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जेएनयू में फीस बढ़ोतरी कर सामाजिक न्याय और अवसरों की समता जैसे संवैधानिक मूल्यों की हो रही निर्मम हत्या

दो दिनों पहले राष्ट्रीय राजधानी से कुछ अमानवीय तस्वीरें सामने आईं। मामला प्रशासन की  शह पर पुलिस द्वारा जेएनयू के छात्र- छात्राओं पर हुए लाठीचार्ज के द्वारा उनके प्रतिरोध को सत्ता की शक्ति के दम पर कुचलने का है।

यह देखना सुखद है कि जन दबाव में ही सही अधिकांश मीडिया चैनल्स ने कम या ज्यादा इस घटना को अपनी स्क्रीन में जगह दी है। पिछले दिनों जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हो रहे छात्र आंदोलन पर पुलिस प्रशासन के द्वारा बर्बरता की गई थी तब मीडिया हाउसेज के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।

पिछले दिनों जेएनयू की रेगुलर फीस व हॉस्टल फीस में अप्रत्याशित वृद्धि कर दी गई। इसके अलावा विद्यार्थियों पर हॉस्टल मैन्युअल के नाम पर अलोकतांत्रिक बंदिशों को लगाने की कवायद शुरू हो गई है।

यह सब कुछ उस जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में में किया जा रहा है जो एनआईआरएफ रैंकिंग में दूसरे/तीसरे पायदान में हमेशा ही रहता है, जो अपनी बौद्धिकता, विरोधी विचारों के सम्मान, लोकतांत्रिक और सुरक्षित परिसर के लिए जाना जाता है।

जेएनयू में अप्रत्याशित फीस वृद्धि का सीधा अर्थ है- गाँव, गरीब, वंचित, पिछड़े वर्गों की भागीदारी को शिक्षा में समाप्त कर देना। यह एक सुनियोजित षड्यंत्र है- वंचित वर्गों में जागृत हो रहे बुद्धि- विवेक को रोकने का, ताकि इस देश को चला रहे मुट्ठी भर लोगों के स्वार्थ और अलोकतांत्रिक सत्ता इसी तरह चलती रहे। यह तो होना ही था। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। इसकी नींव तभी रख दी गई थी जब इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस (eminence) की सूची में ‘जिओ इंस्टीट्यूट’ को रखा गया था जिस का संचालन भी प्रारंभ नहीं हुआ था।  ऐसे ही तेजस एक्सप्रेस से लेकर अनेक कदम निजीकरण करने के प्रयासों के तौर पर सामने आए हैं। अगर कड़ियाँ जोड़ें तो प्रथम दृष्टि में ही एक ऐसी श्रृंखला मिल जाएगी पूंजीवाद के विस्तार की, जिसे राजनीतिज्ञ, मीडिया और साहित्यकार सभी सहयोग प्रदान कर रहे हैं।

आज भारतीय समाजवादी राजनीति के नब्बे के दशक का एक प्रसिद्ध नारा याद आ रहा है-

‘रोटी कपड़ा मकान सस्ती हो।

सिंचाई पढ़ाई दवाई मुफ्त हो।

आर्थिक मंदी के कारण जहां रोजगारों की समाप्ति से रोटी, कपड़ा, मकान हासिल करना मुश्किल हो रहा है तो वहीं सिंचाई की असुविधा के कारण विदर्भ और बुंदेलखंड के किसानों की हालत किसी से छिपी नहीं है और पढ़ाई के खर्चे दिनों-दिन बढ़ रहे हैं। बची कसर निजीकरण करके पूरी की जा रही है।

यह पूंजीवाद का जोर पकड़ता उभार ही है कि तथाकथित विकास और छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर उदारवादी आर्थिक नीतियों के चेहरे तले भारतीयों की स्वविवेक की शक्ति को नष्ट किया जा रहा है।

पूंजीवाद और बाजारवाद की प्रयोगशाला बना यह वही भारत है जिसकी संविधान की उद्देशिका में ही “समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य” , “सामाजिक न्याय’ और “अवसर की समता” आदि पद आए हैं। निश्चित रूप से संविधान निर्माताओं ने जिस भारत की परिकल्पना की थी, वह धूमिल होती नजर आ रही है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी आशान्वित हुआ जा सकता है कि भारतीयों को सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित कराने के लिए भारतीय आमजन जेएनयू के आम छात्रों की तरह अपने हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए अपना प्रतिरोध करता रहेगा ताकि संविधान की उद्देशिका में उल्लिखित “समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य”, “सामाजिक न्याय’ और “अवसर की समता” वाले भारत की परिकल्पना को वास्तविकता के धरातल पर उतारा जा सके।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

पवन कुमार यादव
पवन कुमार यादव, परास्नातक छात्र , दिल्ली विश्वविद्यालय

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