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जस्टिस गोगोई का राज्यसभा के लिए ‘हां’ का तर्क लोगों को समझा पाएगा?

तस्वीर-गूगल साभार

जस्टिस रंजन गोगोई के रिटायर होने के महज चार माह बाद राष्ट्रपति कोविंद ने उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत करने का फ़ैसला लिया है। 16 मार्च को भारत सरकार की एक अधिसूचना जारी हुई थी जिसमें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया है।  इस पर तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं। ऐसे में पहले जानिए संविधान क्या कहता है?

संविधान क्या कहता है?

संविधान के अनुच्छेद 80 में राज्य सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 निर्धारित की गई है, जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं और 238 सदस्य राज्यों के और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं। राज्य सभा के सदस्यों की वर्तमान संख्या 245 है, जिनमें से 233 सदस्य राज्यों और संघ राज्यक्षेत्र दिल्ली तथा पुदुचेरी के प्रतिनिधि हैं और 12 राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत हैं। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है।

इसके पहले भी ऐसे उदाहरण हैं?

जस्टिस गोगोई से पहले जस्टिस रंगनाथ मिश्रा भी राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं। जुलाई 1998 में कांग्रेस ने ओडिशा से उन्हें राज्यसभा भेजा था। वो 2004 तक राज्यसभा सांसद रहे। लेकिन जस्टिस मिश्रा का मामला जस्टिस गोगोई से थोड़ा अलग है। उन्हें राष्ट्रपति ने नामित नहीं किया था बल्कि कांग्रेस पार्टी की तरफ से वो राज्यसभा भेजे गए थे। कांग्रेस का कहना है कि यही वो बात है जो जस्टिस रंगनाथ की राज्यसभा सदस्यता को जस्टिस गोगोई की सदस्यता से अलग करती है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए नरसंहार में बड़े कांग्रेसी नेताओं को बचाने के ईनाम के तौर पर इसे देखा गया। उन्होंने दंगे की जांच के लिए बनाई गई जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग का नेतृत्व किया था।

जस्टिस लोकुर क्यों चर्चा में हैं, जस्टिस गोगोई से पूछा-जब आख़िरी क़िला ही ढह जाए तो फिर क्या होगा?

पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने चीफ़ जस्टिस रहते हुए कहा था कि सेवानिवृत्ति के बाद जजों की नियुक्ति न्यायपालिका की आज़ादी पर ‘धब्बा’ है, अब सेवानिवृत्ति के बाद उन्हीं की नियुक्ति राज्यसभा के सदस्य के रूप में कर दी गई है। ऐसे में सवाल तो खड़े होने ही थे। सुप्रीम कोर्ट में उनके समकक्ष रहे सेवानिवृत्त जस्टिस मदन बी लोकुर ने ही सवाल उठा दिए। उन्होंने कहा कि क्या आख़िरी क़िला भी ढह गया है? उनका यह ज़िक्र न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता को लेकर है।

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार चार जजों- पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी लोकुर, चेलमेश्वर और कुरियन जोसेफ़ ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी। चारों जजों का वह अप्रत्याशित क़दम था। उन्होंने तब के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर सवाल उठाए थे और कहा था कि महत्वपूर्ण केसों का आवंटन सही तरीक़े से नहीं किया जा रहा है। उनका इशारा मुख्य न्यायाधीश और सरकार के बीच संबंधों की ओर था। जस्टिस गोगोई का उस प्रेस कॉन्फ़्रेंस में शामिल होने का फ़ैसला चौंकाने वाला था क्योंकि वह अगले मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में थे। उन्होंने ऐसे में प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर एक जोखिम उठाया था। इस कारण तब जस्टिस रंजन गोगोई में एक अलग ही उम्मीद की किरण दिखी और जब वह चीफ़ जस्टिस बने तो लगा कि न्यायपालिका में काफ़ी कुछ बदलने वाला है।

जस्टिस गोगोई के राज्यसभा के लिए मनोनीत होने की ख़बर के बाद जस्टिस लोकुर ने वाजिब ही सवाल पूछा है कि जब आख़िरी क़िला ही ढह जाए तो फिर क्या होगा। इसका जवाब किसी के पास नहीं।

जस्टिस कुरियन जोसेफ ने सवाल उठाये

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस कुरियन जोसफ ने पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के राज्यसभा मनोनयन पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता के ‘सिद्धांतों से समझौता’ किया है। जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस मदन लोकुर ने ही जनवरी 2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ पत्रकार वार्ता कर कुछ विशिष्ट बेंचों को महत्वपूर्ण मामलों के मनमाने आवंटन का आरोप लगाया था।

