फरीदाबाद : कोरोना की चपेट में आकर देश में साहित्य – संस्कृति से जुड़े असंख्य लोगों की जीवनलीला खत्म हो गयी और इनमें बिहार के डेहरी आन सोन के कवि और पत्रकार मनोज कुमार झा का नाम भी शामिल हो गया है। पिछले कुछ सालों से ये फरीदाबाद में स्थायी रूप से रह रहे थे और यदाकदा डेहरी आन सोन भी आते – जाते रहते थे। यहां इनकी मां और छोटे भाई रहते हैं। मैं ममेरा भाई होने के नाते इन्हें बचपन से जानता था लेकिन जब 1989 ई. में इनके साथ सहरसा से ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने दिल्ली गया तो इनको निकट से देखने जानने का मौका मिला। उस समय मनोज कुमार झा जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पी.एच.डी. कर रहे थे और इसके पहले इसी यूनिवर्सिटी से इन्होंने इतिहास में एम.ए. किया था। दिल्ली आने के बाद इनके परामर्श से मैंने भी जामिया मिल्लिया इस्लामिया के इतिहास विभाग में नाम लिखाया और पांच से छह महीने तिलक नगर में उनके साथ रहा।
बाद में मनोज कुमार झा अपना शोधकार्य छोड़ कर डेहरी आन सोन चले आये और यहां बच्चों का स्कूल और प्रिंटिंग प्रेस खोल कर आजीविका तलाशने में लगे रहे लेकिन अंतत: इन कार्यों में मन नहीं लगने के कारण डेहरी से फरीदाबाद चले आये और यहां मजदूर मोर्चा अखबार में काम करने के बाद कई अखबारों में काम किया और फिर भोपाल के कई अखबारों में काम किया। मनोज कुमार झा जब गया कालेज में पढ़ते थे तो डेहरी आन सोन से इन्होंने कलमकार नामक साहित्यिक पत्रिका के कई अंकों का भी संपादन किया। मनोज कुमार झा को अपनी लोकभाषा मगही से काफी प्रेम था और इन्होंने राहे राह अन्हरिया कटतो शीर्षक से इस लोकभाषा के प्रसिद्ध कवि मथुरा प्रसाद नवीन की प्रतिनिधि कविताओं का संपादन भी किया। इसी समय लाल नीली लौ इनका कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ था। इसकी कुछ कविताएं मुझे अच्छी लगी थीं – ”धूल उड़ रही है / धूल से भरी है छाती / धूल में सनी है आवाज / धूल में गुम है आकाश / हम समुद्र को / आशा भरी निगाहों से / ताकते हैं… कविता में वर्तमान समय और समाज के संकटों का बयान करने वाला यह कवि लेकिन अंतत: खुद कोरोना के संकट से रोगग्रस्त होकर चल बसा। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे!
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