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गुड़मंडी में हाथरस की तरह घटना घटी, लेकिन अभी तक एफआईआर तक दर्ज नहीं!

दिल्ली के मॉडल टाउन पुलिस स्टेशन में स्थानीय पुलिस ने आज तक गुड़मंडी में निषाद समुदाय की लड़की के साथ मकान मालिक के निवास पर बलात्कार और हत्या के मामले मे एफआईआर दर्ज नहीं की है। घटना 4 अक्टूबर की है, लड़की की हत्या और बलात्कार जिस घर में हुई है वहां वो घरेलू कामगार थी। हत्या के एक महीने बाद भी पुलिस पर एफआईआर दर्ज न करके दोषियों को संरक्षण देने का आरोप लग रहा है। दूसरी तरफ पुलिस ने परिवार के सदस्यों, छात्रों और एक पत्रकार के खिलाफ महामारी अधिनियम और आपराधिक षडयंत्र के तहत एफआईआर दर्ज की है जो पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने के लिए लड़ रहे थे। पीड़ित परिवार के साथ-साथ सहायक छात्र और मीडिया के लोग दिल्ली पुलिस इलाके के विधायक की इस अपराध पर चुप्पी और अपराधियों के साथ मिलीभगत के खिलाफ लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं।

पुलिस की मिलीभगत का आरोप इसलिए लगाया जा रहा है कि पुलिस ने इस गंभीर अपराध के विषय में एफआईआर दर्ज करने से इनकार किया। इस पूरे मामले में पुलिस पर सवाल उठने लगा है कि पोस्टमॉर्टम में देरी क्यों हुई? इसके अलावा अन्य तमाम गलतियां पुलिस ने की जिनमें जल्दबाजी मे शव को जला दिया जाना, जिससे बलात्कार के सबूत भी मिट जाए, परिवार वालों को लड़की का शव देखने तक नहीं दिया जाना और न्याय की मांग करने वाले परिवार और छात्र कार्यकर्ताओं को बेरहमी से पीटना शामिल है, यह सभी सोनीपत के बुटाना गांव की घटना और हाथरस वाली घटना की पुनरावृत्ति के रूप में हमारे सामने मौजूद हैं।

बुटाना में एक दलित नाबालिग लड़की के साथ कुछ पुलिसकर्मियों ने सामूहिक बलात्कार किया, और उसे और उसके बहन दोनों के कपड़े छीन लिए गए, शारीरिक और यौन हिंसा की गयी, क्रूरता से उनके शरीर के भीतर कांच की बोतलों और अन्य वस्तुओं को डाला गया। साथ ही जातिवादी गालियाँ देके उन्हें प्रताड़ित किया गया। एफआईआर दर्ज की गई है, पर आरोपी पुलिस ने खुद लड़की के परिवार को धमकाया है। जिन लड़कियों के साथ यह घिनौनी हरकत की गई वो लड़कियां खुद जेल में हैं क्योंकि एक अन्य घटना के जांच के संदर्भ में उन्हें हिरासत में रखा गया था, जिसमें उनके परिचित एक व्यक्ति ने उन सभी को परेशान करने वाली पुलिस को चाकू मार दिया था। इस बीच आरोपी पुलिस वाले खुलेआम घूम रहे हैं।

यूपी के हाथरस में, परिवार और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा निरंतर आंदोलन के बाद ही पुलिस ने चार ठाकुर पुरुषों पर कार्रवाई की जिंहोने 19 वर्षीय वाल्मीकि समुदाय की लड़की का बलात्कार और हत्या किया था। इस मामले में परिवार वालों को ही दोषी ठहराने की कोशिश की जा रही है। हालांकि सीबीआई जांच भी चल रही है।

गुड़मंडी में हुई घटना के संबंध में -यौन हिंसा और राजकीय दमन के विरोध मे महिलाएं (WSS) मिलकर एक रिपोर्ट तैयार की हैं। फैक्ट फाइंडिंग टीम की रिपोर्ट में सिलसिलेवार इस घटना का जिक्र किया गया है। इस टीम में आईसा, बीएससीईएम, सीएसडब्ल्यू, दिशा, डीएसयू, केवाईएस, पछास, पीडीएससी, पीडीएसयू,  एसएफआई के कार्यकर्ता शामिल हैं।

जल्द एफआईआऱ दर्ज करने की मांग-

दिल्ली विश्वविद्यालय के तमाम छात्र संगठनों ने मांग की है कि बिना देरी किए गुड़मंडी मामले में एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए। साथ ही निष्पक्ष जांच हो। इस संबंध में ड्राइवर सुभाष के साथ ध्रुपदी बंसल, उनकी बेटी रेनू और बेटे अतुल के बारे में पूछताछ की जानी चाहिए।

इस संबंध में प्रदर्शनकारियों पर हमले को लेकर मॉडल टाउन एसीपी अजय कुमार, एसएचओ और अन्य अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए।

