुविधाओं को मुहैया कराने की जिम्मेदारी भगवान भरोसे हो गई है। भारत को वैश्विक रूप में जो पहचान मिली थी उसकी जिम्मेदारी हम सबकी भी है उसी की जिम्मेदारी निभाने का काम करने के लिए लिखना पढ़ना और सुनना जरूरी है। इसलिए जानिए क्या कुछ चल रहा है देश में।

पहले जान लीजिए हम जिस देश में रह रहे हैं वह हम सबका है। उसको तोड़ना किसी का काम नहीं चाहे वो किसी भी धर्म, जाति का हो। किसी भी विचारधारा का हो उसका सम्मान होष लेकिन लड़ाई या संग्राम तब छिड़ जाता है जब सत्ता एक दूसरे के ऊपर दोषारोपण करने का काम करती है औऱ पत्रकारिता जगत का कुछ हिस्सा उसकी वकालत भी करने लगती है।

देशभर में एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर), सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है। इसमें प्रदर्शन भी दो तरह के बंटे हुएं हैं। हिंसक व अहिंसक। प्रदर्शनों की बाढ़ के दबाव में आकर गृहमंत्री अमित शाह उनका मुकाबला पुलिस की लाठी से दबवाने; कॉलेजों, स्कूलों को बंद करवाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संचार के साधनों को बंद करके करने का प्रयास कर रही है। उधर सत्ता में बैठे लोगों का राजहठ जारी है तो इधर प्रदर्शनकारी अपने प्रदर्शनों को लगातार चलाने का प्रयास कर रहे हैं। पूरे देश में आपातकाल जैसी स्थिति है भले ही आज यह आधिकारिक घोषणा न की कई हो। उत्तर प्रदेश में 5, मंगलूरू में 2, आसाम में 3  मौत की खबरें भी सामने आई हैं। इसके बाद विपक्ष इसको संविधान बचाने के लिए शहादत देने की बात कह रही है। सरकार ने जो प्रयास किया है वो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है- प्रयास की बात करें तो उसमें सरकार ने अब तक केवल सफाई दी है। आरोप लगाया है, लेकिन नागरिकता कानून के लिए जो हो रहा हैं उसके लिए जिम्मेदार अपने आपको नहीं माना है।

किसी भी आंदोलन को समझना हो तो इतिहास में जाना होगा लेकिन ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज इतिहास लिखने वाले रामचंद्र जैसे इतिहासकारों को भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने पर हिरासत में ले लिया जाता है। समाजसेवी और छात्रनेताओं को हिरासत में लिया जा रहा है। आंदोलन की शुरुआत जब जेएनयू, जामिया जैसे विश्वविद्यालय से हुई तो इसी सत्ता पक्ष ने उन्हें अलग-थलग करने के लिए पहले गंभीर आरोप लगाने का काम किया, धर्म के हिसाब से बांटा और उनको फिर लाठी, डंडे, वाटर कैनन औऱ आंसूगैस से दबाने का प्रयास किया लेकिन शायद उन्हें अंदाजा नहीं रहा होगा कि ये छात्र अगर जेएनयू और जामिया में हैं तो देश के कोने कोने में इसी तरह से छात्र भरे पड़े हैं। यह भी नहीं समझना चाहिए कि इसमें कोई खास वर्ग, जाति, धर्म व्यक्ति का समूह ही शामिल है। यह बेहद हास्यास्पद बात है कि हिंसा करवाने के लिए बाहरी आदमी, आतंकवादी औऱ उग्र संगठनों को शामिल होना बताया जा रहा है। जो भी हो प्रदर्शन केवल उनका ही नहीं है इसमें आम आदमी भी शामिल है। गजब की बात है कि विपक्ष अपने विपक्ष होने का धर्म पूरी तरह से इस मुद्दे पर निभा नहीं पा रहा है।

दिन भर में अगर एनआरसी, सीएए के विरोध प्रदर्शनों की बात करें तो यह कहना मुश्किल है कि कहां कहां और कितनी जगहों पर भीड़ प्रदर्शन की इजाजत मांग रही है। लेकिन इसी इजाजत मांगने और टकराहट में नरम दल का सदस्य भी गरम दल का सदस्य़ बन जा रहा है। जो प्रदर्शन के लिए ज्यादा प्रभावी नहीं है क्योंकि राजहठ में शामिल लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। इसलिए देशभर में मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री को भी जरा भी चिंता नहीं हो रही है कि कैसे अपने मन की बात रखी जाए। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि आप दूसरों की मन की बात को समझ भी नहीं पा रहे। आंदोलनों का रुख बदल रहा है औऱ देश में चारों तरफ पाबंदियां और परीक्षाओं को रद ही किया जा रहा है। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि देश में जो कुछ हो रहा है उसका असर हमारे आसपास के मुल्कों में नहीं पड़ रहा है। कूटनीतिक विफलता भी सामने आ रही है लेकिन एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर ज्यादा कुछ बताने कीजरूरत मैं नहीं समझता।

ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिसमें ये बातें सामने आने लगी हैं कि देश की आजादी की दूसरी लड़ाई बनाने के प्रयास में सरकारें शामिल रही हैं। भले ही वो बातें और मुद्दे कुछ और रहे हों। प्रदर्शनकारियों का जहां कहना है कि एनआरसी और सीएए जैसी चीजें गैर संवैधानिक हैं अगर यह नहीं भी मानें तो उनके प्रदर्शन को दबाने के लिए मूल अधिकारों के हनन की प्रक्रिया में बिना बताए गिरफ्तारी, अहिंसक आंदोलन के लिए एफआईआर, हर जगह सैकड़ों लोगों की गिरफ्तारी, मारपीट और आरोप के आधार पर पुलिसकर्मियों की ओर से संदेह के घेरे में रहकर काम करने का काम सामने आने लगा है। वो चाहे बीएचयू में शामिल प्रदर्शनकारी हों या फिर जामिया के छात्र हों। पुलिस का बर्ताव एक तरफ गलत है तो वहीं इन सबके लिए सरकार की ओर से जवाबदेही की जगह सफाई सबसे बड़ा खतरा बनकर सामने आ रहा है।

तो अब सबसे बड़ा सवाल यह है और जवाब भी यह है कि सरकार बहुत आगे बढ़ गई है उसने अगर इस मुद्दे को भुनाने की कोशिश की है। तो उसे आराम से पीछे हटने की कोशिश करनी चाहिए और हिंसात्मक रूप से गतिविधियों में शामिल लोगों को थोड़ा बहुत एनआरसी और सीएए को पढ़कर राय बना लेनी चाहिए साथ ही अगर राय विरोध में है को अहिंसक प्रदर्शन करने का काम ही करें। कोई भड़काए या कोई प्रेम से समझाए तो इसका मतलब उस पर हर तरह के पहलू से विचार करते हुए अपना एक दृष्टिकोण बनाने का प्रयास करना चाहिए।

नोट- ये लेखक के निजी विचार हैं। किसी भी दशा में सहमति असहमति के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

प्रभात
लेखक फोरम4 के संपादक हैं।

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