संन्यास लिया जा चुका है, सालों चला एक ख़ुशनुमा इवेंट ओवर हो चुका है, जी हाँ, हर महान व्यक्तित्व अपने आप में एक इवेंट होता है। अब हम इस पर रो कर भावुक हो सकते हैं या फिर हंसकर विदा देकर उस बेहतरीन सफ़र को याद कर के ख़ुश हो सकते हैं। धोनी नस्लों को मुतअसिर करने वाला एक एक कैरेक्टर है, धोनी महज एक व्यक्ति या खिलाड़ी का नाम नहीं रह गया है , बल्कि धोनी अब एक अनुभूति के परिपक्व होने के बाद तैयार हुआ भाव है, जिसे देश में क्रिकेट का सपना देखने वाली जाने कितनी जोड़ी आँखें सबसे पहले महसूस करती हैं।
धोनी को क्रिकेट ही नहीं ज़िंदगी के हर पहलू पर एक आदर्श बनाया जा सकता है, फिर चाहे वो तमाम दवाबों और आलोचनाओं के बीच अपना धैर्य बनाये रखना हो या फिर किसी भी खिलाड़ी के खराब दौर में एक लीडर की तरह उसके पीछे और साथ खड़े रहना हो, इसका सबसे बड़ा उदाहरण रोहित शर्मा के रूप में हम सबके सामने है।
कल उस इंस्टाग्राम पोस्ट के बाद मेरे ज़ेहन में 8 साल पुराना एक वाकया इस दर्जा ताज़ा हुआ कि लगने लगा जैसे वो भी अभी कल की ही बात है, मुझे याद है वो शुक्रवार 9 मार्च 2012 का दिन था, जब कंप्यूटर पर ईएसपीएन क्रिकइंफ़ो की एक ख़बर ने मुझे हिला के रख दिया था, क्रिकइंफ़ो की बैंगलोर डेस्क की पत्रकार शारदा उगरा ने एक स्टोरी कवर करते हुए लिखा “Dravid Walks Off, Sad but Proud”। इस ख़बर को पढने के बाद मैं अगले कई दिन तक ये मानने को तैयार नहीं था जिस ख़िलाड़ी की वजह से मैंने क्रिकेट देखना, समझना शुरू किया, ज़िंदगी के हर पहलू में जिसे अपना आदर्श माना और हमेशा मानता रहूंगा वो सक्रिय तौर पर अब इस खेल का हिस्सा नहीं होगा, लेकिन मैंने उस घटना को स्वीकार किया और ये तय किया कि मेरे आदर्श के लिए मेरा सच्चा सम्मान यही होगा कि मैं उस खेल को उसी उत्साह से देखता रहूँ और उनके द्वारा स्थापित आदर्शों पर चलता रहूँ। इसी की उम्मीद में क्रिकेट प्रशंसकों से धोनी के संदर्भ में भी करता हूँ।
इस पूरे वाकये को बताने का मेरा मक़सद यही था कि सर गारफ़ील्ड सोबर्स, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर, जैक्स कैलिस, शॉन पॉलक राहुल द्रविड हों या फिर एमएस धोनी, हर महान खिलाड़ी को एक निश्चित समय के बाद अपनी विरासत को आने वाली नस्लों को सौंप कर ज़िंदगी में आगे बढ़ना होता है। दुनिया का का कोई भी महान व्यक्तित्व डार्विनिज़्म स्कूल ऑफ़ इवॉल्यूशन के इस सिद्धांत से अछूता नहीं रहा है जो कि “जो व्यक्ति ख़ुद को परिवर्तन के अनुकूल कर लेता है उसके सरवाइवल की संभावनाएं उस व्यक्ति से कहीं ज़्यादा होती है जो जबरदस्ती ख़ुद पर Eternal Strongest और Most Intelligent का ठप्पा लगाए रखता है”। धोनी ने परिवर्तन को स्वीकार किया कि शरीर की एक अपनी अलग साइंस होती जिसे वक़्त के साथ हर हाल में इवॉल्व होना ही है। अभी तक हम सब ने धोनी के हर फ़ैसले में पूरा विश्वास दिखाया है तो क्यों न उनके इस फ़ैसले को भी हम खुले दिल से स्वीकार करें और अपने हीरो का बेहतरीन योगदान के लिए शुक्रिया अदा करें हंसकर बाए बोलें।
अब बात आती है क्रिकेटर धोनी की, मस्त मौला महेंद्र सिंह धोनी से एक जिम्मेदार, सफेद दाढ़ी वाले सीनियर धोनी और अब संन्यास तक के सफर में लगभग 16 सालों की जो साधना है वो ही खड़गपुर जंक्शन के एक साधारण टिकट कलेक्टर को क्रिकेट की दुनिया का सबसे सफलतम कप्तान , विकेटकीपर और फिनिशर बनाती है। आलोचनाओं से भी धोनी का हमेशा चोली दामन वाला साथ रहा है, शुरू में विकेटकीपिंग स्किल्स पर तो एक समय के बाद कप्तानी में लिए गए फैसलों, आलोचना और समर्थन दोनों ने ही कभी भी धोनी का पीछा नहीं छोड़ा।