कुरियन जोसफ ने कहा, ‘मेरे अनुसार, पूर्व सीजेआई द्वारा राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामांकन की स्वीकृति ने निश्चित रूप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आम आदमी के विश्वास को हिला दिया है।‘ जस्टिस गोगोई द्वारा प्रेस में दिए गए बयान को याद करते हुए, उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि पूर्व सीजेआई ने राज्यसभा के नामांकन को कैसे स्वीकार किया? जस्टिस कुरियन ने कहा, ‘मुझे आश्चर्य है कि कैसे न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, जिन्होंने एक बार न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए दृढ़ विश्वास के साथ साहस का प्रदर्शन किया था, वे अब न्यायपालिका की निष्पक्षता के महान सिद्धांतों से कैसे समझौता कर रहे हैं।‘

कांग्रेस ने इस फैसले को न्यायपालिका पर आघात बताया
वहीं, विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत किए जाने के संबंध में मंगलवार को आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने न्यायपालिका पर आघात किया है। पार्टी प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने यह भी कहा कि मोदी सरकार ने पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के उस कथन का भी ख्याल नहीं रखा जिसमें उन्होंने न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद पदों पर नियुक्ति का विरोध किया था।

सिंघवी ने कहा, ‘हमारे संविधान के तहत न्यायपालिका एक तरफ होकर काम करती है तथा कार्यपालिका और विधायिका दूसरी तरफ होते हैं। संविधान में शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है।’ उन्होंने दावा किया, ‘यह धारणा कुछ वर्षों से बन रही थी कि हमारी कार्यपालिका के आक्रमण से न्यायपालिका में कमजोरी आ रही है। यह धारणा और बढ़ेगी।’
उन्होंने जेटली के एक बयान का उल्लेख करते हुए कहा, ‘कम से कम हमारी नहीं सुनते तो अपनों की सुनिए। जेटली जी की सुनिए। लेकिन ऐसा नहीं किया। आपने अपने लोगों की बात नहीं मानी और लंबी विरासत और सिद्धांत का उल्लंघन किया।’ बता दें कि सितंबर 2012 की बात है, बीजेपी के लीगल सेल ने एक सेमिनार का आयोजन किया था जिस में अरुण जेटली ने कहा था कि “रिटायरमेंट के पहले के फैसले, रिटायरमेंट के बाद किसी भी पद की प्रति इच्छा से प्रभावित होते हैं, रिटायरमेंट के बाद जॉब के प्रति मांग न्यायपालिका के निपक्षता पे असर डालता है”। उस समय जेटली राज्य सभा में विपक्ष के नेता थे और ऐसे भी जेटली जानेमाने वकील भी थे।
सवालों के बाद गोगोई क्या बोले

पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने मनोनीत किए जाने को लेकर उठे विवाद के बीच मंगलवार को कहा कि शपथ लेने के बाद उच्च सदन की सीट की पेशकश स्वीकार करने के बारे में वह विस्तार से बोलेंगे। गुवाहाटी में अपने आवास पर एक बातचीत में गोगोई ने कहा, ‘मैं संभवत: कल दिल्ली जाऊंगा।‘

उन्होंने कहा, ‘पहले मुझे शपथ लेने दीजिए, इसके बाद मैं मीडिया से इस बारे में विस्तार से चर्चा करूंगा कि मैंने यह पद क्यों स्वीकार किया और मैं राज्यसभा क्यों जा रहा हूं।‘ पूर्व सीजेआई ने कहा, ‘भगवान संसद में मुझे स्वतंत्र आवाज की शक्ति दे। मेरे पास कहने को काफी कुछ है, लेकिन मुझे संसद में शपथ लेने दीजिए और तब मैं बोलूंगा।

क्यों उठ रहे हैं पूर्व चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई पर सवाल?

जस्टिस रंजन गोगोई अपने कार्यकाल के दौरान कई अहम फ़ैसले सुनाने के लिए चर्चा में रहे हैं। इनमें बीजेपी समर्थित फैसले अनुच्छेद 370, ट्रिपल तलाक पर अध्यादेश, केरल के सबरीमला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश, राफेल डील मामले में केंद्र सरकार को क्लीन चिट, अयोध्या में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर फ़ैसला और असम में एनआरसी का मामले शामिल हैं। रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट के उन चार जजों में शामिल रहे हैं, जिन्होंने उस समय के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस कर उनके पर पक्षपात के आरोप लगाए थे। ऐसे में जस्टिस रंजन गोगोई पर सवालों का उठना लाजमी ही है।

