कविताः बिस्तर की सलवटें
-डॉ. संजय यादव “चारागर” यूँ तो निर्जीव हैं, मौन हैं ज़माने की नज़रों में शून्य हैं, गौण हैं पर हमारी इसी शून्यता के गर्भ में दफ़न हैं राज के गहरे समन्दर कई और ओढ़कर सो रहे हैं हमारी ख़ामोशी के कफ़न को चीख़ों के तूफ़ान कई हाँ, बिस्तर की सलवटें हैं हम बदल-बदल कर करवटें गुज़ारी जो तुमने उन रातों की मूकगवाह हैं हम हाँ, बिस्तर की सलवटे हैं हम कभी पिया की यादें तो कभी अपनों की उलझने कभी आने वाले कल की बेचैनियाँ तो कभी ज़िंदगी की दुश्वारियाँ ना जाने किस-किस को पनाह दी है हमने सभी का मर्ज़ अपने सर पर लेकर हाकिम को ही दवा दी है हमने गिन-गिन तारे गुज़ारी आँखों में जो तुमने उन रातों की मूकगवाह हैं हम…