बुटाना और हाथरस मामले में भी न्याय की मांग करते हुए छात्र संगठनों ने मांग की है कि बुटाना मामले में एक स्वतंत्र न्यायिक जांच होनी चाहिए। यौन हिंसा के सभी आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (IPC) और एससी / एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की संबंधित धाराओं के तहत तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए। इस मामले में लड़की को तत्काल चिकित्सा उपचार दिया जाना चाहिए और जेल के अंदर सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए। लड़की की मेडिकल जांच जल्द से जल्द एम्स दिल्ली या पीजीआई चंडीगढ़ में कराई जानी चाहिए।

साथ ही हाथरस मामले में आरोपी की सही मायने में स्वतंत्र संस्था द्वारा पुलिस और अधिकारियों पर जांच की जानी चाहिए, जिन्होंने आईपीसी और एससी / एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के संबंधित धाराओं के अनुसार अपराध को सक्षम बनाया और सबूत मिटाने की कोशिश की।

संगठनों ने यह भी कहा है कि यौन हिंसा के ये सभी मामले एससी / एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 एक्ट के अनुसार तेजी से अदालत में मुकदमा चलाया जाना चाहिए।

फैक्ट फाइंडिंग टीम की पूरी रिपोर्ट

“आप बताना दीदी, मैं गलत बोल रही हूँ क्या…गरीब की बेटी की इज्ज़त नहीं होती क्या!”

शाम के लगभग 5.15 पर हम गुड़मंडी में चौधरी चौक से होते हुए कुछ संकरी गलियों में घुसे। ऐसी ही एक गली में हम अंत के एक मक़ान में गए, सीढ़ियाँ चढ़ते ही उल्टे हाथ पर प्लास्टर किया हुआ एक कमरा था- मॉडल टाउन में काम करने वाली 17 साल की नाबालिग लड़की का, जिसका 4 अक्टूबर 2020 को कथित तौर पर बलात्कार और मर्डर हुआ है।

कमरे में उसकी छोटी मौसी थी, चूल्हे के पास खड़ी थी। और हमसे 3 मिनट पहले जो लोग मिलकर गए, उनके जाने पर कमरा सही कर रही थी, हमारे आते ही हमारी खातिरदारी में लग गई। बातों-बातों में पता चला कि उन्होनें सुबह से खाना भी नहीं खाया था, काम से लौट कर लोगों से बातचीत में ही लगी रह गईं। 16 अक्टूबर से यह उनका रोज़ का रूटीन हो गया है। बड़ी मौसी, जो 3 गली छोड़ कर रहती हैं, वो भी वहीं आ गई थी।

परिवार की सामाजिक आर्थिक स्थिति

दोनों बहने कोठी में साफ-सफाई का काम करती हैं। दोनों बहने पढ़ी नहीं हैं। बड़ी मौसी 20 साल से दिल्ली में हैं। उनकी ननद यहाँ थी, तो वो भी काम के सिलसिले में यूपी के बस्ती जिले से दिल्ली आ गई। बता रही थी कि गाँव में ज़मीन नहीं है, बटाई पर लेते थे। फसल तो हो जाती थी, गेहूँ, चावल का इंतेज़ाम था, पर मसाले, चूल्हे, तेल का इंतेज़ाम जब नहीं हो पा रहा था, तब उन्हें दिल्ली आना पड़ा। दिल्ली में उनका परिवार सालों से देहाड़ी मज़दूरी कर रहे हैं। तीन दिन पहले, मंगलवार को उनके पोती हुई है। अपनी पोती और बहू को घर में छोड़ कर हमसे बात करने आई थी। छोटी मौसी लगभग 7 साल पहले दिल्ली आई, और शक्ति नगर, कमला नगर के इलाकों में तभी से कोठियों में साफ-सफाई का काम कर रही हैं। इनके पति राजौरी गार्डन, रमेश नगर और द्वारका तक रोज़ साइकिल से जाते हैं, पेशे से प्लंबर हैं।

यह 17 साल की इनकी भांजी थी जिसकी हत्या कर दी गई थी, जिन्हें दोनों मौसी अपनी बेटी मानते हैं। वो भी कभी स्कूल नहीं गई। इस बेटी की माँ छोटे भाई के बाद गुज़र गई। पिता, अपने लड़के के साथ गाँव में ही रहते हैं। बड़ी बहन की शादी हो गई है। बेटी की परवरिश बड़े ही प्यार से दोनों मौसी ने की। वो छोटी मौसी के साथ गुड़मंडी के इसी कमरे में रहती थी। इस साल पहली बार काम पर जाना शुरू किया था। 26 जनवरी 2020 से राजौरी गार्डन के एक कोठी पर काम पर लगी थी। 24 घंटे वहीं रहना होता था। लॉकडाऊन में भी वही थी, मालकिन ने घर पर ही रोक लिया था, जबकि मौसी यहाँ काम न होने की वजह से परिवार के साथ एक महीने के लिए गाँव निकल गई थी। कोठी पर तीन लड़कियां काम करती थी, जब दो ही बची तो उनकी बेटी पर काम ज्यादा पड़ गया, और उसने अपनी मौसी को कहा कि वो वापिस आना चाहती है, कहीं और काम कर लेगी। 24 सितंबर को उसका मौसा साइकल पर ही बेटी को घर वापिस ले आया।

परिवार निषाद समुदाय से है, जिसे दिल्ली में एक दलित समुदाय के रूप में वर्गीकृत किया गया है। निषाद समुदाय उत्तर प्रदेश में ओबीसी श्रेणी में आता है, और निषाद समुदाय के बीच एक आंदोलन भी है कि उत्तर प्रदेश में आदिवासी (एसटी) समुदाय के रूप में मान्यता दी जाये।

सिर्फ 8 दिन…!