पूर्व चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई ने पिछले साल अगस्त में अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को हटाने और जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट, टेलीफ़ोन, संचार और अन्य पाबंदियों के ख़िलाफ़ विभिन्न याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की। साल 2017 में तीन तलाक़ कानून लाया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई लेकिन फैसला सरकार के पक्ष में ही रहा।

इसके बाद जस्टिस गोगोई उस बेंच में भी शामिल थे, जिसने रफ़ाल सौदे की जांच की मांग करने वाली याचिकाओं को दो बार ख़ारिज कर दिया था। चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई के कार्यकाल में ही सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना आख़िरी फ़ैसला सुनाया जो हिंदुओं के पक्ष में गया। असम में एनआरसी की प्रक्रिया पर जब सवाल खड़े हुए तो जस्टिस गोगोई की अध्यक्षता वाली इस बेंच ने ये सुनिश्चित किया कि एनआरसी की प्रक्रिया तय समय में ठीक तरह से पूरी हो और उस पर पूरी निगरानी रखी गई। यह तय है कि असम में एनआरसी लागू करने के समर्थक के रूप में गोगोई को जाना जाएगा।

पूर्व चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई पर लग चुका है यौन उत्पीड़न का आरोप

सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई पर उनकी पूर्व जूनियर असिस्टेंट ने यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे। आरोप लगाने वाली महिला ने एक चिट्ठी सुप्रीम कोर्ट के सभी 22 जजों को भेजी, जिसमें जस्टिस गोगोई पर यौन उत्पीड़न करने, इसके लिए राज़ी न होने पर नौकरी से हटाने और बाद में उन्हें और उनके परिवार को तरह-तरह से प्रताड़ित करने के आरोप लगाए हैं। महिला कर्मचारी की तरफ से शिकायत करने से पहले उनकी नौकरी से निकाल दिया गया था और उनके पति और रिश्तेदारों को भी अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था।

चीफ़ जस्टिस का कहना था कि यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला के पीछे कुछ बड़ी ताक़तें हैं। वो कहते हैं कि अगर न्यायाधीशों को इस तरह की स्थिति में काम करना पड़ेगा तो अच्छे लोग कभी इस ऑफ़िस में नहीं आएंगे। आखिर में ये आरोप बेबुनियाद ठहरा दिये गये।

गोगोई ने आनन-फानन में छुट्टी के दिन इस मामले की सुनवाई रखी और सारे नियमों की अनदेखी करते हुए खुद इस मामले की सुनवाई शुरू की। इसके बाद जब उनकी इस प्रतिक्रिया के बाद आलोचना होने लगी तो उन्होंने मामले की सुनवाई के लिए जस्टिस एसए बोबडे के नेतृत्व में एक पैनल का गठन किया।महिला ने आरोप लगाया था कि उनकी बात नहीं सुनी जा रही है और उनके साथ न्याय नहीं हो रहा है।

आखिर जस्टिस बोबडे ने रंजन गोगोई को इस मामले में क्लीन चिट दे दिया और सुनवाई को सार्वजनिक तौर पर करने से यह कहते हुए मना कर दिया कि इसकी ज़रूरत नहीं है। जो आंतरिक जांच कमेटी आरोपों की जांच के लिए बनाई गई थी, उसकी रिपोर्ट की कॉपी शिकायकर्ता को कभी नहीं दी गई। इस पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता और न्याय का बुनियादी सिद्धांत नहीं अपनाया गया। बाद में शिकायतकर्ता को फिर से सुप्रीम कोर्ट की नौकरी पर वापस बुला लिया गया। उनके पति और रिश्तेदार की भी नौकरी वापस मिल गई।

अरुण जेटली का एक बयान जो अब वायरल हो रहा है। उन्होंने ने कहा था कि जजों के रिटायरमेंट और दूसरे पद देने में कम से कम दो साल का अंतर हो। लेकिन आज वही सरकार अपने पुराने नेताओं की बात को अमल में नहीं ला रही है। ये तमाम सवाल हैं जो लोग पूछ रहे हैं और पूछते रहेंगे। आखिर न्यायपालिका और विधायिका को जोड़कर इस मामले को देखना भी एक सवाल ही तो छोड़ जाता है? खासकर ऐसे समय में जब एनआरसी, एनपीआर और नागरिकता कानून को लेकर सरकार का एकपक्षीय रवैया और सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट की खामोशी से लोग सवाल उठा रहे हों।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

कोमल कश्यप
कोमल स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य कर रही हैं।

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