डंडा जोर घुमाया जाए
कि गिल्ली दूर तलक जाए,
खाली पांव ही क्यूँ न
पूरी दुनिया नापी जाए।
इन आँखों में सपने
ऐसे ही पलते है,
वनांचल के बच्चें
मीलों मील चलते हैं।
रुतबा शोहरत मोहरे
किस्से जीवन के बहुतेरे
इन सारे किस्सों में
किरदार भी सच्चे ढूंढे जाएं,
खाली पांव ही क्यूँ न
पूरी दुनिया नापी जाए।
प्रश्न प्रश्न है प्रश्न हुआ..
क्या सचमुच, पूरी दुनिया
नाप सकोगे ऐसे ही??
या लिख दी सारी बातें
मन बहलाने को ऐसे ही?
अंतर्मन ने फिर कहा
आओ कभी निकलकर
दुविधा के जंगल से,
चमक-धमक की दुनिया से
ईर्ष्या द्वेष के दलदल से,
आ सको तो आ ही जाना
वनांचल की ओर कभी,
जहां सहेजे हैं आंखों ने
कितने अच्छे सपने अभी भी।
देख-देख इन आँखों को
कितना साहस मिलता है,
झूठ-फरेब की दुनिया में
हां कुछ तो सच्चा दिखता है।
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