25.9.2020 तारीख को छोटी मौसी अपनी बेटी के लिए कमला नगर की रेणु मित्तल की कोठी पर काम करने की बात तय कर आई थी। 26 को रेणु मित्तल ने बताया कि उसे तो कोई दूसरी लड़की मिल गई है।  उसकी माँ, ध्रुपदी बंसल (माताजी), मॉडल टाउन की कोठी में अकेले रहती है, उन्हें मदद की ज़रूरत थी। वहाँ माँ का ध्यान रखना था और घर का काम करना था। वो घर देख कर, कमरे देख कर, तनख्वाह की बात कर, मौसी अपनी बेटी को 26 सितंबर को ही छोड़ आई। 26 सितम्बर से 4 अक्टूबर के बीच मौसी अपनी बेटी से सिर्फ 1 बार मिल पाई। 1 अक्टूबर को जब मुलाक़ात हुई, तो दोनों को रेणु मित्तल के घर कमला नगर ही बुला लिया गया। मौसी याद करते हुए बताईं, “उस दिन रेणु मित्तल के अलावा, परिवार के 4 और आदमी टेबल पर बैठे थे, उन्हीं के सामने बात हो पाई, अलग से बात करने का कोई मौका नहीं मिला”। 4 अक्टूबर को भी 3 बजे जब आख़िरी बार फोन पर बात हुई तो ध्रुपदी बंसल ने बेटी को अलग जाकर बात नहीं करने दी। एक घंटे बाद मौसी को ध्रुपदी बंसल ने फोन किया पर मौसी फोन घर पर छोड़के काम पर गई हुई थी। 5.30 बजे जब मौसी काम से लौट कर घर आई, तो रेणु मित्तल और ध्रुपदी बंसल का फोन आया। और मौसी को अपनी बेटी से मिलने के लिए घर बुलाया। रेणु मित्तल अपनी कार में मौसी को साथ ले गई। मौसी बता रही थी कि रास्ते में कई बार रेणु मित्तल के भाई, अतुल बंसल का फोन यह पूछने के लिए आ रहा था कि उसकी मौसी भी है न साथ में। रास्ते में रेणु ने मौसी को कहा कि तुम्हारी बेटी ने खुद को कमरे में बंद कर रखा है, इसलिए पुलिस इकट्ठा हो गई है। उन्होनें इस बात पर भी ज़ोर दिया कि अगर उम्र पूछे तो 19 साल बताना। वहाँ पहुँचते ही मौसी को चारों तरफ पुलिस मिली। मौसी से नाम पता जानने के बाद उन्हें पुलिस अधिकारी ने बताया कि अभी मिलवा देंगे तुम्हारी बेटी से, घबराओ मत। कुछ देर बाद पुलिस का एक आदमी ड्राईवर के कमरे का दरवाज़ा खोला, वहाँ मौसी को अपनी बेटी का कंधा दिखा। उन्हें लगा कि वो नाराज़ थी इसलिए मुँह फुला कर खड़ी रही। मौसी ने जब आगे जाकर देखा, तो उनकी बेटी पंखे से लटकी हुई थी- गर्दन एक तरफ झुकी हुई, फंदा गले में, दोनों हाथ गहरे नीले पड़े हुए। मौसी ने देखा कि गले में बंधा फंदा उनकी बेटी का दुपट्टा या कोई और कपड़ा नहीं था। काले रंग के  टीशर्ट और प्रिंटेड पाजामे में अब सिर्फ उनकी बेटी की लाश थी। मौसी सदमे में थी, इतनी देर से वो अपनी बेटी से मिलने का इंतज़ार कर रही थी- न रेणु मित्तल ने कार में, न “माताजी” ने फोन पर, न पुलिस ने, किसी ने उन्हें खबर नहीं दी कि उनकी बेटी की जान जा चुकी है।

कब? क्यूँ? कैसे? कई सवाल उनके सामने घूमने लग गए! उधर जहां मौसी अपनी बेटी के लिए दुखी, परेशान और सदमे में थी; वहाँ एसीपी, इंस्पेक्टर, बंसल और मित्तल के घर वालों के साथ बैठ कर पेप्सी पी रहे थे और ठहाके लगा रहे थे। मौसी ये बात बताते हुए बोली, “मेरी बेटी वहाँ फांसी के फंदे पर लटकी हुई थी और ये लोग एक गरीब की लाश पर हंस रहे थे…!”

