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डर लगता है

तस्वीर- गूगल साभार

इंसान को इंसान से डर लगता है

आखिर ना जाने क्यों उसे

दुनिया जहां से डर लगता है

 

चाहता तो है वो खुलकर ही करना बयां

कड़वे सत्य को प्रत्येक अपनों से सदा

पर उनके अपने हो जाएं ना कहीं खफा

उसे अपने कड़वे जुबां से डर लगता है

 

जानते हुए किसी के बुरी आदतों को भी

करता नहीं वो उससे फिजूल बहस कभी

कर ना दें बेइज्जत बेमतलब में कोई कहीं

उसे अपने ऐसे अपमान से डर लगता है

 

सहता है अकेले ही लाख दर्द -ओ-मुसीबत

पर लेता नहीं वो किसी अपने पराये की मदद

कहीं भूल ना जाए भूल से कोई अपनी अदब

उसे ऐसे मददगार मेहरबान से डर लगता है

 

चाहता तो है वो खुलकर उड़ना सदा शान से

अपने मजबूत इरादों और अपनी पहचान से

पर धोखे से गिरा ना दे कोई उसे आसमां से

उसे ऐसे छल-कपटी बेइमान से डर लगता है

 

पर डरते नहीं कुछेक इंसान कोई भी इंसान से

चलते हैं वो तो हमेशा हीं अपना सीना तान के

करते नहीं बुरा किसी भी बुरे का कभी जान के

क्योंकि उन्हें अपने भगवान से डर लगता है

 

इंसान को इंसान से डर लगता है

आखिर ना जाने क्यों उसे

दुनिया जहां से डर लगता है

 

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

About the Author

प्रिया सिन्हा
प्रिया सिन्हा बिहार की रहने वाली हैं। आप बहुत सारी साझा पुस्तकों में अपनी कविताएं प्रकाशित करा चुकी हैं। इसके लिए औऱ पेंटिंग की हुनर के लिए कई मीडिय़ा संस्थानों की ओर से सम्मानित भी की जा चुकी हैं।

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