ऑस्ट्रेलियाई टीम में एक समय था जब एडम गिलक्रिस्ट जैसा बेहतरीन विकेटकीपर, माइकल बेवन जैसा जबरदस्त फिनिशर जिसे “ODI Specialist” का तमगा भी मिला और रिकी पोंटिंग जैसा एक करिश्माई कप्तान था, ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट के लिए ये एक सुनहरा दौर था जब ये टीम अपने चरम पर थी। वहीं दूसरी ओर भारतीय टीम को सौरव गांगुली के रूप में कप्तान की कमी से तो निजात मिली लेकिन अभी भी एक विकेटकीपर और फिनिशर की कमी भारतीय टीम को खल रही थी।
2004 में जब धोनी ने डेब्यू किया तो सबको यही उम्मीद थी अब शायद भारतीय टीम को एक बेहतरीन विकेटकीपर बल्लेबाज मिल जाएगा और ये तलाश खत्म होगी, लेकिन पहले 4 मैचों में केवल 22 रन बनाने वाले धोनी के प्रदर्शन से खुद धोनी भी हताश और निराश नज़र आ रहे थे, लेकिन अभी दादा यानी सौरव गांगुली के एक ऐसे फैसले का आना बाकी था जिसके instinct को धोनी ने अपनी कप्तानी में भी आगे बढ़ाया और वो फैसला था खराब फॉर्म से जूझते एक नए खिलाड़ी को खुद को एक और बार साबित करने का और धोनी ने खुद को ऐसा साबित किया कि भारतीय टीम की तीनों तलाश एक ही खिलाड़ी पर आ कर खत्म हो गई।
पाकिस्तान के खिलाफ नंबर 3 पर बल्लेबाजी करने उतरे धोनी ने उस दिन जिस दर्जे की बल्लेबाजी की वो आज भी भारतीय क्रिकेट की यादगार पारियों में से एक के रूप में रिकार्ड्स में दर्ज है। इसके बाद पीछे मुड़ कर न देखने वाले मस्त मौला धोनी की किस्मत ने उसका साथ एक जिम्मेदार सीनियर धोनी बनने तक दिया।
2007 के विश्व कप में श्रीलंका और बांग्लादेश से पहले ही दौर में हारकर बाहर होने के बाद भारतीय क्रिकेट को एक निराशा, हताशा और नाउम्मीदी ने चारों ओर से घेर लिया था, इसी बीच सितंबर 2007 में बिगुल बजा पहले टी 20 विश्व कप का जो कि होना था दक्षिण अफ्रीका में।
जिस समय विश्व कप की घोषणा हो रही थी उसी समय टीम इंडिया इंग्लैंड में वन-डे सीरीज खेल रही थी, मैनचेस्टर में पाँचवे वन-डे के बाद टी20 विश्व कप के लिए टीम की घोषणा की गई जिसकी कमान मिली युवा महेंद्र सिंह धोनी को और कुछ अनुभवी चेहरों को छोड़ दें तो धोनी के साथ थी नए लड़कों की एक ऐसी टीम जिसको अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का कोई खासा अनुभव नहीं था। सचिन, सौरव और द्रविड़ को आराम देने का फैसला बोर्ड काफी पहले कर चुका था।
जोहानसबर्ग के बुलरिंग में हुए टी20 विश्व कप के फाइनल मैच में चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान को हराकर धोनी ने नए लड़कों की जिस टीम को विश्व चैंपियन बनाया उसने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और ये वही टीम थी जिसने ऑस्ट्रेलिया की दशकों पुरानी बादशाहत का भी अंत किया।
उसके बाद टेस्ट क्रिकेट में नंबर 1, 2011 का आईसीसी वन-डे विश्व कप, 2013 की आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी, ये कुछ ऐसे कीर्तिमान थे जो भारतीय टीम ने एमएस धोनी की कप्तानी में रचे।
खुद को बैटिंग ऑर्डर में नीचे लाना, नए लड़कों पर कठिन वक़्त में भरोसा दिखाना, (जिसका एक उदाहरण 2007 टी20 विश्व कप में अनुभवी हरभजन की जगह युवा जोगिंदर शर्मा को आखिरी ओवर देना) कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सम-भाव रहना और धैर्य न खोना, ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनसे धोनी सिर्फ क्रिकेट ही नहीं बल्कि जीवन प्रबंधन में भी काफी कुछ सीखने को देते हैं।
धोनी वाकई में सिर्फ एक नाम नहीं, एक साधना हैं, क्रिकेट का एक बेहद खूबसूरत इवेंट जो अब ओवर हो चुका है, जिससे आने वाली कई नस्लें मुतअसिर रहेंगी।
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