मौसी ने कहा की जब तक उनके परिवार के सभी लोग आ नहीं जाते, बेटी के मृत शरीर को कहीं न लेकर जाएँ। पुलिस न मानी। और मृत शरीर को जबरन ले गई। परिवार वाले यह मांग करने लगे कि उनकी बेटी का शरीर उन्हें वापिस किया जाए। धीरे-धीरे उनके गाँव के भाई-बंधु भी आ गए थे। जिनके घर पर लाश पाई गई, उन्हें छोड़ के पुलिस जो- जो मृत बेटी के साथ थे, उन सबको थाने ले गई। जिस घर में वारदात हुई, उसी के सामने वाले घर में काम करने वाली महिला ने गुजरते हुए एक पुलिस अधिकारी को कह दिया था कि ‘बेटी बचाओ, फांसी लगाओ हो गया है’। उस पर पुलिस अधिकारी ने उस महिला को तुरंत गाड़ी में डाला और परिवार वालों के साथ ही 4 अक्टूबर को थाने ले गई। उन्होनें परिवार वालों को बताया कि बंसल के घर में इससे मिली-जुली वारदात पहले भी हो चुकी हैं। पुलिस ने परिवार वालों के साथ बहुत ही बुरा बर्ताव किया- न एफ़आईआर दर्ज हुई, न बेटी का शरीर मिला, उल्टा अपनी बेटी की मौत में दुखी परिवार वालों को गालियाँ दी। परिवार के बुजुर्ग, महिला, बच्चों समेत 15-20 लोग सभी को देर रात 2 बजे तक रोक कर रखा। उनसे जबरन बयान पर अंगूठा लगवाने कि कोशिश की। जब पुलिस ने लाश नहीं दी तब परिवार वाले हारकर घर वापिस लौटे।

पुलिस यह कह कर लाश नहीं लौटा रही थी कि यह लोग परिवार के नहीं हैं- लड़की की दोनों मौसी, उसकी बड़ी बहन और जीजा, किसी को भी परिवार का हिस्सा नहीं मान रही थी पुलिस। चार दिन तक भी जब उनकी बेटी का मृत शरीर परिवार को वापिस नहीं किया गया, और यह कहा गया कि उनकी बेटी की लाश को पोस्ट मार्टम कर लावारिस में भेज देंगे, तब 7 तारीख को बौखलाए परिवार-जन “माताजी” के घर जाकर विरोध करने लगे। उन्हें ड्राईवर पीछे से कहीं भागता हुआ नज़र आया, तो गुस्से में विरोध में आए लोगों ने पथराव शुरू कर दिया। पुलिस ने उल्टा परिवार वालों को पीटा और धमकी दी कि तुमने किसी का फूलों भरा गमला तोड़ दिया, वहाँ बुजुर्ग महिला रहती है, उन्हें चोट लग सकती थी। पुलिस ने परिवार वालों को रात 12 बजे थाने से छोड़ा। गमला टूटने पर गुस्सायी पुलिस जो परिवार वालों पर एफ़आईआर दर्ज करने के लिए तैयार थी, उसने 4 दिन तक न लाश वापिस की, न बेटी की मौत के जिम्मेदारों पर एफ़आईआर दर्ज की। 

8 अक्टूबर को पुलिस परिवार के लोगों को गाड़ी में बिठा कर बिना कुछ बताए अस्पताल ले गई। वहाँ जाकर उन्हें गार्ड से पता चला कि वो सफदरजंग अस्पताल है। बड़ी मौसी ने अपनी बेटी के शव को एक गाड़ी में लावारिस-सा पड़ा हुआ देखा। उस दिन पोस्ट मार्टम हुआ। अस्पताल में दूर से सिर्फ शक्ल देखने दी। परिवार-जनों ने मृत शरीर मांगा पर पुलिस सीधे सभी को शमशान घाट ले गई। उसके कपड़े भी बदलने नहीं दिये, उससे नहलाने भी नहीं दिया, परिवार के लोगों को शोक भी मनाने का मौका नहीं मिला। बड़ी मौसी बताई कि कैसे बार-बार इंस्पेक्टर पूछ रहा था कि गुड़मंडी से कितने लोग अंतिम संस्कार के लिए आएंगे। पुलिस यह जानने की कोशिश कर रही थी कि लाश को देखने गुड़मंडी से कितनी भीड़ जुट जाएगी, जिसकी तैयारी में वहाँ पहले से ही 300-400 पुलिस वाले मौजूद थे। शमशान घाट जाते ही इंस्पेक्टर जल्दी-जल्दी करने लगा। वहाँ पहले से ही कुछ पुलिसकर्मी सादी वर्दी में खड़े थे। लकड़ियाँ लग चुकी थी, अंदर सबको नहीं जाने दे रहे थे, सिर्फ चंद लोग ही अंदर गए। पुलिस ने जलाने के लिए पेट्रोल का इंतेज़ाम किया हुआ था। और हड़बड़ी में लड़की के पिता को अंतिम-संस्कार करने को कहा। इस तरह न सिर्फ उनकी बेटी की लाश जली, बल्कि उसके साथ गुनाह के सारे सबूत भी भस्म हो गए।

