अगर किसी चीज की आत्मा को ही उससे निकाल दिया जाए, या उसे मार दिया जाए तो सोचिए कि क्या होगा। इसका उत्तर आप सभी जानते होंगे। इसीलिए मैं अब सीधे मुद्दे पर आता हूं। डीयू के अंतर्गत स्थापित एनसीवेब में इस महामारी के दौरान जो कुछ भी हुआ और हो रहा है उसे देख कर तो यही लगता है कि इस संस्था को चलाने वालों ने इसकी आत्मा को ही मार दिया है।
एनसीवेब की स्थापना इस उद्देश्य के साथ की गई थी कि ऐसी लड़कियां जो वर्किंग हैं, ऑफिस में काम करती हैं और अपनी औपचारिक शिक्षा को जारी रखना चाहती हैं वे वीकेंड अर्थात छुट्टी के दिन एनसीवेब में कॉलेज जाकर शिक्षा प्राप्त कर सके। यही कारण है कि एनसीवेब में क्लास आमतौर पर उस दिन रखी जाती है जिस दिन शनिवार या रविवार होता है या फिर कोई राष्ट्रीय अवकाश। ऐसा शेड्यूल उन वर्किंग महिलाओं को ध्यान में रख कर बनाया जाता है, जो किसी नौकरी के साथ-साथ अपनी उच्च शिक्षा को जारी रखती हैं।
पर, बहुत दुख की बात है कि इस महामारी के नाम पर एनसीवेब को चलाने वाले अधिकारियों ने इस संस्थान की आत्मा को ही मार देने का काम किया है। इस महामारी के समय एनसीवेब ने छात्राओं के क्लास का शेड्यूल जिस तरह से बनाया है, यह इसी बात की ओर इशारा करता है। इस बार क्लास का शेड्यूल हर दूसरे दिन रखा गया है। इस नए शेड्यूल में इस बात का तनिक भी ध्यान नहीं रखा गया है कि वैसे स्टूडेंट्स जो कोई जॉब करते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखने के उद्देश्य से इस संस्थान से जुड़े थे, वो इस तरह के अतार्किक शेड्यूल के साथ इन दोनों चीजों को साथ-साथ कैसे चला पाएंगे।
सिर्फ इतना ही नहीं, क्लास के शेड्यूल के साथ और भी कई ऐसी बातें हैं जो पूरी तरह से हास्यास्पद, आधारविहीन और असंवेदनशील हैं। एक ही दिन में 5 से 6 क्लास का शेड्यूल रखा गया है और एक क्लास पूरे 2 घंटों की होगी। अब इस पर किसी ने ये सोचा ही नहीं कि डेढ़ या दो जीबी डेटा में यह कैसे संभव है कि एक दिन में 5 से 6 क्लास को वर्चुअली अटेंड किया जा सकता है। यह डिजिटल डिवाइड नहीं तो और क्या है?
सत्र को पटरी पर लाने के लिए एनसीवेब प्रशासन ने एक और हास्यास्पद काम यह किया है कि कई सारे क्लास का शेड्यूल रात के 11 बजे तक रखा है। भारत के परिवार में जिस तरह से लड़कियों को घर के काम-काज और चूल्हे चौकी में जकड़ कर रखा गया है, उसे ध्यान में रखते हुए एनसीवेब प्रशासन को इस तरह के शेड्यूल बनाने से पहले ज़रूर एक बार सोचना चाहिए था। बहुत-सी बातें बोली नहीं जाती, समझी जाती हैं।
दुख की बात है कि जब ऐसे सवाल स्टूडेंट्स की तरफ से आते हैं तब कुछ शिक्षक का रवैया भी एनसीवेब के अधिकारियों जैसा ही होता है। वे सीधे कह देते हैं कि घर में वाईफाई लगवा लीजिए। अपने क्लास रूम की विविधता और स्टूडेंट्स के पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को दरकिनार करते हुए ऐसा कहना कितना असंवेदनशील और गैर जिम्मेदाराना है, इसका अंदाजा आप ख़ुद से लगा सकते हैं। एनसीवेब में पढ़ा रहे शिक्षकों की आर्थिक हालात को समझते हुए मैं तो यहां तक कहता हूं कि स्टूडेंट्स की बात तो छोड़िए, यहां पढ़ा रहे सारे शिक्षक क्या अपने-अपने घरों में वाईफाई का ख़र्च उठाने में समर्थ हैं? अगर यथार्थ को देखते हुए ईमानदारी बरती जाए तो इसका जो उत्तर होगा, उसे यहां लिखने की कतई ज़रूरत नहीं है।
एनसीवेब के संस्थानिक आधार पर अगर इस बात को देखा जाय तो यहां पढ़ रहे स्टूडेंट्स के मानवाधिकार के हनन का सवाल खड़ा होता है, जिसे अभी तक किसी ने भी नहीं उठाया है।
कुछ लोग इसके तर्क में कहेंगे कि महामारी के कारण नामांकन प्रक्रिया में हुई देरी के कारण सत्र को पटरी पर लाने के लिए ऐसा करना ज़रूरी था। तो इस पर यह तर्क आता है कि सिर्फ सत्र को पटरी पर लाने मात्र के लिए इस संस्थान की आत्मा से खिलवाड़ करना ज़रूरी था? छुट्टियों के दिन क्लास का शेड्यूल रखते हुए क्या सत्र को पटरी पर लाया नहीं जा सकता था? क्या सिलेबस को छोटा करके सत्र को पटरी पर नहीं लाया जा सकता था?
इन सारे पहलुओं पर एनसीवेब के अधिकारियों को एक बार जरूर सोचना चाहिए। एनसीवेब में पढ़ रहे स्टूडेंट्स के साथ यह एक बहुत बड़ा धोखा है, बहुत बड़ा छल है। यहां के अधिकारियों को एक बार जरूर सोचना चाहिए कि उन्हें एक बड़ी और महत्वपूर्ण संस्था को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है न कि किसी चिड़ियाघर को चलाने की।
(यह लेख सूरज राव ने लिखकर हमें भेजा है सूरज राव जेएनयू के शोधार्थी हैं।)
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