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सुप्रीम कोर्ट तय करेगा अनुच्छेद 370 हटाना सही या गलत  

तस्वीरः गूगल साभार

जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 के कई प्रावधान हटाने, राज्य का बंटवारा करने और केंद्र शासित प्रदेश घोषित करने के खिलाफ दायर याचिकाओं पर अब सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ सुनवाई करेगी। यह सुनवाई अक्टूबर के पहले सप्ताह में शुरू होगी। बुधवार को इन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। इस दौरान चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एस. ए. बोबडे और जस्टिस अब्दुल नजीर की पीठ ने केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर प्रशासन को नोटिस भी जारी किया। हालांकि, अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल ने नोटिस जारी होने पर ‘सीमा पार प्रतिक्रिया’ होने की दलील दी, मगर अदालत ने इसे खारिज कर दिया। इसके अलावा उच्चतम न्यायालय ने राज्य में संचार माध्यमों पर छूट देने के लिए केंद्र सरकार से एक हफ्ते के भीतर जवाब मांगा है। साथ ही कश्मीर में वार्ताकार नियुक्त करने की मांग ठुकरा दी।

याद रहे कि केंद्र सरकार ने बीते 5 अगस्त को राष्ट्रपति द्वारा जारी संवैधानिक आदेश (जम्मू-कश्मीर) 2019 के जरिए जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार देने वाले अनुच्छेद 370 के ज्यादातर प्रावधानों को निष्प्रभावी कर दिया था, जिनमें 35 ए भी शामिल है। साथ ही जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक 2019 के माध्यम से राज्य को दो हिस्सों में बांटकर केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया था। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, जिनमें जम्मू-कश्मीर दिल्ली की तरह विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश होगा, जबकि लद्दाख बिना विधानसभा वाला यूनियन टेरिटरी। केंद्र सरकार ने यह बदलाव करने से पहले जम्मू-कश्मीर से अमरनाथ यात्रियों और सैलानियों को लौटने का निर्देश दिया। स्थानीय नेताओं को नजरबंद किया गया। राज्य में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती की गई। इंटरनेट, लैंडलाइन समेत अन्य संचार सेवाओं पर पाबंदी लगाई गई और धारा 144 लागू की गई। केंद्र सरकार ने राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने के पीछे तर्क दिया कि इससे राज्य का विकास बाधित हो रहा है और यह एक अस्थायी प्रावधान था, जिसे कभी न कभी हटाया जाना था। जहां एक ओर सरकार के इस फैसले का स्वागत किया गया, वहीं सरकार की इस दलील से कई विपक्षी दल और समाज का एक वर्ग असहमत नजर आया। उन्होंने अनुच्छेद 370 हटाए जाने के फैसले और तरीके पर सवाल खड़े किए और इसे संविधान और लोकतंत्र पर हमला बताया। साथ ही इसे जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ विश्वासघात करार दिया।

उनका तर्क है कि संसद में बिना बहस किए और दो तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन पारित कराए बिना संविधान में बदलाव कर दिया गया। इसके लिए सरकार ने अनुच्छेद 370 उपखंड (1) (d) के तहत राष्ट्रपति को जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान के प्रावधान लागू कराने के लिए प्राप्त अधिकारों का सहारा लिया। जिस पर आलोचकों ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को खत्म करने के लिए अनुच्छेद 370 का इस्तेमाल किया गया, जो संविधान को खत्म करने के लिए संविधान का सहारा लेने जैसा है।

यहां पर बता दें कि अनुच्छेद 370 (3) के तहत, राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिश पर अनुच्छेद 370 हटा सकते हैं। यानी, राष्ट्रपति को ऐसा आदेश पारित करने से पहले जम्मू-कश्मीर सरकार से सहमति की जरूरत थी, मगर राज्य में राष्ट्रपति शासन होने और इसकी कमान राज्यपाल के पास होने की वजह से इस आदेश के लिए राज्यपाल सत्यपाल मलिक की सहमति ली गई और इसे ही राज्य सरकार की मंजूरी मान लिया गया। यहां पर संविधान विशेषज्ञों ने शंका जाहिर की कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति की ओर से की जाती है। ऐसे में राज्यपाल की ओर से दी गई मंजूरी अमान्य ठहराई जा सकती है। इसके साथ ही वहां के लोगों से बिना पूछे ऐतिहासिक परिवर्तन कर देना एकतरफा फैसला है। उधर, केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने पर भी आलोचकों का कहना है कि पहली बार देश में ऐसा हुआ कि किसी पूर्ण राज्य को केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया।

वहीं, केंद्र सरकार के इस फैसले का कई संविधान विशेषज्ञों ने समर्थन भी किया और उनका कहना है कि अनुच्छेद-370 के प्रावधानों के खत्म करने में संविधान का उल्लंघन नहीं किया गया है। उनका तर्क है कि यह अनुच्छेद अस्थायी था। साथ ही उनका कहना है कि इसे हटाने के लिए राष्ट्रपति को जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं थी। जब राज्य में सरकार ही नहीं है तो वह कैसे मंजूरी ले सकते थे।

चूंकि मामला सर्वोच्च न्यायालय में है और अब इस पर अक्टूबर के पहले हफ्ते में संविधान पीठ सुनवाई करेगी, इसलिए इस फैसले की संवैधानिक वैधता की जांच तभी हो पाएगी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की खंडपीठ ने अप्रैल 2018 में कहा था कि लंबे समय से अस्तित्व में होने के कारण अनुच्छेद 370 ने स्थायी अधिकार हासिल कर लिया है और इसे हटाना नामुमकिन है।

अब देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या फैसला सुनाता है, क्योंकि यही जम्मू-कश्मीर का भविष्य तय करेगा कि उसे दोबारा विशेष दर्जा मिलता है या नहीं। अभी राज्य में तमाम पाबंदियां लगी हुई हैं। ऐसे में वहां के लोगों की आवाज बाहर नहीं आ पा रही है। हालांकि, कुछ मीडिया रिपोर्ट कश्मीर के हालात सुधरने की बात कर रही हैं तो कुछ में वहां लोगों के नाखुश होने की बात सामने आ रही है। ऐसे में केंद्र सरकार के सामने न सिर्फ इस फैसले के पक्ष में सर्वोच्च अदालत में पुरजोर तरीके से पैरवी करने की चुनौती है, बल्कि उसे जम्मू-कश्मीर के लोगों के मन में विश्वास भी पैदा करना है। क्योंकि, कश्मीर ही नहीं कश्मीरी भी हमारे हैं।

 (यह लेख लेखक के फेसबुक पोस्ट से लिया गया है )

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

ललित मोहन बेलवाल
ळेखक पत्रकार हैं।

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