बौखलाए, गुस्से में परेशान परिवार वालों को शांति कैसे मिलती! उनकी बेटी भी चली गई, और इंसाफ भी नहीं हुआ- एफ़आईआर तक दर्ज नहीं हुई है अभी। 16 अक्टूबर को मॉडल टाउन थाने के बाहर  विरोध प्रदर्शन हुआ जिसमें कई छात्र, और गुड़मंडी के बहुत से लोग जुड़े। पुलिस ने बुरी तरह से सबको पीटा। 

पुलिस प्रशासन की सांठ-गांठ

16 अक्टूबर को एफ़आईआर दर्ज कराने की मांग को लेकर परिवार वाले, वकील, पत्रकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ मॉडल टाउन थाने में पहुंचे। वहाँ एसएचओ, एसीपी और अन्य पुलिस कर्मियों ने परिवार के 12 जनों को बहुत बुरी तरह से पीटा। पीड़िता के मौसा को इतना पीटा कि उनको एक कान में तेज़ दर्द हुआ और अब सुनाई देना बंद हो गया है। 60 साल की बुजुर्ग महिला को धक्का दिया और इतनी पिटाई की कि अभी भी उनकी पीठ पर काले निशान है। 8 साल की छोटी बच्ची को भी पीटा। वकील के साथ बदसलूकी की और नारी-विरोधी गालियां दी। कारवां मैगज़ीन के पत्रकार, आहन पेंकर को बुरी तरह से पीटा। पीटते हुए एक सिख छात्र की पगड़ी तक उतार दी। एक मुसलमान छात्र को धमकियाँ दी कि उसके गाँव तक पीछा कर उसे पीटेंगे। एसीपी अजय कुमार ने परिवार वालों को पीटने के बाद बेइज़्ज़त करते हुए कूदने के लिए कहा। यह सब 8 घंटे तक चलता रहा सिर्फ इसलिए क्योंकि परिवार वाले एफ़आईआर दर्ज करने के अपने कानूनी अधिकार की मांग कर रहे थे। इसके बावजूद रेप-मर्डर को लेकर एफ़आईआर आज तक दर्ज नहीं की गई है। उल्टा, समर्थन में आए छात्रों पर कोविड-19 के प्रोटोकॉल को तोडने के आरोप में एफ़आईआर दर्ज की गई।

किसी भी आम नागरिक के लिए आपराधिक मामले में अपनी शिकायत दर्ज करने या उसके साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ इंसाफ लेने के लिए न्यायिक व्यवस्था तक पहुँचने का पहला माध्यम पुलिस ही होता है। पर जब पुलिस ही ‘अपराधियों के साथ बैठ कर पेप्सी पिये’, और खुद अत्याचारी हो जाए, तब आम नागरिक क्या करेंगे! इस मामले में भी हर कदम पर परिवार वालों को यही महसूस हुआ कि ‘पुलिस बिकी हुई है, बंसल परिवार ने पैसे खिलाएँ हैं इसलिए पुलिस ने अभी तक एफ़आईआर दर्ज नहीं की’।

पीड़िता को काम पर लगे सिर्फ 8 ही दिन हुए थे। इनमें से एक दिन माताजी ने घर के दरवाज़े को ताला लगा दिया और खुद कहीं चली गई। पीड़िता घर के बाहर ही रह गई। माताजी ने नाबालिग पीड़िता को बोला कि ‘मुझे आने में देर हो जाएगी, ड्राईवर के कमरे में जाकर सोजा, वहीं आराम कर ले’। ड्राईवर कमरे में ही था। पीड़िता ड्राईवर के कमरे में नहीं गई और गेट के बाहर सीढ़ियों पर 4 घंटे तक बैठी रही। यह बात पीड़िता ने अपनी मौसी को बताई थी। एक नाबालिग लड़की के लिए काम करना मजबूरी थी। इस मजबूरी का नाजायज फ़ायदा उठाते हुए मालकिन ने पीड़िता के लिए असुरक्षित माहौल पैदा किया और उसे असहाय परिस्थिति में धकेला।

बेटी के परिवार वाले लगातार यह सवाल पूछ रहे हैं कि

1) अगर उनकी बेटी ने आत्महत्या की है, तो मृत शरीर को तुरंत परिवार वालों के हवाले क्यों नहीं किया गया? उल्टा, परिवार वालों को पकड़ कर थाने में क्यों बंद कर दिया गया?

2) अगर लड़की का बलात्कार नहीं हुआ है, तो पोस्ट मार्टम 4 दिन बाद क्यों किया गया? परिवार को लगता है कि बलात्कारी के सबूत मिटाने के लिए शरीर को 4 दिन तक रखा गया।

3) अगर पुलिस की बातों में सच्चाई है, तो अंतिम संस्कार से पहले मृत शरीर लड़की के परिवार वालों के हवाले क्यों नहीं किया गया, ताकि वे उसे आख़िरी बार नहलाकर, नए कपड़े पहना कर विदा कर पाते? क्यों शमशान घाट पर पहले से ही लकड़ियां और पेट्रोल की व्यवस्था पुलिस ने कर रखी थी? क्यों 300-400 पुलिस कर्मी शमशान घाट पर तैनात थे?

4) “माताजी” ध्रुपदी बंसल का बेटा अतुल बंसल वारदात के समय घर पर था, परिवार वालों को ड्राईवर के साथ उस पर भी शक है। ध्रुपदी बंसल ड्राईवर को क्यों सह दे रही है?

5) परिवार वालों के अनुसार, अगर ड्राईवर और लड़की में संबंध भी था, तो लड़की को आत्महत्या करने की ज़रूरत क्यों पड़ी? पुलिस ड्राईवर को पकड़ कर पूछताछ क्यों नहीं कर रही? परिवार के लोग मानते हैं कि उनकी बेटी बहुत ही हिम्मती थी, कभी घबराती नहीं थी। कुछ भी उनसे छुपाती नहीं थी। अगर कुछ गलत भी होता उससे, तो घर में ज़रूर बताती, ऐसे आत्महत्या नहीं कर सकती थी।

6) अगर पुलिस ने बंसल परिवार से पैसे नहीं खाए हैं, तो लड़की के परिवार वालों की मर्ज़ी से एफ़आईआर दर्ज क्यों नहीं कर रही हैं? जोकि परिवार वालों का कानूनी हक़ है।

ये सवाल हमें यह सोचने पर मजबूर कर रहे हैं कि पुलिस पर ऐसा क्या दबाव है जिसके चलते वो एफ़आईआर दर्ज नहीं कर रही है। या क्या पुलिस एक गरीब नाबालिग लड़की के साथ हुए अन्याय को एक मामूली वारदात मानकर उसे रफा दफा कर रही है। या रेप-मर्डर केस को खुदखुशी बताकर, सारे सबूत मिटाकर, दोषियों को बचाने के लिए षड्यंत्र रच रही है।

28 सितम्बर को हाथरस कांड में पुलिस के रोल पर अभी लोग सवाल उठा ही रहे थे, कि राजधानी दिल्ली में मॉडल टाउन में नाबालिग लड़की के साथ हुए रेप-मर्डर कांड में पुलिस ने एक दम वैसा ही रुख अपनाया। देशभर में पुलिस को कानून के नियमों का उल्लंघन करने में लगातार मिल रही छूट का एक परिणाम यह होने लगा है कि पीड़ितों और उनके परिवार-जनों को न्याय मिलने के दायरे कम होते जा रहे हैं। और उसके साथ ही अपराधियों के हौसले मजबूत होते जा रहे हैं।

मालिक-मज़दूर संबंध

अपनी बेटी की मौत के बाद उसे याद करते हुए मौसी ने हमें बताया कि जब बेटी को काम करने भेजा था तब मालकिन को अच्छे से बताया था कि ‘इसे हमने कभी किसी चीज़ कि कमी नहीं होने दी, हमारे पास अच्छे से खाती थी, रहती थी, आपके यहाँ भी इसे अच्छे से रखना’। लड़की का आधार कार्ड नहीं बना था, तो मौसी के आधार कार्ड की कॉपी लेकर, उनकी बेटी को काम पर रख लिया था। काम पर लगने के दूसरे-तीसरे दिन ही माताजी ने छोटी मौसी को कहा कि रोटी तो अच्छा बेल लेती है, पर सेंकना नहीं आता। मौसी ने जवाब दिया, ‘इसने कभी घर पर काम नहीं किया है, आप कुछ दिन सीखा दो, सीख जाएगी, तब बनाने लगेगी’। मौसी ने माताजी को अपनी बेटी एक भरोसे के साथ दी थी। अब वो दिन याद करते हुए, मौसी धोखा महसूस कर रही है। क्या बंसल परिवार की पीड़िता के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी? क्यों रईस मालिकों की अपने यहाँ काम कर रहे गरीब मजदूरों के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती?

बेटी के पास फोन नहीं था। दिहाड़ी मजदूरी पर गुजर करने वाले परिवार की लड़की अपनी मौसी से बात करने के लिए माताजी पर निर्भर थी। जब भी मौसी से बात करने का मौका मिलता, और बेटी अलग जाकर फोन पर बात करने लगती, तो माताजी हर बार टोक कर बोलती कि ‘अलग से बात करने की क्या ज़रूरत है, जो बोलना है मेरे सामने ही बोल’। माताजी के फोन पर निर्भरता पीड़िता की लाचारी बन गई थी। बेबस और लाचार परिस्थितियों का फ़ायदा उठाकर कैसे इस समाज में दमनकारी वर्ग और जाति के मालिक गरीब, दलित या पिछड़े मज़दूरों के बुनियादी हकों को दबा पाते हैं? कैसे एक ‘उच्च’ जाति और वर्ग के लोग जिन बातों को अपना हक़ मानते हैं, वही किसी दूसरी जाति या वर्ग के लोगों से छीनना जायज मान सकते हैं! कहने के लिए हर इंसान देश में आज़ाद है, पर फिर भी मालिक लोग मजदूरों के साथ इस तरह बर्ताव करते हैं जैसे उन्होनें मजदूरों की ज़िंदगी मात्र 10,000 के वेतन पर खरीद रखी है।

इस घटना ने हमें साफ दिखा दिया कि पुरुष प्रधान समाज (पितृसत्तात्मक समाज), जातिवादी, वर्गवादी समाज एक निषाद समुदाय की गरीब नाबालिग लड़की का जीवन को कितना असुरक्षित, बेबस और लाचार बना देता है। और यह भी दिखाता है कि मृत्यु के बाद भी न्याय के लिए आपकी पहुँच में जाति और वर्ग किस तरह से हावी है । शोषित जातियों के लोग न तो शांति और  आत्मसम्मान का जीवन जी सकते हैं, और मरके भी ये ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज से न्याय और गरिमा नही पा सकते हैं।

शक, सुरक्षा और वर्ग संबंध

ज़्यादातर बड़े घरों में घर का काम करने के लिए ‘कामवाली’ रखी जाती हैं। कुछ ज्यादा बड़े घर या जिन्हें घरेलू कामगार महिलाएं कोठी बोलती हैं, वहाँ 24 घंटे के लिए लड़कियों को काम पर रखा जाता है। पूरे घर की साफ-सफाई से लेकर खाना बनाना और घर के मालिकों को आराम मुहैया कराने के लिए उन्हें पगार मिलती है। महिला या लड़की को काम पर रखने से पहले, उसकी पूरी जांच-पड़ताल की जाती है, आधार कार्ड या कुछ और दस्तावेज़ मांगे जाते हैं ताकि कल को घर में चोरी हो या कुछ और गड़बड़ हो जाए तो घरेलू कामगार महिला या लड़की को पकड़ा जा सके। इस शक की बुनियाद पर ही जांच-पड़ताल होती है। यह जांच कोठी वालों को सुरक्षा देने का एक मान्य तरीका है जिसे संस्थागत समर्थन भी मिलता है।

लेकिन जब उसी कामगार महिला के साथ इन कोठियों में उत्पीड़न या शोषण होता है, तब उन्हें किसी भी तरह की संस्थागत या सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं होती। उल्टा, उन्हीं के चरित्र और नियत पर सवाल उठाए जाते हैं। हम समझते हैं कि गैर-बराबर समाज में शक और सुरक्षा के पैमाने अमीर, उच्च जातीय तबके के पुरुष प्रधान सोच से तय होते हैं।

पहले भी घरेलू कामगार महिलाओं की सुरक्षा और काम करने की जगह को लेकर कई बार मुद्दे उठे हैं। इस घटना ने फिर से यह सवाल हमारे सामने लाकर रख दिया है कि घरेलू कामगार महिलाओं की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जा सकेगी! यौन हिंसा के मामले, मालिकों द्वारा छेड़-छाड़, जातिगत भेदभाव और छुआछूत के किस्से बहुत आम बात हो गई है। जब घरेलू कामगार महिलाएं किसी के घर काम देखने जाती हैं, तो घर का एरिया, कमरे, काम का प्रकार, और तनख्वा पूछ कर तय करती हैं कि काम करना है या नहीं। पर यौन शोषण की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए अब ज़रूरत है कि मालिकों के रवैये और उनके घर में रखने के तरीके की भी मजदूर महिलाएं जांच-पड़ताल करे। ये तभी संभव हो सकता है जब घरेलू कामगार महिलाएं एकजुट होते हुए संगठित होके ऐसे सवाल उठा सकते हैं और अपनी समस्याओं को हल करने का रास्ता खुद तय कर पाएँ। खासकर तब जब देश की सभी सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं कुछ खास जाति, वर्ग, धर्म और जेंडर के लोगों के लिए ही काम करती है, तब कामगार महिलाओं की एकता ही उन्हें न्याय दिलवा सकती है।

अन्यायी समाज और इंसाफ की लड़ाई

“आप ही बताओ दीदी मैं गलत बोल रही हूँ तो, 4 दिन तक मेरी बेटी की लाश नहीं देंगे, हम गुस्सा करके पत्थर नहीं मारेंगे तो क्या करते? हम गरीब लोगों के साथ ही ऐसा क्यों होता है? हमारी बेटी बेटी नहीं है क्या? उन कोठी वालों के तो एक कुत्ता या बिल्ली भी मर जाता है, तो सारी पुलिस फोर्स काम पर लग जाती है। यहाँ मेरी बेटी के साथ बलात्कार हुआ और उसका मर्डर हुआ है, हम किसके पास जाएँ? एफ़आईआर तक नहीं लिख रहे हैं वो लोग। हमारी ही जाति के लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है। गरीब की बेटी की इज्ज़त नहीं होती क्या। हम लड़ेंगे, और सिर्फ हमारी बेटी के लिए नहीं, समाज की हर बेटी के लिए न्याय लेंगे”। इसी भाव से 16 अक्टूबर से लगातार जो भी मीडिया-कर्मी, या वकील या सामाजिक कार्यकर्ता, लोकल नेता, राजनैतिक पार्टी के नेता मिलने आ रहे हैं, उन सबसे विस्तार से बात कर रही हैं- दोनों मौसी और उनका परिवार। इस उम्मीद में कि इनमें से कोई तो होगा जो उनकी बात सुनेगा और न्याय दिलवाएगा। पर अभी तक एफ़आईआर दर्ज नहीं  किया गया है!

इस प्रकार के नियोक्ता हत्यारे हैं जिन्हें राज्य संरचना और जाति वर्ग के नेटवर्क द्वारा संरक्षित किया जा रहा है। इस बलात्कार और हत्या में उस नियोक्ता की भूमिका की उचित जांच और सख्त सजा की जरूरत है। उन सभी पुलिसकर्मियों पर भी कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए जिन्होंने अपना कर्तव्य निभाने से परहेज किया है और कानून का पालन नहीं किया है।

इंडिया टूड़े का एक पत्रकार विडियो बनाकर ले कर गया। 4 दिन बाद जब मौसी ने फोन कर पूछा कि आपने दिखाया नहीं टीवी पर, तो उसने कहा कि आप 15 लाख रुपये लेकर बैठे हैं। ऊपर से आपने न थैंक यू बोला, न प्लीज बोला। यह बताते हुए मौसा बोले, “हमारे घर में कोई खुशी का माहौल है, जो हम उसे थैंक यू बोलेंगे”। कुछ राजनैतिक पार्टी के लोग भी मिलने आए, बहुत बड़ी बातें की, हौसला बँधाया पर अभी तक एफ़आईआर दर्ज नहीं करवा पाएँ हैं। एक दल तो चौराहे तक जाकर तस्वीरें भी खींचवाया। दूसरे नेता ने चिट्ठी लिखवाई कि पुलिस की तहक़ीक़ात से खुश नहीं है, पर इस पर भी अभी तक कुछ नहीं हो पाया है। पीड़िता के वकील के अनुसार राष्ट्रीय और दिल्ली महिला आयोग से कोई उम्मीद नहीं है और वे मुद्दा नहीं उठा रहे हैं।

हाँ, उनके पड़ोसी, और सभी रिश्तेदार साथ में हैं और इस लड़ाई में परिवार वालों के साथ खड़े हैं ताकि आगे आने वाले समय में उनकी बेटियों के साथ ऐसा बर्ताव न हो। वहाँ पता चला कि इस घटना के बाद कई परिवारों ने अपनी लड़कियों को जो 24 घंटे के लिए काम पर रहती थी, घर वापिस बुला लिया है। लोगों में जो गुस्सा है, वो डर की तरफ तब्दील हो रहा है, इस बात का डर कि उनकी सुनवाई नहीं होगी, उन्हें न्याय नहीं मिलेगा।

गरीब नाबालिग निषाद समुदाय की मेहनतकश लड़की के साथ हुआ रेप और मर्डर को हम इस गैर-बराबर, जातिवादी, पितृसत्तात्मक, समाज में इन ढांचों और व्यवस्थाओं के द्वारा की गई हत्या मानते हैं। इस रिपोर्ट के माध्यम से हम परिवार के दुख और तकलीफ को आम जनता तक ले जाना चाहते हैं, ताकि आप सबके समर्थन से परिवार को और उनके साथ खड़े लोगों को हौसला मिले, एकजुटता मिले और गुस्सा इंसाफ की लड़ाई में तब्दील हो, खौफ की चादर न ओड़ ले।

WSS की माँगें:

1) रेप-मर्डर केस पर तुरंत एफ़आईआर दर्ज हों।

2) निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच होनी चाहिए। मालकिन ध्रुपदी बंसल, बेटी रेणु मित्तल, बेटा अतुल बंसल, ड्राईवर सुभाष के ऊपर कार्यवाही की जाए।

3) मॉडल टाउन के एसीपी अजय कुमार, एसएचओ, और अन्य पुलिस कर्मियों पर पीड़िता के परिवार के साथ बदसलूकी करने पर, छात्रों, वकील और पत्रकार को पीटने पर कार्यवाही हो।

4) आईपीसी सेक्शन 166ए के तहत एफ़आईआर दर्ज न करने पर मॉडल टाउन के पुलिसकर्मी पर कार्यवाही हों।

5) घरेलू कामगार महिलाओं की सुरक्षा के लिए घर, कोठी, दुकान जैसे जगहों को काम करने की जगह माना जाए। इन जगहों पर Prevention of sexual harassment at workplace के नियमों को सख्ती से लागू किया जाए।  

नोट- प्रस्तुत रिपोर्ट फोरम4 को मिली जानकारी के अनुसार प्रकाशित की गई है। यह रिपोर्ट फोरम4 की नहीं है बल्कि फैक्ट फाइंडिंग टीम ने जिस तरीके से इस रिपोर्ट को तैयार किया हूबहू वहीं रिपोर्ट बिना संपादित किए प्रकाशित की गई है। इस रिपोर्ट के संबंध में प्रमाणिकता पर संदेह की स्थिति में फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा न ही फोरम4 किसी के द्वारा लिखी गई जानकारी की पुष्टि करता है। 

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए फोरम4 उत्तरदायी नहीं होगा।

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